लैगिक जनन नर व मादा युग्मकों के बनने व उनके संयोग से होता है। लेकिन जनन में विभिन्नताओं के अधिक अवसर होने के निम्नलिखित कारण है-
पौधों की लंबाई/ऊंचाई | लंबा या बोना पौधा |
फली का आकार और आकृति | छोटा/बढ़ा, फूला हुआ या झुर्रीदार |
बीजों का रंग | पीला या हरा |
बीजों की आकृति | गोली या झुर्रीदार |
फूल की स्थिति | शीर्ष या Eएक्जिल मे |
फूल का रंग | सफेद, नीला या पीला। |
बिना पकी फली का रंग | हरा या पीला |
शुद्ध पौधे- किसी पौधे को शुद्ध तब कहा जाता है जब वह किसी लक्षण विशेष के लिए शुद्ध प्रजनन करता है।
उदाहरण के लिए-
संकर पौधा- यदि किसी पौधे में किसी लक्षण विशेष के लिए विभिन्न जीनी विकल्प है तो इसे हम संकर पौधा कहते हैं।
उदाहरण के लिए-
मटर के पौधे में यदि जीन प्रारूप Tt है, तो स्वप्रांगण में यह दोनों लंबे तथा बौने पौधे को जन्म देगा।
प्रभावी लक्षण | अप्रभावी लक्षण |
लंबापन | बौनापन |
पीले बीज | हरे बीज |
गोल बीज | झुर्रीदार बीज |
फूले हुए बीज | झुर्रीदार बीज |
हरी फलियां | पीली फलिया |
एक्जिलरी फूल | शीर्ष फूल |
लाल फूल | सफेद फूल |
कोशिका के DNA में प्रोटीन संश्लेषण के लिए सूचना-स्रोत के रूप में जीन कार्य करते हैं। यह जीन जीवो में उन हार्मोन के उत्पादन की मात्रा को नियंत्रित करते हैं जो जीवो में लक्षणों को अभिव्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिए पौधे की लंबाई या बोने पन का गुण इन हार्मोन की मात्रा व दक्षता पर निर्भर करते हैं। मादा हार्मोन पर्याप्त मात्रा में बनता है तो पौधा लंबा होगा, यदि कम मात्रा में बनता है तो पौधा बना रहेगा।
समयुग्मी | विषमयुग्मी |
विकल्प (जीन) समान होते हैं जैसे TT या tt. | विकल्प असमान होते हैं जैसे Tt |
यह केवल एक ही प्रकार के युग्मक में उत्पन्न करते हैं. | यह दो प्रकार के युग्मक उत्पन्न करते हैं, इसलिए उन्हें विषमयुग्मी कहते हैं। |
यह किसी लक्षण के लिए शुद्ध प्रजनन करते हैं। | यह किसी लक्षण के लिए शुद्ध प्रजनन नहीं करते। |
एक संकरण क्रॉस- एक क्रॉस जिसके अंतर्गत केवल एक ही लक्षण कि वशानुगति/अनुवांशिकता का अध्ययन किया जाता है, एक सकरण क्रॉस कहलाती है।
उदाहरण- मटर के पौधे में लंबाई/ऊंचाई के लक्षण की अनुवांशिकता के लिए एक लंबे व एक बौने पौधे के बीच संकरण क्रिया करावाना।
द्विसंकरण क्रोस- एक क्रॉस जिसमें किन्ही दो लक्षणों की अनुवांशिकता का अध्ययन एक साथ किया जाए।
उदाहरण- मटर के पौधे के बीजों के रंग व आकृति की अनुवांशिकता का अध्ययन करना- एक मटर के पौधे जिसमें पीले व गोल बीज बनते हैं, के साथ दूसरे मटर के पौधे जिसमें हरे व झुर्रीदार बीज बनते हैं, का संकरण करवाना।
लिंग गुणसूत्र | अलिंग गुणसूत्र |
गुणसूत्र जो लिंग निर्धारण से संबंधित है, लिंग गुणसूत्र कहलाते हैं। | गुणसूत्र दो लिंग निर्धारण से संबंध नहीं रखते, उन्हें अलिंग गुणसूत्र कहते हैं। |
मनुष्य में केवल दो लिंग गुणसूत्र होते हैं। | मनुष्य में 44 अलिंग गुणसूत्र होते हैं। |
मानव नर में XY तथा मानव मादा में XX लिंग गुणसूत्र होते हैं। | इन गुणसूत्रों को 1 से 22 तक की संख्या दी गई है। |
इकाई कारक का नियम- प्रत्येक लक्षण को निर्धारित करने वाले दो कारक होते हैं।
प्रभावित का नियम- परिस्थितियों में 2 में से केवल एक कारक ही स्वयं को प्रकट/प्रदर्शित करता है। जोक आरक्षण को प्रदर्शित करता है, उसे प्रभावी कारक तथा दूसरे को अप्रभावी कर कहते हैं।
पृथक्करण का नियम- इस नियम के अनुसार युग्मक बनते समय दोनों कारक एक से दूसरे पृथक/अलग हो जाते हैं तथा अलग-अलग युग्मक में प्रवेश करते हैं। इसका अर्थ यह है कि युग्मक किसी भी लक्षण के लिए शुद्ध होते हैं।
स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम- इस नियम के अनुसार विभिन्न लक्षणों के कारक एक दूसरे स्वतंत्र रूप से वंशानुगत होते हैं ।
मेंडल के अनुसार कुछ निश्चित है, भौतिकी इकाइयां होती है। जो लक्षणों का निर्धारण करती है। मंडल ने इन विशिष्ट इकाइयों को कारक नाम दिया है। उसके अनुसार प्रत्येक लक्षण निर्धारण करने वाले दो कारक होते हैं।
मेंडल ने जिन कारकों की धारणा प्रस्तुत की थी आज उन्हें जीन कहा जाता है। जीन समजात गुणसूत्रो में जोड़ों के रूप में होते हैं।
जीन, गुणसूत्र तथा (मेंडल के) कारक जोड़े के रूप में विद्यमान रहते हैं।
उपार्जित लक्षण | अनुवांशिक लक्षण |
वे लक्षण जो कोई जीव अपने जीवन काल (जन्म बाद) के दौरान ग्रहण करता है, उपार्जित लक्षण कहलाते हैं। | वे लक्षण जो कोई जीव अपने माता-पिता से ग्रहण करता है, उन्हें अनुवांशिक लक्षण कहते हैं। |
इनका कोई अनुवांशिक आधार हो भी सकता है और नहीं भी। | इनका एक निश्चित अनुवांशिक आधार होता है। |
यह अगली पीढ़ी में स्थानांतरित नहीं होते हैं। | यह अगली पीढ़ी में स्थानांतरित होते हैं। |
ये पर्यावरण द्वारा प्रभावित होते हैं। | यह पर्यावरण द्वारा प्रभावित हो भी सकते हैं और नहीं भी। |
उपार्जित लक्षण जीवो के जीवनकाल के दौरान किए जाते हैं। अत: उपार्जित लक्षण केवल कायिक उतकों में हुए परिवर्तन के फलस्वरूप अर्जित होते हैं और यही कारण है कि यह परिवर्तन लैंगिक कोशिकाओं के DNA में प्रवेश न करने के कारण वंशानुगत नहीं होते और यह जीव विकास के क्रम में भी नहीं आते।
उदाहरण- पुंछ वाले चूहों की संतान पूछ वाली ही होती है। यदि इन चूहों की पूंछ लगातार कई पीढ़ियों तक काटते रहे तो इनकी संतति कदापि पूछविहीन वाली नहीं होगी क्योंकि पूंछ कटने पर जनन कोशिकाओं के जीन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
प्राकृतिक वरण के विषय में डार्विन के विचार उसके विभिन्न द्वीपों के संबंध में अवलोकन पर आधारित है।
कायिक विभिन्नताएं | जनन विभिन्नताएँ |
विभिन्नताएं जो शरीर की कई की कोशिकाओं में उत्पन्न होती है, उन्हें कायिक विभिन्नताएं कहते हैं। | विभिन्नताएं जो जनन कोशिकाओं में उत्पन्न होती है, जनन विभिन्नताएं कहलाती है। |
यह अधिकतर पर्यावरणीय प्रभाव के कारण से होती है। | यह जीनों/DNAमें कुछ परिवर्तनों के कारण से होती है। |
यह लैंगिक जनन में संतति में वंशानुगत नहीं होती है। | यह सन्तति में वंशानुगत होती है। |
अंगों का प्रयोग तथा अप्रयोग
अंग जिनका हम लगातार प्रयोग करते हैं, अधिक विकसित होते हैं (उन अंगों की अपेक्षा जिनका हम कम प्रयोग करते हैं)
पर्यावरणीय प्रभाव
औगस्त वायसमान, एक जर्मन जीव वैज्ञानिक ने लैमार्क के सिद्धांत का जोरदार खंडन किया।
कायिक विभिन्नताएं अगली पीढ़ी में स्थानांतरित नहीं होती, क्योंकि लैगिक जनन में कायिक कोशिकाओं की कोई भूमिका नहीं होती।
जनन विभिन्नताएं क्योंकि जनन कोशिकाओं को प्रभावित करती है, इसलिए भी अगली पीढ़ी में स्थानांतरित नहीं होती है।
इसका अर्थ है जनसंख्या के किसी भाग से कुछ विशेष है जीनों का लुप्त हो जाना।
कारण-
प्रभाव
जैव-विकास पर आधारित वर्गीकरण को जातिवृत्त वर्गीकरण कहते हैं। यह से ट्रेड/पैटर्न को ध्यान में रखते हुए किया जाता है। जैव विकास की प्रक्रिया को समझते हुए हमें पता चलता है कि किस प्रकार के जीव अन्य किस प्रकार के जीवो से विकसित हुए हैं। जीव जीन के पूर्वज निकट भविष्य में एक ही रहे हैं उन्हें इकट्ठा रखा जा सकता है क्योंकि उनके गुणों में उनेक गुणों समानताएं होती है। जीव जो जैव-विकास के विभिन्न पैटर्न प्रस्तुत करते हैं, उन्हें अलग ग्रुप में रखा जाता है क्योंकि उनके गुणों में बहुत अधिक विभिन्नताएं होती है।
किसी जीव की बाह्रा आकृति अथवा व्यवहार का विवरण अभिलक्षण कहलाता है। दूसरे शब्दों में विशेष स्वरुप अथवा विशेष प्रकार्य अभिलक्षण कहलाता है।
उदाहरण- हरे पौधे में प्रकाश संश्लेषण की अभिक्रिया, कोशिका में केंद्रक का होना, जीवाणु कोशिका में केंद्रक का न होना आदि अभिलक्षण के उदाहरण है।
समजात अंग | समवर्ती अंग |
ये वे अंग है जीन की उत्पत्ति समान होती है। | यह वे अंग है जीन की उत्पत्ति भिन्न होती है। |
इनकी मूल सरचना एक दूसरे के समान होती है। | इनकी मूल सरचना भिन्न होती है |
उदाहरण– मनुष्य की बाजू तथा चिपकली के अग्रपाद | उदाहरण– किडजी अपंगता पक्षियों के पंख |
पक्षियों के पंख है तथा मेंढक के अगर पाद। | चमगादड़ के पंख तथा पक्षी के पंख है। |
जीवाशम का बनना- जब जो मरते हैं उनके शरीर का अपघटन हो जाता है और वह समाप्त हो जाते हैं। लेकिन उनके शरीर के कुछ भाग पूर्ण रूप से अपघटित नहीं होते तथा संरक्षित हो जाते हैं। सजीवों के यह संरक्षित भाग जीवाशम कहलाते हैं।
उदाहरण- यदि कोई कीट गर्म कीचड़ में पकड़ा जाता है तो यह शीघ्रता से अपघटित नहीं होता। जब मिट्टी (कीचड़) सा कठोर हो जाता है तो उसके शरीर के अंगों की छाप उस पर बन जाती है। इस प्रकार की छाप को जीवाशम कहते हैं।
कुछ पौधों और जंतुओं में ऐसे अंग पाए जाते हैं जो कार्यविहीन और अवशेषों के रूप में पाए जाते हैं, इन्हें अवशेषी अंग कहते हैं। अवशेषी अंगों का वर्तमान मे जीवो के लिए कोई विशेष योगदान नहीं होता, बल्कि के अतिरिक्त अंगों के समान होते हैं, परंतु यही अंग किसी समय जीवो में क्रियाशील होते थे, जैसे मनुष्य में कृमिरूप परिशेसिक, मनुष्य का निषेचक पटल, अनूत्रिक, बाह्राकान की पेशियां, पूछ केशुरूक आदि।
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