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उत्तर प्रदेश की मिट्टियाँ
मृदा अथवा मिट्टी ऊपरी सतह पर मिलने वाले असंगठित पदार्थों की वह ऊपरी परत होती है, दो चट्टानों के विखंडन अथवा वनस्पति अवसादों के योग से बनती है. विभिन्न चट्टानों के विखंडन से बनी मिट्टी में न तो एकरूपता ही पाई जाती है नहीं एक समान उर्वरा शक्ति. भू- गर्भशास्त्रियों ने मिट्टी मूलाधार माना है. तुलनात्मक दृष्टि से प्रदेश में पाई जाने वाली मिट्टी शुष्क होती है, अतः इसमें बिना सिंचाई कृषि करना संभव नहीं है, साथ ही मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी निरंतर खेती किए जाने से नष्ट होती जा रही है उसका अपरदन होता जा रहा है.
प्रो० वाडिया, कृष्ण और मुखर्जी के अध्ययनों एवं विश्लेषण के आधार पर उत्तर प्रदेश की मिट्टी को 2 भागों में बांटा जा सकता है-
- गंगा के विशाल मैदान की मृदाए
- दक्षिण के पठार की मृदाएँ
गंगा के विशाल मैदान की मृदाएं
प्रदेश के इस विशाल मैदानी भाग में जलोढ़ और कांप मृदाए पाई जाती है. नवीनता एवं प्राचीनता के आधार पर जलोढ़ मृदा के दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-
- बांगर मृदा (प्राचीन जलोढ़ मृदा)
- खादर या कछारी मृदा (नवीन जलोढ़ मृदा)
बांगर मृदा
उन मैदानी भागों में बांगर मिट्टी पाई जाती है, जो ऊंचे हैं तथा जहाँ नदियों की बाढ़ का जल नहीं पहुंच पाता है. इस मृदा को राज्य के पूर्वी भाग में उपहार मृदा भी कहते हैं. कंकड़ तथा कठोर मृदा के टीले भी इस मृदा क्षेत्र में मिलते हैं. बांगर मृदा क्षेत्र में मृदा परिपक्व तथा अधिक गहरी होती है.
बांगर मिट्टी को दोमट, मटियार, बलुई दोमट, मटियार दोमटू व भुंड आदि नामों से भी पुकारा जाता है. बांगर मृदा की उर्वरा शक्ति निरंतर कृषि उपयोग में आने के कारण क्षीण हो गई है, क्योंकि इस मृदा की उपरी सतह आवरण क्षय और उनके फलस्वरुप कट कर अलग हो गई तथा सर्वत्र कंकरिली तथा रेहयुक्त मृदा ही दृष्टिगोचर होती है.
खादर या कछारी मृदा
नदियों के बाढ़ के मैदान में यह मृदा पाई जाती है. खादर मृदा हल्के हरे रंग वाली छिद्रयुक्त महीन वाली तथा बांगर की अपेक्षा अधिक जल शक्ति धारण करने की क्षमता वाली होती है. इस मृदा में चुना, पोटाश, मैग्नीशियम तथा जीवाशों की मात्रा अधिक होती है. इस मृदा को बलुआ, सिल्ट बलुआ, दोमट, मटियार-दोमट आदि नामों से पुकारा जाता है. इस मृदा की उर्वरा शक्ति अधिक होती है इसलिए इसमें खाद देने की आवश्यकता नहीं पड़ती है. हालांकि खादर मृदाओं की परत्ते अधिक गहराई तक निपेक्षित नहीं होती है, इन की उर्वरा शक्ति भी नदियों द्वारा कराए गए नवीन अवसादी पदार्थों से निर्मित होने के कारण अधिक होती है.
गंगा-यमुना में उसकी सहायक नदियों के बाढ़ वाले क्षेत्रों में प्लीस्टोसिन युग में निर्मित बलुई मृदा के 10 से 20 फीट ऊंचे टीलों को भुड कहते हैं. वास्तविक रुप से भुड की मृदा केवल बलुई न होकर हल्की दोमट मिश्रित बलुई मृदा होती है.
दक्षिण के पठार की मृदाए
दक्षिणी पठार को बुंदेलखंड तथा बघेलखंड के नाम से भी पुकारा जाता है. यहां प्री कैंब्रियन युग की चट्टानों का बाहुल्य है. यहां की मृदा को बुंदेलखंडीय मृदा भी कहते हैं. जिनमें अनेक भौतिक व रासायनिक परिवर्तनों के कारण भिन्नता आ गई है. इस क्षेत्र की मृदा को भोंटा, माड, कावड़, राकड़, आदि नामों से पुकारा जाता है.
भोंटा मृदा
भोंटा मिट्टी विन्ध्यन पर्वतीय क्षेत्र के अंतर्गत टूटे-फूटे प्रस्तरों के रूप में पाई जाती है. धीरे-धीरे आवरण क्षय होने के कारण यह प्रस्तर महीने चूर्ण के रूप में परिवर्तित होते जा रहे हैं. इन प्रस्तरों के साथ हल्की दोमट मृदा मिलती है. इस मृदा में मोटे अनाज उगाए जाते हैं.
माड मृदा
माड मृदा काली मृदा अथवा रेगुर के समान चिकनी होती है. इस मृदा में 7% सिलीकोट, 15% लोहा एवं 25% एल्युमीनियम मिश्रित होता है. वर्षा ऋतु में यह मृदा गोंद या माड के समान चिपचिपी हो जाती है, जिस कारण इस मृदा पर कृषि कार्य दुर्लभ है. यह मृदा प्रदेश की पश्चिमी सीमा के जिलों में पाई जाती है.
पड़वा मृदा
पड़वा मृदा हल्के लाल रंग की बलुई दोमट मिट्टी होती है, जो हमीरपुर, जालौन और यमुना के बिहड़ों के ऊपरी भाग में पाई जाती है. इस मृदा में जीवांशो की मात्रा कम होती है ,अतः इसमें खाद और पानी की सहायता से कृषि की जा सकती है.
राकड़ मृदा
सामान्यत: पर्वतीय एवं पठारी ढालो पर यह मृदा पाई जाती है. यह मोटी राकड और पतली राकड के रूप में भी ऊपविभाजित की जा सकती है. मोटी राकड़, माड़ एवं कावड़ के रूप में तथा पतली हल्की मृदा के रूप में परिवर्तित हो जाती है. इस मृदा की उर्वरा शक्ति खाद के अधिक प्रयोग से वृद्धि की जा सकती है.
लाल मृदा
बघेलखंड क्षेत्र के मिर्जापुर और सोनभद्र जिलों में यह मृदा पाई जाती है. इसका निर्माण बालुमय लाल विंध्यन शैलों के विदीर्ण होने से हुआ है. यह मिट्टी ग्रेनाइट के रूप में बेतवा तथा धसान आदि नदियों के जलप्लावित क्षेत्रों में भी मिलती है. इस मृदा में नाइट्रोजन, जीवांश, फास्फोरस तथा चुनने की मात्रा की कमी होती है. अंतः यहां गेहूं, चना व दालें उगाई जाती है.
मृदा अपरदन
जल के बहाव से अथवा वायु के वेग अथवा हिमपात एवं हिम पिघलने के फलस्वरूप एक स्थान विशेष की मृदा अन्यत्र चली जाए तो इसे मृदा अपरदन कहते हैं. उत्तर प्रदेश में मृदा अपरदन एक गंभीर समस्या है तथा इसे प्रदेश के विस्तृत क्षेत्र में इस गंभीर समस्या के कारण भूमि एवं उसकी उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है. क्योंकि सतह की मृदा के महीन कण मृदा अपरदन से कट कट कर बह जाते हैं तथा केवल ककरीली- पथरीली मृदा ही शेष रह जाती है. मृदा के उपजाऊ एवं उपयोगिता व मृदा अपरदन के कारण नष्ट हो जाते हैं.
मृदा अपरदन की यह समस्या कई कारणों से जन्म लेती है तथा कृषि उत्पादन की दृष्टि से इस समस्या को रोकना आवश्यक होता है, क्योंकि हजारों वर्षों में मृदा का निर्माण होता है, जब यह मिट्टी बारीक, चिकनी, उर्वरता उपजाति है तथा उसमें मृतक, जीवो वनस्पतियों के अवयव , जिन्हें ह्रामुस कहते हैं, घुल मिल पाते हैं. यदि ऐसी मृदा किसी स्थान से बहकर समुद्र में चली जाए या उड़कर अन्य प्रदेशों में भी जाए तो इसमें बहुत हानि होती है.
प्रदेश में अधिकांश मृदा अपरदन हिमालय की तलहटी के स्थित क्षेत्रों में जलप्लावन की स्थिति पैदा होने तथा वर्षा ऋतु में नदियों में बाढ़ आने के कारण होता है. राजस्थान की पूर्वी सीमा से लगे उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में स्थित आगरा, मथुरा जिले वायु द्वारा होने वाले मृदा कटाव से प्रभावित होते हैं. प्रदेश में मृदा अपरदन के प्रमुख कारण नीचे दिए गए है-
- मृदा अपरदन उत्पन्न होने का एक बड़ा कारण मानसून वर्षा की प्रकृति है. यह वर्षा तीव्र एवं शुष्क ऋतु के उपरांत आती है. अंत: मृदा सूखकर भुर-भूरी हो जाती है तथा तेज वर्षा के कारण बहते हुए जल के साथ बड़े पैमाने पर कटाव करती हुई शीघ्र ही बह जाती है.
- वृक्षों को ग्रीष्म ऋतु में पर्याप्त जल न मिलने के कारण उन में नमी की मात्रा कम हो जाती है. जिसके फलस्वरूप प्रदेश में प्राकृतिक वनस्पति की मात्रा में भी काफी कमी आती है, जिसके कारण भूमि में कटाव की संभावना बढ़ जाती है.
- जल प्रवाह की गति भी ढाल की तीव्रता के साथ साथ बढ़ती है, जिससे जल की कठोरता कई गुना बढ़ जाती है. पर्वतीय होने के कारण उत्तरी भागों की भूमि ढालू है, अंतः नदियों का जल वर्षा ऋतु के समय तीव्र वेग से बहकर मृदा का कटाव करता है.