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उत्तर प्रदेश के प्राचीन काल का इतिहास
पाषाण काल
जिस काल का कोई लिखित विवरण प्राप्त नहीं होता है प्रोगतिहासिक काल, या पाषाण काल कहलाता है, और जब मानव लेखन कला से अपरिचित थे तथा पाषाण निर्मित उपकरणों पर निर्भर था. पाषणकाल को तीन ऐतिहासिक कालंतरों में विभक्त किया जाता है-
- पुरापाषाण काल
- मध्य पाषाण काल
- नवपाषाण काल
उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, सोनभद्र, बुंदेलखंड तथा प्रतापगढ़ (सराय नाहर क्षेत्र) जिलों से पाषाण कालीन औजार प्राप्त हुए हैं.
पुरापाषाण काल
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के. जी. आर. शर्मा के निर्देशन में जब राज्य की बेलन घाटी (इलाहाबाद से मिर्जापुर) में खोजी गई, तब सोहन संस्कृति के उपकरण प्राप्त हुए. दौंस नदी की एक सहायक नदी बेलन नदी है, जो मिर्जापुर की मध्यवर्ती पठारी भू-भाग में प्रभावित होती है. पाषाण काल के सभी युगों से संबंधित उपकरण व पशुओं के जीवाश्म इस नदी घाटी के विभिन्न पूरास्थलो से मिले हैं. यहां पर 44 पुरास्थल मिले हैं जो कि निम्न पुरापाषाण काल से संबंधित है.
इस घाटी के प्रथम जमाव से निम्न पुरापाषाण काल के उपकरण प्राप्त हुए हैं. इनमें सभी प्रकार के हैंड एक्स, क्लीवर, स्क्रैपर, टेबल पर बने हुए चापर उपकरण आदि सम्मिलित है. यहां के कुछ उपकरणों में मुठीया लगाने का स्थान भी मिला है तथा यह उपकरण क्वार्टरजाईट पत्थरों से निर्मित है.
यहां से मध्य तथा उच्च पुरापाषाण काल के उपकरण भी मिले हैं. मध्यकाल के उपकरण फ्लेक पर निर्मित है, जिनमें बेधक, ब्लेड आदि प्रमुख है. इन उपकरणों का निर्माण महीन करने वाले अच्छे क्वार्टजाईट पत्थरों से किया जाता है. ब्लेड, बेधक, बयूरिन स्क्रेपर अभी यहां के उच्च पुरापाषाण काल इन उपकरणों में प्रमुख है. इनमें ब्लेड की बनावट बेलनाकार है. लोहदा नाला क्षेत्र से इस काल की स्थिति निर्मित मात्रिदेवी की एक प्रतिमा भी मिली है, जो इस समय कौशांबी संग्रहालय में सुरक्षित रखी हुई है. ईसा पूर्व 30,000 से 10,000 के बीच यहां के उच्च पुरापाषाण कालीन संस्कृति का समय निर्धारित किया गया है.
चकिया (वाराणसी), सिंगरौली बेसिन (मिर्जापुर), वह बेलन घाटी (इलाहाबाद), से मध्य पुरापाषाण काल की जानकारी भी प्राप्त हुई है. जहां से बहुसंख्यक कोर फ्लैक, ब्लेड.क्लीवर व हेंडएक्स प्राप्त हुए हैं.
मध्य पाषाण काल
मध्य पाषाण काल इन उपकरणों हेतु राज्य का वैद्य तथा ऊपरी एवं मध्य गंगा घाटी वाला क्षेत्र अत्यंत समृद्ध है. वाराणसी जिले के चकिया तहसील, मिर्जापुर जिला, इलाहाबाद की मेजा, करछना तथा बारा तहसीलों के साथ-साथ बुंदेलखंड क्षेत्र के विंनध्य क्षेत्र के अंतर्गत शामिल किया जाता है.
सन 1962 से 1980 के मध्य इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग की ओर से मिर्जापुर जिले में स्थित मोरहना पहाड़, बगहीखोर, यात्रा इलाहाबाद जिले को मेजा तहसील में स्थित चोपानीमांडो नामक मध्य पाषाणकालीन पुरातत्व स्थलों की खुदाई करवाई गई. इन जगहों से लघु एवं सूक्ष्म उपकरणों के साथ-साथ नर कंकाल भी प्राप्त हुए हैं.
लेखहीया से 17 नर कंकाल प्राप्त हुए हैं, जिनमें से अधिकांश के सिर पश्चिम दिशा में है. मिर्जापुर जिले से प्राप्त लघु उपकरणों में एक विकास क्रम देखने को मिला है तथा यहां से प्राप्त उपकरण क्रमश: लघुतर होते गए हैं, इलाहाबाद का चोपानीमांडो पुरास्थल 15,000 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत भू-भाग है. यहां से अधिकांश पाषाण उपकरण, पेबुल आदि मिले हैं. चर्ट, चाहीन्सडनी आदि पत्थरों द्वारा इनका निर्माण हुआ है. इन उपकरणों के अतिरिक्त यहां की खुदाई से झोपड़ियों के होने के प्रमाण मिले हैं. यहां से हाथ के बने हुए मिट्टी के कुछ बर्तन भी प्राप्त हुए हैं. 17000- 7000 ई. पु. के मध्य चोपनीमांडो के उपकरणों का काल निर्धारित किया गया है.
इसके अतिरिक्त जमुनीपुर (फूलपुर तहसील), कुंडा बिछिया, भीखपुर तथा महरुडीह और कोरांद (तहसील) आदि इलाहाबाद जिले के अन्य पुरातत्व स्थल है, जहां से मध्य पाषाण काल के उपकरणों की जानकारी भी प्राप्त हुई है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास के भूतपूर्व अध्यक्ष जी. आर शर्मा तथा उनके सहयोगियों आर के शर्मा एवं बी. डी. मिश्र द्वारा प्रतापगढ़ जिले में सरायनाहर राय, महदहा और दमदमा नमक मध्य पाषाण कालीन पुरातत्व स्थलों का उत्खनन करवाया गया, जिनमें सराय नाहर राय से प्राप्त लघु भाषण उपकरणों में स्क्रेपर, चंद्रिक, वैद्यक, समबाहु तथा विषम बहु त्रिभुज आदि है. इनके निर्माण में चर्ट, एजेट, जेसपर आदि पत्रों का प्रयोग किया गया है.
यहां पर कुछ अस्थि एवं सींग निर्मित उपकरणों के साथ साथ 15 शवधानों तथा 8 गरम चूल्हे भी मिले हैं जिसमें मृतक संस्कार विधि की स्थिति स्पष्ट होती है. चूल्हों से पशुओं की अंधजली हड्डियां भी मिली है, जो यह स्म्पष्ट करती है कि इनका उपयोग उस समय मांस भूनने के लिए किया जाता था. सन 1978-80 के बीच महदाह की खुदाई की गई. यहां से भी लघु उपकरण के अतिरिक्त, आवास, श्वाधान, तथा गर्त चूल्हे होने की पुष्टि हुई है तथा यहां से सिल-लोढे व हथोड़े के टुकड़े भी मिले हैं. जिससे स्पष्ट होता है कि लोग पीसकर खाने की कला से भी परिचित थे.
सन 1982 से 1987 के बीच दमदमा (पट्टी तहसील) का उत्खनन कार्य किया गया. यहां से बहुत से लघु उपकरण ब्लेड, फलक, बयूरीन, चान्द्रीक आदि प्राप्त हुए हैं. जिनका निर्माण क्वार्टजाइट, चर्ट, एजेट, कार्नेलियन आदि के द्वारा किया गया है. अस्थि एवं सिंग के उपकरण व आभूषण के अतिरिक्त 41 मानव शवाधान तथा कुछ गर्त चूल्हे भी मिले हैं. यहां से भेड़, बकरी, गाय, बैल, भैंस, हाथी, गैंडा, बारहसिंगा, वस्वर आदि की हड्डियां भी प्राप्त हुई है तथा कुछ पक्षियों, मछली और कछुआ आदि की हड्डियां भी प्राप्त हुई है. जिससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय मानव मांसाहारी था. दमदमा के अवशेषों का काल 1000 से 4000 ई. पु. बताया जाता है.
इस काल के मानव का जीवन पूर्व पाषाण काल के मानव जीवन से कुछ भिन्न हो चला था, क्योंकि इस काल में मानव ने शिकार के अतिरिक्त थोड़ी बहुत कृषि करना भी सीख लिया था तथा इसके साथ ही साथ मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का भी काफी ज्ञान प्राप्त हो गया था. इस समय के लोगों को अग्नि का ज्ञान भी था, जबकि पूर्व पाषाण काल में मानव को न तो अग्नि का ज्ञान था और ना ही बर्तन बनाने की कला से परिचित था.
नवपाषाण काल
विंनध्य क्षेत्र के इलाहाबाद जिले में बेलन नदी के तट पर स्थित है कोलाडीहवा, महगडा तथा पंचम राज्य के प्रमुख नवपाषाण कालीन पूरास्थल है. यहां उत्खनन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग द्वारा करवाया गया है. कोरडीहवा से नवपाषाण कॉल के साथ सात अमर व लोहा कालीन संस्कृति के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं, जबकि महगड़ा और पंचोंह से केवल नवपाषाण कालीन अवशेष ही प्राप्त हुए हैं. यहां से गोलाकार कुल्हाड़ी , हथोड़े, छेनी, बसूली अभी भी प्राप्त हुए हैं.
यहां पर स्तम्भ गाड़ने के गड्ढे वह हाथ से बनाए हुए विन आकार प्रकार के बर्तन भी प्राप्त हुए हैं. यहां पर पशुओं के पाले जाने व उनका शिकार किए जाने का प्रमाण भी मिलता है. कोरडीहवा की खुदाई से धान की खेती किए जाने का भी प्रमाण मिला है, जिसकी अवधि का प्रमाण ईसा पूर्व 7000-6000 के बीच है. धान के दाने तथा उचित एवं पुआल यहां से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों के ठिकानों पर चिपके हुए मिले हैं.
इस काल में मानव कृषि व पशुपालन से पूर्णतया परिचित हो चुका था. वह खाद्य पदार्थों के उपभोक्ता के साथ-साथ उत्पादक भी बन चुका था. तथा घुमक्कड़ व खानाबदोश जीवन का परित्याग कर एक निश्चित स्थान पर घर बनाकर रहना सीख चुका था. इस काल का मानव जानवरों की खालों से बने वस्त्र तथा चित्रकला के ज्ञान से परिचित हो चुका था.
सैन्धव सभ्यता
सैन्धव सभ्यता का अस्तित्व लगभग 2350 ई. पु. से 1750 ई. पु. मध्य था. यह एक नगरीय सभ्यता थी. अब तक पाकिस्तान और भारत के पंजाब, बलूचिस्तान, सिंध, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जम्मू कश्मीर के भागों से इस सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं. उत्तर में जम्मू से लेकर दक्षिण में नर्मदा के मुहाने तक व पश्चिम में मकराना समुद्र तट से लेकर पूर्व में उत्तर प्रदेश के मेरठ तक इस सभ्यता का विस्तार हुआ था. त्रिभुजाकार विस्तार वाली यह सभ्यता लगभग बालक 12,99,600 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई है.
उत्तर प्रदेश में आलमगीरपुर (मेरठ), बड़ागांव एवं हुलासा (सहारनपुर) आदि स्थलों से हड़प्पा सभ्यता के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं. सर्वप्रथम भारत सेवक समाज द्वारा हिंडन नदी के तट पर अवस्थित है. आलमगीरपुर की खोज की गई और इसका उत्खनन कार्य वाई. डी. शर्मा के निर्देशन में किया गया. नई खोज के अनुसार बुलंदशहर के भटपुरा एवं मानपुरा तथा मुजफ्फरपुर आके मांडी गांव तथा केराना क्षेत्र से भी इस सभ्यता के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं.
ताम्र पाषाण काल
मनुष्य का सबसे पहली बार ताम्र धातु से ही परिचय हुआ था, जो इस युग की देन थी. इस काल में लोगों को कास्य या ताम्र धातु की जानकारी थी जिस कारण सिंधु घाटी की सभ्यता कास्य या ताम्र युगीन सभ्यता कहलाती है. जिसकी पुष्टि कुछ समय के पूरा स्थलों की खुदाई से प्राप्त उपकरणों द्वारा होती है. ताम्र पाषाण कालीन संस्कृति के सर्वाधिक स्थल महाराष्ट्र राज्य से प्राप्त हुए हैं. खेराड़ीह और नौहान इस राज्य के उत्खनन स्थलों में प्रमुख है जहां के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं. इलाहाबाद के समीप झूंसी हवेलिया ग्राम की खुदाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग द्वारा करवाई जा रही है.
प्रों. वि.डी. मिस्र के अनुसार यहां से इस काल के दो चरण परिलक्षित हुए हैं. पहले चरण में लोगों को लोहे की जानकारी नहीं थी, जबकि दूसरा चरण लोहे के ज्ञान को स्पष्ट करता है यहां से मिले साक्ष्यों के आधार पर इस संस्कृति का काल 1500-700 ई. पु. बताया गया है. गेरूवर्णी मृदाभांड में अनेक ताम्रनिंधिया ऊपरी गंगा घाटी और गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र के विभिन्न स्थलों से प्राप्त हुई है. इसका काल सामान्यत: 2000-1500 ई. पु. स्वीकार किया गया है.
लोहा युगीन संस्कृति
सैन्धव सभ्यता के पतन के पश्चात मानव को लोहे की जानकारी हो चुकी थी. उत्तर प्रदेश के आलमगीरपुर में चित्रित धूसर भांड के प्रमाण मिले हैं, जिनका संबंध लोहे से माना गया है. प्रदेश में लौहयुगीन संस्कृति के साक्ष्य अहिछत्र, हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, अल्लाह, मथुरा, श्रावस्ती, आदि स्थानों से मिले हैं. इनमें हस्तिनापुर में अंतरजीखेड़ा की खुदाई से लौह धातुमल तथा भटिया प्राप्त हुई है, जिन से यह स्पष्ट होता है कि यहां के निवासी लोहे को गला कर इनसे विभिन्न प्रकार के उपकरणों को बनाने की कला में निपुण थे.
ऋग्वेद के समय से संश्लिष्ट ऐतिहासिक वृतांत मिलता है. आर्यों ने सबसे पहले भारत में सप्तसिन्धु या 7 नदियों द्वारा सिंचीत प्रदेश (आधुनिक पंजाब) में बस्तियां बनाई. यह नदियां इंडस (सिंधु), वितस्ता (झेलम), बिपाशा (व्यास) ,सतलुज और सरस्वती (जो अब राजस्थान के रेगिस्तान में विलुप्त हो चुकी है) पूरु, तुवर्शु, यदु अनु और दुर्हा. कुछ प्रमुख घरानों के नाम थे तथा यह पांच घराने प्रज्जन कहलाते थे. इनके अतिरिक्त एक और प्रमुख वर्ग था, जो भरत कहलाता था.
धीरे-धीरे आर्यों ने पूर्वी दिशा में अपने क्षेत्र का विस्तार किया. शतपथ ब्राह्मण में, कौशल (अवध) और विधेह (उतरी बिहार) को ब्राह्मणों एवं सदस्यों ने जिस प्रकार जीता उसका रोचन वर्णन है. सीमाओं के विस्तार के परिणाम स्वरुप नए राज्य बने, नए लोग सामने आए और नए केंद्रों का प्रादुर्भाव हुआ. सप्त सिंधु का महत्व धीरे-धीरे कम होता गया और शक्ति तथा गंगा के बीच का मैदान संस्कृति का केंद्र बना जहां कुरु, पांचाल, काशी एवं कौशल आदि राज्य थे.
यह पूरा क्षेत्र, जो पूर्व में प्रयाग तक फैला हुआ था, मध्य प्रदेश के नाम से अभिहित हुआ. वर्तमान उत्तर प्रदेश राज्य की सीमाएं भी लगभग यही है. यह राज्य हिंदू कथा साहित्य में पवित्र माना जाता है, क्योंकि रामायण और महाभारत में जिन महान व्यक्तियों और देवताओं का वर्णन है, वह यहीं रहते थे. यहां के निवासी सर्वाधिक संस्कृत आर्य माने जाते थे तथा उनकी बोलचाल और उनका व्यवहार आदर्श माना जाता था. वे लोग धार्मिक रीति-रिवाजों के पुराने जानकार थे और बिना किसी त्रुटि के बली, पूजा आदि कर सकते थे.
इन राज्यों के कुछ शासक विशेषत: पांचाल के राजा परवहण जाबालि. अपने सुकर्मों के कारण अमर हो गए और बाद का इतिहास हिंदुओं की धार्मिक पुस्तकों और पुराणों के आख्यानों एक लंबे समय तक के लिए मिश्रित हो गया, जिससे की ऐतिहासिक वृत्तांत की कड़ी टूट गई.
महाजनपद काल
बोध ग्रंथ अगुंतरनिकाय के अनुसार संपूर्ण उत्तरी भारत छठी शताब्दी ई.पु. में 16 बड़े राज्यों में विभाजित था, जो महाजनपद कहलाते थे. महाजनपद निम्नवत थे-
महाजनपद | विस्तार क्षेत्र | राजधानी |
काशी | वाराणसी | वाराणसी |
कुरु | मेरठ, दिल्ली, थानेश्वर | इंद्रप्रस्थ |
वत्स | इलाहाबाद के आसपास | कौशांबी |
मगध | दक्षिणी बिहार | गिरीब्रिज |
मत्स्य | जयपुर | विराट |
पांचाल | बरेली, बदायूं, फर्रुखाबाद | अहिच्छत्र (बरेली के पास रामनगर) |
मल | जिला कुशीनगर | कुशीनगर, और पावा |
सुरसेन | मथुरा के इर्द-गिर्द | मथुरा |
चेदि | बुंदेलखंड | शुक्तिमती |
कौशल | अवध | साकेत (अयोध्या) और श्रावस्ती (गोंडा) जिले में सहेत-महेत |
अवंती | मालवा | उज्जैन |
अंबुज | गंधार से लेकर पश्चिम में पाकिस्तान तक | राजपुर (पुंछ के लक्षण अथवा दक्षिण पूर्व) |
अंग | भागलपुर | चंपा |
वजी | जिला दरभंगा मुजफ्फरपुर | मिथिला और वैशाली (मुजफ्फरपुर) |
गांधार | पेशावर में रावलपिंडी पाकिस्तान | तक्षशिला (रावलपिंडी के पास) |
उपरोक्त 16 महाजनपदों में से 8 (कुरु, पंचाल, शूरसेन, वत्स, कौशल, मल, काशी, तथा चेदी) वर्तमान उत्तर प्रदेश में ही स्थित है. इनमें से काशी कौशल और वत्स अधिक विख्यात है.
मगध साम्राज्य का उत्कर्ष
सभी महाजनपद अनवरत रूप से आपस में लड़ते थे. कौशल ने काशी पर अधिकार कर लिया और अवन्ति ने वत्स का राज्य छीन लिया. कौशल और अवन्ति एक-एक करके मगध के अधीनस्थ हो गए और मगध पूरे क्षेत्र में सर्वाधिक शक्तिशाली हो गया. मगध में क्रमश: हर्य्रंक, शिशुनाग और नंद वंश का राज्य रहा.
संभवत: बंगाल को छोड़कर नंद वंश का सम्राज्य पंजाब और पूरे उत्तर भारत में फैला हुआ था. सिकंदर ने ईसा से 326 वर्षों के शासनकाल में भारत पर आक्रमण किया था. इतिहास के अनेक विद्वानों ने यह मत प्रकट किया है कि मगध के शक्तिशाली राज्य की सेनाओं से मुकाबला करने का सिकंदर की सेना द्वारा व्यास नदी के आगे बढ़ने के मूल में था. इस प्रकार सिकंदर को बाध्य होकर वापस लौटना पड़ा.
मौर्य काल
सिकंदर की वापसी के साथ-साथ भारत में एक महान क्रांति हुई, जिसके फलस्वरूप शासकों को (ईसा से 323 वर्ष पूर्व) शासन की बागडोर चंद्रगुप्त मौर्य को देनी पड़ी. चंद्रगुप्त मौर्य पीपलीवन क्षत्रिय कुल मौर्य का वसंज था. चंद्रगुप्त मौर्य उसके पुत्र बिंदुसार और पोते अशोक के शासनकाल में वर्तमान उत्तर प्रदेश का पूरा क्षेत्र सुख और शांति का अनुभव करता रहा. स्वतंत्र भारत की सरकार ने अशोक द्वारा सारनाथ में निर्मित शतम् पर सिंहो की जो आकृति बनी हुई. उसे ही अपना राजकीय चिन्ह बनाया. उत्तर प्रदेश के सारनाथ, इलाहाबाद, मेरठ, कौशांबी, संकिसा, कालसी, बस्ती और मिर्जापुर में अशोक द्वारा निर्मित और शिलालेख पाए गए. चीनी यात्री फाह्यान और हेनसाग ने अन्य अनेक शिलालेख आदि देखे थे. अशोक ने ही सारनाथ के धर्मराज के स्तूप का निर्माण करवाया था.
मगध राज्य का पतन ईसा पूर्व 232 वर्ष में अशोक की मृत्यु होते ही प्रारंभ हो गया. उसके पोते दशरथ को और सम्प्रति ने सारा राज्य आपस में बांट लिया. नर्मदा के दक्षिण का पूरा क्षेत्र शिखर ही स्वतंत्र हो गया और ईसा पूर्व 210 सन में पंजाब पर अन्य लोगों का शासन हो गया. इस वंश का अंतिम शासक बृहद्र्थ था, जिसकी हत्या उसके प्रधान सेनापति पुष्यमित्र शुंग द्वारा 185 ई. पु. में करा दी गई.
उत्तर प्रदेश में अशोक के प्रमुख अभिलेख
- टोपरा (सहारनपुर) का स्तंभ लेख
- कौशांबी का स्त्म्भलेख
- मेरठ का स्तंभलेख
- सारनाथ का लघु शिलालेख
- अहरोर (मिर्जापुर) का लघु शिलालेख
शुंग वंश और इंडो-ग्रीक आक्रमण
पुष्यमित्र शुंग धारा 185 ई. पु. में शुंग वंश की स्थापना की गई. उसने विदिशा को अपनी राजधानी बनाया. अयोध्या से प्राप्त शिलालेख के अनुसार पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था. यह काल उत्तर प्रदेश में संस्कृत भाषा तथा ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान का काल था.
पतंजलि के महाभाष्य में एक उल्लेख साकेत (अयोध्या) का यवनों (यूनानीयों) और आगे ले जाने का आता है. इससे लगभग 182 वर्ष पूर्व मिनान्दर और उसके भाई ने एक भारी आक्रमण किया. आक्रमण सेनाओं ने सुदूर दक्षिण-पश्चिमी में कनियाबाढ़, सगल, (सियालकोट, पंजाब में) और मथुरा पर अधिकार कर लिया. इसके बाद अकरम कोने साकेत (अयोध्या) को घेर लिया तथा गंगा की घाटी में बहुत दूर तक बढ़ गए.
पुष्यमित्र के पौत्र वसुमित्र ने गंगा के किनारे इस आक्रमण का मुकाबला किया तथा यवनों को हरा दिया. भिवानी पीछे हट गए और उन्होंनी और उन्होंने सगल (सियालकोट) में अपनी राजधानी बनाई. मथुरा बहुत समय तक मिनान्दर साम्राज्य का प्रमुख नगर रहा. इससे लगभग 145 वर्ष पूर्व तथा मिनान्दर ने राज्य किया. बाद में पंजाब में अनेक छोटी-छोटी इंडो ग्रीक एवं यूनानी रियासतें ईसा के प्रथम ई. तक बनी रही.
इसी बीच मगध मे शुंग वंश के स्थान पर कण्व वंश की स्थापना हुई. कहा जाता है कि विभूति तृप्ता शुंग वंश का अंतिम राजा था. उसकी हत्या उसके मंत्री वासुदेव द्वारा कर दी गई. इससे 73 वर्ष पूर्व वासुदेव ने कण्व वंश की स्थापना की. यह राजवंश 45 वर्ष तक चला और इससे 28 वर्ष पूर्व सिमुक ने, जो सातवाहन या आंध्र वंश के संस्थापक थे, इसको समाप्त कर दिया.
यह कहना कठिन है कि शुंग वंश का सम्राज्य कहां तक फैला था, किंतु खुदाई में पूरे उत्तर प्रदेश में ऐसे सिक्के मिले हैं जिन पर मित्र शब्द से प्राप्त होने वाले राजाओं के नाम खुदे हैं अंत: यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पूरा उत्तर प्रदेश इससे एक शताब्दी पूर्व और बाद तक उन लोगों के अधिकार क्षेत्र में था, जो सोमवार से संबंधित है.
शक वंश
शक मूल रूप से मध्य एशिया की एक बर्बर तथा खानाबदोश जनजाति थी, जिन्होंने भारत में यवनों के आधिपत्य को समाप्त कर एक वृहित भू-भाग पर अधिकार कर लिया. इन लोगों ने ईसा के 60 वर्ष पूर्व तक यह मथुरा में अपने क्षत्रप स्थापित कर लिए थे. मायुस प्रथम शक राजा हुआ, जिसकी ईसा पूर्व लगभग 58वें वर्ष में मृत्यु हुई थी.
शकों के बाद पार्थियन लोगों ने उत्तरी भारत पर आक्रमण किया और उन लोगों ने शकों को ईसा के बाद प्रथम शताब्दी आरंभ होने तक प्रासत करना शुरू कर दिया था. फिर कुछ और लोगों ने भी इससे लगभग 40 वर्ष पूर्व आक्रमण किए यह जाति भी मध्य एशिया की 5 ऊंची जातियों में से एक थी.
कुषाण वंश
कुजुल कडफिसेस या कडफिसेस प्रथम ने कुषाण राजवंश की स्थापना की थी. इसका पुत्र उत्तराधिकारी विम कडफिसेस या कडफीसेस द्वितीय गंगा की घाटी तक घुस आया था. निसंदेह सभी को सांग राजाओं में श्रेष्ठ कनिषक प्रथम इसका उत्तराधिकारी था.
कनिष्क का शासनकाल और कुषाण राजाओं की वंश परंपरा अनिश्चित है. कुछ विद्वानों का मत है कि ईसा के 78 वर्ष बाद कनिष्क का राज्याभिषेक हुआ और कुछ के अनुसार संभवत ईसा बाद 120 ई. और 144 ई. वर्ष के बीच कनिष्क प्रथम ने राज्य किया था. पुरुषपुर या पेशावर उसकी राजधानी थी और गांधार, कश्मीर तथा सिंह एवं गंगा नदी की घाटियों का क्षेत्र उसके राज्य के अंतर्गत था. कनिष्क के पुत्र ने हुविष्क ने अपने पिता के बाद राजकाज संभाला और उसके बाद उसका पुत्र वासुदेव गद्दी पर बैठा.
वासुदेव के सयम कुषाण साम्राज्य बहुत छोटा हो गया था तथा उसके बाद छिन्न भिन्न होकर अनेक छोटे छोटे सीमांत राज्यों में बंट गया. कुषाणों का प्रभुत्व ईसा के बाद तीसरी सदी आते आते मध्य प्रदेश से समाप्त हो चुका था तथा बहुत-से दूसरे छोटे-छोटे राज्य उसके स्थान पर स्थापित हो चुके थे. यद्यपि इस समय किन राज्यों में कुछ के नाम अभी भी समुद्रगुप्त (ईसा बाद चौथी सदी) दौरा इलाहाबाद के स्तम्भ पर खुदवाये जाने के कारण ज्ञात है तथापि तीसरी सदी में उत्तर भारत पर राज्य करने वाला यह सब से शस्कत राजवंश था इस वंश के शासकों ने मुख्यालय मथुरा और कांतिपूरी (मिर्जापुर में कांति) रहे. इसी अवधि में नागों की ही एक जाति भारशिव भी प्रभावशाली बनी. इन लोगों की शक्ति तथा अनेक सम्राज्य का आभास इसी से हो जाता है कि उन्होंने 10 अश्वमेध यज्ञ किए और गंगा के पवित्र जल से इनके राज्य अभिषेक हुए.
भारत में राजनीतिक एकता ईसा बाद चौथी सदी में गुप्त वंश का प्रादुर्भाव होने पर फिर स्थापित हुई लगभग सौ वर्षों के उनके शासनकाल में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और उनके शासनतगर्त के अन्य क्षेत्रों के साथ शांति और समृद्धि का भागीदारी बना.
गुप्त काल
गुप्त साम्राज्य का उदय कुषाण साम्राज्य के विघटन के उपरांत हुआ तथा इसने लगभग 355 ई. से 455 ई. तक संपूर्ण उत्तर भारत को राजनीतिक एकता के सूत्र में बांधे रखा. आरंभिक गुप्त मुद्रा एवं अभिलेख उत्तर प्रदेश से ही प्राप्त हुए हैं अंत है यह परिलक्षित होता है कि गुप्त शासकों के लिए देश का अधिक महत्व था.
उत्तर प्रदेश से ही सबसे अधिक गुप्तकालीन पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं. प्रमुख रूप से मध्य गंगा में दान प्रयाग, साकेत पर ही गुप्त शासकों का अधिपत्य था. समुद्रगुप्त के पराक्रम एवं विजय अभियान का वर्णन प्रदेश से प्राप्त इलाहाबाद अभिलेख से मिलता है. गुप्तकाल में सारनाथ एवं मथुरा में उत्कृष्ट बुद्ध प्रतिमाओं का निर्माण हुआ. उत्तर प्रदेश में कानपुर के भीतर गांव, गाजीपुर के भीतरी तथा झांसी के देवगढ़ में निर्मित के मंदिर गुप्तकाल में वास्तुकला के सुंदर उदाहरण है.
गुप्तोत्तर काल
सत्ता एक बार फिर गुप्त सम्राज्य के प्रभाव के बाद ही विकेंद्रित हो गई. मध्य प्रदेश के विस्तृत भाग पर कुछ समय तक कन्नौज के मौखारियो का शासन रहा. मालवा के गुप्त राजाओं का कड़ा मुकाबला करना पड़ा. लगभग 606 ई. में इनका अंतिम राजा ग्रहवर्मन मालवा के राजा देव गुप्त द्वारा पराजित हुआ तथा मार डाला गया. गृहवर्मन के मंत्रियों ने शासन की बागडोर गृहवर्मन के साले हर्षवर्धन को सौंप दी. हर्षवर्धन थानेश्वर का राजा था.
हर्ष के राज्याभिषेक से थानेश्वर और कन्नौज के राजवंश आपस में मिल गए. कन्नौज उत्तर भारत का प्रमुख नगर बन गया तथा कई शताब्दियों तक उसका वही मान रहा जो उससे पहले पाटलिपुत्र का था. उसकी शान शौकत तथा समृद्धि के फल स्वरुप उसे महोदय श्री नाम मिला तथा हर्ष के बाद (647 ई. पु.) के हिंदू राजाओं को उसे अपने अधिकार में लेने का लक्ष्य रहा करता था. तत्कालीन चीनी यात्री हेनसांग ने कन्नौज की समृद्धि का वर्णन किया.
हर्ष के बाद उत्तर भारत में फिर उथल-पुथल मच गई. उपलब्ध सामग्री के आधार पर इस काल का कोई संश्लिष्ट इतिहास तैयार करना संभव नहीं है. केवल कुछ घटनाओं का उल्लेख किया जा सकता है.
उत्तर प्रदेश से प्राप्त गुप्तकालीन स्थापत्य कला के नमूने
देवगढ़ का दशावतार मंदिर- राज्य के ललितपुर (प्राचीन झांसी) जिले में देवगढ़ नामक स्थल से हुई है. इसमें गुप्त मंदिरों की विशेषताएं देखने को मिलती है. वर्तमान समय में इसका ऊपरी भाग नष्ट हो गया था. मंदिर का निर्माण कौन से और चोड़े चबूतरे पर किया गया है. रामायण और महाभारत के कई मनोहरी दृश्य देखने को मिलते हैं. यह मंदिर को काल के सिर का पहला उदाहरण है.
भीतर गांव का मंदिर- यह मंदिर राज्य के कानपुर जिले में स्थित है. इस मंदिर का ईंटो निर्माण किया गया है.. एक वर्गाकार चबूतरे पर बना है. यह मंदिर शिखर युक्त है, जिसका शिखर लगभग 70 फुट ऊंचा है.
उत्तर प्रदेश से प्राप्त गुप्त कालीन अभिलेख/शिलालेख/स्तम्भ लेख
मनकुंवर अभिलेख- मनकुवर राज्य के इलाहाबाद जिले में स्थित है. इस लेख में गुप्त संवत 129-448 ई. कि तिथि उत्कीर्ण है, जो बुद्ध प्रतिमा के निचले भाग में लिखी हुई है. इस मूर्ति की स्थापना बुद्ध मित्र नामक बौद्ध भिक्षु द्वारा करवाई गई थी.
गढ़वा के अभिलेख- यह राज्य के इलाहाबाद जिले के करछाना तहसील में स्थित है, जहां से कुमारगुप्त के दो अभिलेख प्राप्त हुए हैं. इस पर गुप्त संवत 98-417 ई. की तिथि उत्कीर्ण है.
कहौम स्तंभ लेख- यह राज्य के गोरखपुर जिले में कहौम नामक स्थान पर स्थित है. इसमें गुप्त संवत 141-460 ई. की तिथि अंकित है. इस अभिलेख से यह स्पष्ट है कि मद्र नामक एक व्यक्ति ने पांच देवताओं की प्रतिमाओं का निर्माण करवाया था.
बिलसद अभिलेख- अभिलेख राज्य के एटा जिले में स्थित है, यहां से कुमारगुप्त के अभिलेख प्राप्त हुआ है. इस गुप्त सम्वत 96-475 ई. की तिथि अंकित है तथा इसमें कुमारगुप्त प्रथम तक की गुप्त वंशावली का जिक्र है.
मथुरा का लेख- इसमें एक मूर्ति के अधोभाग में लेख उत्कीर्ण है, यहां से कुमार गुप्त के शासनकाल का प्रथम अभिलेख प्राप्त हुआ है. इस पर गुप्त संमवत 135-454 ई. की तिथि लिखी हुई है.
गढ़वा शिलालेख- यहां से स्कंदगुप्त के शासन का अंतिम अभिलेख प्राप्त हुआ है, जिस पर गुप्त संवत 148-467 ई. की तिथि अंकित है.
करमदंडा अभिलेख- यह राज्य के फैजाबाद जिले में स्थित है, जिस पर गुप्त संवत 117-436 ई. की तिथि अंकित है. यह शिव प्रतिमा के अधोभाग में उत्कीर्ण है. इस प्रतिमा की स्थापना कुमारगुप्त के मंत्री पृथ्वी सेन ने की थी.
भितरी स्तंभ लेख- यह राज्य के गाजीपुर जिले के शिवपुर तहसील के भीतरी नामक स्थान पर है. इसमें पुष्यमित्रों व हूणों के साथ गुप्त के युद्धों का उल्लेख है. इसमें स्कन्दगुप्त के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का बेहद रोमांचक चित्र प्रस्तुत किया गया है.