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झारखंड में मंदिर और जलप्रपात

झारखंड राज्य की राजधानी रांची समुद्रतल से 2140 फिट ( 676 मीटर) की ऊंचाई पर स्थित एक स्वास्थ्यप्रद स्थान है और बिहार की ग्रीष्मकालीन राजधानी थी। रांची पटना से 338 किलोमीटर दूर दक्षिण में स्थित है और जलप्रपात के शहर के नाम से जाना जाता है। क्योंकि अविभाजित रांची जिले में अनेक जलप्रपात थे।

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1 झारखंड में मंदिर और जलप्रपात
5 मां भद्रकाली मंदिर परिसर के प्रमुख पर्यटन स्थल

झारखंड में मंदिर और जलप्रपात

हुंडरू जलप्रपात

अंगड़ा प्रखंड में रांची से 45 किलोमीटर दूर रांची पुरुलिया मार्ग है। जहां स्वर्णरेखा नदी 320 फीट की ऊंचाई से गिरती है। भारत में प्रसिद्ध जलप्रपात पर अनेक कविताएं लिखी गई है तथा यहां पर फिल्मों की सूटिंग भी हुई है।

जोन्हा जलप्रपात

इसको गौतम धारा जलप्रपात- भी कहते हैं।  रांची पुरुलिया रोड पर रांची से 40 किलोमीटर दूर पहाड़ों और जंगलों के बीच यह जलप्रपात स्थित है। इसमें राढू नदी का पानी 140 फीट की ऊंचाई से गिरता है। 457 सीढ़ियों से नीचे उतर कर जलप्रपात तक पहुंचना होता है।

दशम अथवा दशमघाघ जलप्रपात

रांची जमशेदपुर मार्ग पर बुंडू थाना क्षेत्र में रांची से 34 किलोमीटर दूर स्थित है है जहां कांची नदी 144 फीट की ऊंचाई से गिरती है। एक मुख्य जलप्रपात के अलावा 9 अन्य छोटे जलप्रपात यहां है इसलिए इसे दशम जलप्रपात कहते हैं।

पंचधारा जलप्रपात

खूंटी से 5 किलोमीटर दूर रास्ते में एक ही कतार में पांच जलप्रपात नयनाभिराम हरीतिमा के बीच स्थित है, जिन्हें पंचधारा जलप्रपात कहते हैं।

पंगुरा अथवा पंगुराघाघ जलप्रपात

रांची-चाईबासा मुख्य पथ पर मुरहू थाना से पूरब की ओर 10 किलोमीटर की दूरी पर पंगुरा की 250 फीट ऊंची पहाड़ियों और वनों से आच्छादित, ईटटी पंचायत के पंगुरा ग्राम के समीप स्थित है। यहां ईटटी नदी दो जलप्रपातों का निर्माण करती है।

हिरणी जलप्रपात

रांची-चाईबासा मार्ग पर खूँटी से आगे रांची से 70 किलोमीटर दूर पर स्थित है जहां पानी 120 फीट की ऊंचाई से गिरता है।

सीता जलप्रपात

रांची से 44 किलोमीटर दूर अभी अविकसित जलप्रपात है, परंतु भविष्य में यह जोन्हा जलप्रपात से ज्यादा प्रसिद्ध होगा।  इस जलप्रपात तक जाने के लिए जोन्हा जलप्रपात से ठीक 1 किलोमीटर पहले पक्की सड़क से पूर्व लगभग 4 किलोमीटर मोरथ से होकर जाना पड़ता है। इसकी ऊंचाई लगभग 280 फीट है। इस जलप्रपात के ऊपर एक छोटे मंदिर में माता सीता का पत्थर बना पदचिन्ह है, संभवत इसी मंदिर के नाम से इस जलप्रपात का नाम सीता जलप्रपात पड़ा है।

सुनवा बेड़ा जलप्रपात

अनगड़ा प्रखंड के महेशपुर पंचायत में स्थित है। यह छोटा किंतु अत्यंत सुंदर जलप्रपात है।

चुन्दरी जलप्रपात

अनगड़ा प्रखंड के बरवादाग में रांची पुरुलिया सड़क से लगभग 7 किलोमीटर की दूरी पर है। यहां प्रतिवर्ष मकर सक्रांति पर छोटा सा मेला लगता है।

घाघरी जलप्रपात

लापुंग प्रखंड के देवगांव के जंगल में स्थित है। मकर सक्रांति के दिन यहां मेला लगता है।

रामकुली पहाड़ी

अनगड़ा  प्रखंड में पेखाघाघ जलप्रपात तपकरा में स्थित है।

रांची पहाड़ी

300 फीट ऊंची रांची रेलवे स्टेशन से 5 किलोमीटर दूर पश्चिम में शहर के बीचोंबीच स्थित है। रांची पहाड़ी बाबा भोलेनाथ के अत्यंत पवित्र एवं जाग्रत मंदिर के रूप में विख्यात है। सावन के हर सोमवार को और शिवरात्रि के दिन बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहां आकर पूजा-अर्चना करते हैं।  रांची पहाड़ी मंदिर देश का शायद एकमात्र ऐसा मंदिर है, जहां धार्मिक ध्वज के साथ साल में 2 दिन, 15 अगस्त और 26 जनवरी को, राष्ट्रीय ध्वज भी फहराया जाता है। ब्रिटिशकाल में रांची पहाड़ी के नीचे ही फांसी घर था। इसलिए रांची पहाड़ी को पहले फांसी टोगरी नाम दिया गया था।

वोटिंग प्वाइंट

18 फरवरी, 1988 को संध्या सिनेमा के निकट एन बोस कंपाउंड मै की शुरुआत की गई।

डुम्बारी पहाड़ी

रांची जिले के खूँटी अनुमंडल मुख्यालय से 20 किलोमीटर दूर स्थित है, जोकि स्वतंत्रता आंदोलन में जलियांवाला बाग के नए सिर्फ समांतर, बल्कि उससे भी ज्यादा महत्व रखता है। क्योंकि डुम्बारी पहाड़ी महान स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा का गुरिल्ला युद्ध प्रशिक्षण शिविर स्थल था। इसी शैल रकब (आज का डुम्बारी) पहाड़ी पर बिरसा मुंडा को पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने भारी मार काट मचाई थी, परंतु बिरसा मुंडा पकडे नहीं जा सके थे, 9 जनवरी, 1990 को इसी स्थान पर जाट रेजिमेंट के कमिश्नर फोर्बेस के नेतृत्व में चार सो मुंडा औरतों मुर्दों को, बिरसा मुंडा को पकड़ने के लिए, जिस तरह मार गिराया गया था वह जलियांवाला बाग हत्याकांड को भी छोटा बना देता है।

यहां 72 फिट उंचा शहीदों का स्मारक बनाया गया है । शहीदों की स्मृति में इस दिन यहां सरकारी समारोह है होता है। वार्षिक मेला लगता है और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। ऐतिहासिक होने के साथ-साथ प्राकृतिक सौंदर्य के कारण यह एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है।

टैगोर हिल

मोराबादी हिल के नाम से पूर्व में जाना जाने वाला टैगोर हिल रांची से 4 किलोमीटर दूर है।  यह रामाकृष्ण मिशन के नजदीक स्थित है। यद्यपि यहां रविंद्रनाथ टैगोर की मूर्ति है और प्रतिवर्ष उनका जन्मदिवस बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। टैगोर हिल रविंद्रनाथ टैगोर से संबंधित नहीं है। शताब्दी के शुरू में उनके बड़े भाई ज्योतीन्द्रनाथ टैगोर ने मानसिक शांति के लिए इस जगह को खरीदा था एवं अपने जीवन के अंतिम समय कुछ दिन यहां व्यतीत किए थे। बंगला साहित्य में वह भी एक महान पंडित थे।

टैगोर हिल से सूर्यदय देखना अपने आप में अनोखा अनुभव है। इसके सुंदरीकरण और विकास के लिए जैक के नवीनतम बजट में प्रावधान किया गया है।

कांके डैम

शहर से 4 किलोमीटर दूर उत्तर में कांके डैम गोंदा पहाड़ी के निकट स्थित है। जहां से शहर की एक चौथाई आबादी को पीने का पानी सप्लाई किया जाता है। यह एक पिकनिक स्थल है।  जहां नए साल के अवसर पर दूर-दूर से लोग पिकनिक मनाने आते हैं। जैक नए बजट में कांके डैम के सुंदरीकरण और डैम पर पार्क विकसित करने का प्रावधान किया गया है। हाल ही में यहां दृश्य मीनार का निर्माण किया गया है तथा वृक्षारोपण किया गया है।

कांके डैम से सूर्यास्त का अवलोकन आनंददायक होता है।

हटिया डैम

रांची शहर से 12 किलोमीटर दूर हटिया डैम है जहां से एच. ई. सी. टाउनशिप को पीने का पानी सप्लाई किया जाता है।  यह भी पिकनिक स्थल है जहां नव वर्ष पर काफी भीड़ रहती है।

जगन्नाथपुर मंदिर

रांची शहर से 10 किलोमीटर दूर स्थित है जिसका निर्माण 1691 में ठाकुर एनीनाथ शाहदेव के द्वारा किया गया था। उड़ीसा के पुरी मंदिर पर आधारित मंदिर का निर्माण 250 फीट ऊंची पहाड़ी पर किया गया था जिसमें भगवान जगन्नाथ तथा बलम राग एवं सुभूद्रा की मूर्तियां स्थापित की गई है।  मुख्य मंदिर से आधा किलोमीटर की दूरी पर मौसी बाड़ी मंदिर स्थित है, जहां प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीय के दिन रथ यात्रा की सांध्या में भगवान के सारे विग्रह ले जाए जाते हैं।  8 दिन के विश्राम के पश्चात नौवें दिन अर्थात आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी को मुख्य मंदिर के लिए प्रस्थान करते हैं।

सूर्य मंदिर

रांची से 39 किलोमीटर दूर रांची जमशेदपुर घाटी के पास पहाड़ियों और हरे-भरे जंगलों के बीच, सफेद संगमरमर के निर्मित एक पहाड़ी पर प्रधान नगर में स्थित है। ऐसी मान्यता है कि स्वयं भगवान श्री राम ने लंका विजय के क्रम में अपने अनुज श्री लक्ष्मण के साथ अपने कुल देवता सूर्य भगवान की पूजा प्रधान नगर में की थी। अंत इस स्थान पर सूर्य भगवान का विशाल मंदिर बनवाया गया है। 11 एकड़ भूभाग में फैले इस मंदिर के वास्तुकार एस. आर. एन. कालिया है। मंदिर में भगवान भुवन भास्कर की प्रतिमा स्थापित है। पूरे झारखंड में यह अपनी तरह का अकेला मंदिर है। यहां 25 जनवरी को टुसू मेले में चौड़ल एवं नृत्य प्रतियोगिताएं होती है।

आदिवासी म्यूजियम

रांची का आदिवासी म्यूजियम शहर से 3 किलोमीटर दूर पूर्व में स्थित है । रविवार को छोड़कर 10:00 बजे से 5:00 बजे तक इसे निशुल्क देखा जा सकता है। संग्रहालय के मुख्य द्वार पर अमर शहीद बिरसा मुंडा की प्रतिमा है। दो भागों में विभाजित संग्रहालय के बाई और बिहार जनजातीय कल्याण संस्थान जातीय कल्याण संस्थान और दूसरी ओर कई ऐतिहासिक धरोहरों को समेटे हुए पुरातत्व विभाग है। सन 1954 में देश के इस पहले जनजातीय शोध संस्थान की स्थापना रांची में की गई थी। देश विदेश से आए पर्यटकों को इस आदिवासी संग्रहालय में अच्छी खासी दिलचस्पी लेते देखा जा सकता है। शोध के विद्यार्थी भी यहां से ज्ञान अर्जित कर पी- एच. डी. की उपाधि ग्रहण करते हैं। आदिवासी विद्यार्थियों को प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता प्राप्त करने के कोचिंग की व्यवस्था भी यहां है।

रुक्का डैम

रांची से 17 किलोमीटर दूर रुक्का डैम पिकनिक के लिए महत्वपूर्ण स्थल बनाया गया है।  यह विकास विद्यालय से 2 किलोमीटर दूर पूर्व में रांची रामगढ़ मार्ग पर स्थित है इस के नजदीक वृक्षों की भरमार है।

गेतलसूद डैम

रांची का सबसे बड़ा डैम 20 किलोमीटर में फैला हुआ है। यहां का पानी सिकिदिरी जलविद्युत परियोजना शक्तिग्रह में भेजा जाता है जिसमें 120 मेगावाट जल विद्युत का उत्पादन प्रतिदिन होता है।

शहीद स्मारक

शहीद चौक पर जी. पी.ओ. रांची के नजदीक बिल्डर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया की बिहार शाखा ने अपनी स्वर्ण जयंती के उपलक्ष्य में स्वतंत्र संग्राम में शहीद हुए देशभक्तों को श्रद्धांजलि अर्पित करने हेतु तथा उनके त्याग को याद रखने के लिए इसका निर्माण किया है। 15 अगस्त, 1992 को इसका अनावरण किया गया।

इस स्मारक में दो हाथों के बीच जलती हुई मशाल दिखाई गई है जो विजय का चिह्न है। अग्नि के बीच से निकलते हुए 2 हाथ उत्साह है और साहस का अद्भुत दृश्य उपस्थित करते हैं। इन हाथों में टूटी हुई बेडी दिखाई गई है जो अंग्रेजों के विरुद्ध हुई क्रांति तथा भारत के लोगों को आजाद कराने तथा उनके सुनहरे भविष्य को संकेत देती है।

अलबर्ट एक्का की मूर्ति

रांची के वीर सैनिक ने भारत-पाक पर युद्ध में 1971 में देश की खातिर लड़ते हुए अपना बलिदान दिया। फिरायालाल चौक पर स्थापित इस मूर्ति की स्थापना उनकी याद को अमर बनाने के लिए की गई है और इस चौक का नाम अल्बर्ट एक्का चौक रख दिया गया है। अलबर्ट एक्का झारखंड के एकमात्र सैनिक है जिन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया है।

भूविज्ञान संग्रहालय

सी.एम.पी.डी.आई. परिसर में कोल इंडिया द्वारा 650 वर्ग मीटर क्षेत्र में एक अनोखे संग्रहालय की स्थापना 1991 में की गई। यह काके डैम के नजदीक स्थित है। भूविज्ञान कोयला और दृश्य श्रव्य व्याख्यान कक्ष में विभाजित इस संग्रहालय में पृथ्वी की विभिन्न झलकियां, उत्पत्ति एवं विकास प्राकृतिक संसाधन प्राकृतिक विशेषताएं जीवन की उत्पत्ति और कोयले की कहानी के साथ-साथ खनिज और जीवाश्मों के संग्रह यहां गैलरियों में इस खूबी के साथ प्रदर्शित है, जिन्हें देखने के बाद दर्शकों में भूविज्ञान एवं कोयला खनन के विभिन्न पहलुओं के प्रति रुचि उत्पन्न होना स्वाभाविक है।

गुलाब प्रदर्शनी

रांची को गुलाब पैदा करने में विषयों में इंग्लैंड के बाद दूसरा स्थान प्राप्त है। रांची में गुलाब प्रदर्शनी जनवरी महीने में लगाई जाती है, जो अत्यंत दर्शनीय होती।

कोडरमा

कोडरमा के घने जंगलों में अवस्थित ध्वजधारी पहाड़ जिले का सबसे ऊंचा पहाड़ है जिसके शीर्ष पर स्थित शिव मंदिर तक पहुंचने के लिए सीडिया और हवाखोरी के लिए छतनुमा मीनार बनाई गई है। शिवरात्रि के अवसर पर दो दिवसीय मेला लगता है और प्रतिवर्ष गरीब तबके के लोगों को की सैकड़ों शादियां इस मंदिर में होती है। यहां के अन्य दर्शनीय स्थलों पर सतगांव प्रखंड में प्रेट्रो जलप्रपात और जोड़ा सेमर में मिले पूरा अवशेष प्रमुख है।

गढ़वा

झारखंड में पारसनाथ के बाद दूसरा सबसे ऊंचा पर्वत है सरुआत पाट झारखंड मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के संगम के स्थान पर स्थित गढ़वा जिले में है।  यह पर्वत श्रंखला 25 किलोमीटर में फैली हुई है। इस गुलगुलपाट ( 3819 फिट) है। समशीतोष्ण जलवायु के कारण इस पर्वत पर मई जून के महीने में भी गरम चादर ओढ़कर रात बितानी पड़ती है।  क्योंकि मई जून और दिसंबर जनवरी महीने में 3.5 डिग्री सेल्सियस सबसे कम तापमान होता है। गुलगुलपाट पर आदिम जनजातियां एवं जनजातियों की छोटी सी बस्ती है। इतनी ऊंचाई पर होने के बाद भी यहां पर पर्याप्त नैसर्गिक जलस्रोत है। नदी, नाले,  झरने, पानी के स्रोत के साथ विभिन्न प्रजाति के पेड़ पौधे के लिए यह विख्यात है। दुर्लभ किस्म की जड़ी बूटियों की प्रचुरता के लिए भी यह प्रसिद्ध है। यहां पहुंचने के मार्ग में स्थान-स्थान पर मिलने वाले तमाम वन्य पशु पक्षी भी देखने को मिल सकते हैं। यदि इसे विकसित किया जाए तो यह सैलानियों के लिए आधुनिकता से दूर शांतिपूर्ण और आकर्षक हिल स्टेशन के रूप में नेतरहाट से कम नहीं होगा। इस पर्वत पर पर्यटन विभाग द्वारा डाक बंगला निर्माण किए जाने की योजना है ताकि पर्यटन को बढ़ावा मिले।

गढ़वा जिला मुख्यालय से 36 किलोमीटर दूर नगर उटारी में 32 मन एवं पांच फीट ऊंचाई की स्वर्ण निर्मित राधाकृष्ण की प्रतिमा अनोखी और विलक्षण है।  देश-विदेश में पाई जाने वाली राधा कृष्ण की मूर्तियों में यह अद्वितीय एवं सर्वश्रेष्ठ है। इसकी स्थापना 1885 में हुई। बखाडीह जैसे नगर उटारी तक रेल सेवा उपलब्ध है।  नगर उटारी से 19 किलोमीटर दूर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमा आरंभ होती है। मार्च महीने में यहां हर वर्ष मेला लगता है।

केतार का सिद्धपीठ

गढ़वा मुख्यालय से 65 किलोमीटर दूर है जिसमें दुर्गा की प्रतिमा है। चैत नवमी में यहां एक माह का मेला लगता है।

खोनहर महादेव

गढ़वा से 11 किलोमीटर दूर शाहपुर गढ़वा मार्ग पर एक पुरातन खोह में स्थित शिवलिंग है जिसके कारण यह हमेशा जलमग्न रहता है। शिवरात्रि के दिन यहां काफी भीड़ रहती है।

जोगियामठ

गढ़वा से 66 किलोमीटर दूर जिले का सर्वाधिक प्राचीन एवं ऐतिहासिक मंदिर है। भंडरिया प्रखंड से 1 किलोमीटर दूर इस मंदिर का मात्र अवशेष ही बचा है। इसके तोरण द्वार, दीवारों पर उत्कीर्ण मूर्तियां,, यत्र तत्र बिखरी सैकड़ों मूर्तियां का समूह है इसकी प्राचीनता एवं समृद्धता पर प्रकाश डालते हैं।

कोटम

गढ़वा से 15 किलोमीटर दूर एक अत्यंत मनोरम स्थल है, जहां सूखे मौसम में ही पहुंचा जा सकता है। 1000 फीट ऊंची पहाड़ी की चोटी पर एक देवी की मूर्ति है।

सुखदारी जलप्रपात

उत्तर प्रदेश छत्तीसगढ़ और झारखंड की सीमा पर स्थित सुखदारी जलप्रपात नगर उंटारी से से 35 किलोमीटर दूर दक्षिण में परासपानी कला के निकट कनहर नदी पर झारखंड का अंतिम जलप्रपात है। यह जलप्रपात अपने प्राकृतिक सौंदर्य एवं मनोहारी दृश्यों के कारण पर्यटकों को आकर्षित करने की अपार क्षमता रखता है। यहां पर कनहर नदी लगभग 100 फीट की ऊंचाई से गिरती है। यहां की प्राकृतिक जल कुंडों में गर्मी के दिनों में भी 100 फीट तक जल भरा रहता है।

इस जलप्रपात के नीचे लगभग 1 किलोमीटर तक पानी के प्रवाह कटी चट्टानों में सुरगंनुमा नहर का निर्माण किया है जो अत्यंत आकर्षक है। इस जलप्रपात के नीचे गहरे पानी में सोंस, घड़ियाल, मगर जैसे जलचर पर्यटकों को आकर्षित करते हैं । छत्तीसगढ़ सीमा से लगे जंगल में बाघ, शेर जैसे दुर्लभ जीव जंतु विचरण करते हैं। सुखदारी (कनहर नदी) के किनारे बगनमंवा पहाड़ है जिसमें बाघ रहते हैं। संभवत बाघ की मांद होने के कारण ही इसका नामकरण बघमनवा हुआ होगा।

हेसातू जलप्रपात

यह हेसातु गांव से 2 किलोमीटर दूर दक्षिण में स्थित है। इस जल प्रपात का पानी गुलगुलपाट से बहकर आता है। यही हरैया नदी का उद्गम स्थल भी है।

गूंगाझाझ जलप्रपात

हेसातू गांव में स्थित है। इसका पानी 100 फीट की ऊंचाई से गिरता है। यही स्थान गंगा नदी के जन्म स्थली है। इसलिए इसे गूंगाझांझ जलप्रपात कहते हैं।

पलटन घाट

छत्तीसगढ़ और झारखंड की सीमा पर निर्मित गोदरमाना पुल से 1 किलोमीटर दूर दक्षिण में स्थित है। यह कनहर नदी का पाट है। यहां कनहर नदी के पहाड़ी पाट में दूर से निकले हुए पत्थर किसी सैनिक टुकड़ी के सामान लगते हैं। इसे देखने से लगता है कि पलटन सेना नदी पार कर रही हो। इसी कारण इसका नाम पलटन घाट पड़ा। नदी के दोनों और अवस्थित एक घने जंगल भी इस स्थान की सुंदरता में चार चांद लगाते हैं।

गुरु सिंधु जल प्रपात

चीनियां प्रखंड में स्थित जलप्रपात तक गढ़वा से चिनियाँ चपकली होते हुए 40 किमी का रास्ता तय करके पहुंचा जा सकता है, गुरसिंधु नामक स्थान पर होने के कारण इसे गुरसिंधु जलप्रपात के नाम से जाना जाता है। कनहर नदी की पहाड़ी चट्टानों से बहकर काफी ऊंचाई से गिरने वाले जलप्रपात से उठता हुआ पुहार और आसपास में स्थित चट्टाने एवं घना जंगल आंगतूक की सारी थकान मिटा देते हैं।

परासडीह जलप्रपात

भवनाथपुर प्रखंड में परासडीह गावं के पास परास नदी पंडा नदी में मिलती है। यहां पर पानी 370 फीट की ऊंचाई से गिरता है और थोड़ी दूर जाने पर सोन नदी में मिल जाता है।

गोरगावां गुफा

भवनाथपुर के पश्चिम में से किस गुफा में एक मंदिर में शिवलिंग है। यहां हर वर्ष शिवरात्रि के दिन मेला लगता है।

बंडा पहाड़

गढ़वा से 3 किलोमीटर दूर स्थित पहाड़ की चोटी पर बंडा बाबा की तपोस्थली है। प्रतिवर्ष रथ यात्रा के दिन यहां मेला लगता है। इसी पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने के लिए यहां वन विश्रामगार एवं वन्य उद्यान बनाए जाएंगे। भादो पूर्णिमा के दिन भी यहां प्रतिवर्ष मेला लगता है।

गिरिडीह

झारखंड का सबसे ऊंचा पर्वत है, पारसनाथ 1365 मीटर ऊंचा है। इसे जैन धर्मावलंबी श्री सम्मेद शिखर के नाम से पुकारते हैं।  यह पर्वत गिरिडीह से 27 किलोमीटर और रांची से 176 किलोमीटर की दूरी पर मधुबन में स्थित है। मधुबन से पैदल, डोलियों पर या जीप द्वारा 8 किलोमीटर का सफर तय करके पारसनाथ पर्वत और पहुंचा जाता है।

पारसनाथ पर्वत शिखर पर जैन धर्म के 24 में से 20 तीर्थकारों ने मोक्ष (निर्वाण) प्राप्त किया था। इसी कारण भारत के सभी जैन तीर्थों में शिखर जैनियों का सर्वाधिक पूजा स्थल है। हर जैन मतावलम्बी अपने जीवन में बराबर शिखरजी के दर्शनों के साध रखता है। यहां जिस तीर्थकर ने करने सबसे अंत में मोक्ष प्राप्त किया, वह 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ स्वामी और उन्हें के नाम पर इस पर्वत का नाम पारसनाथ या पार्श्वनाथ पड़ा। यहां की  की प्राकृतिक सुषमा एवं नेसर्गिक सौंदर्य पर्यटकों एवं श्रद्धालुओं को बरबस ही अपनी और आकृष्ट कर लेता है। इस पर्वत की हरीतिमा छटा निराली ही है। पर्वत के नीचे का विहंगम दृश्य भी अतीव मनोरम होने के कारण दर्शनीय होता है। श्रद्धालुओं को इस पर्वत की वंदना करने में 28 से 30 किलोमीटर का भ्रमण करना पड़ता है।

मधुबन में अनेक सुंदर मंदिर बने हुए हैं। एक से एक मंदिरों की शोभा देखते ही बनती है। इन मंदिरों में मन को शांत करने वाली प्रतिमा विराजमान है। यहां विशाल धर्मशालाएं बनी हुई है, जिसमें यात्री निवास करते हैं।  झारखंड में इतना विशाल सांस्कृतिक स्थल अन्यत्र नहीं है। इसरी बाजार सती पारसनाथ रेलवे स्टेशन और गिरिडीह रेलवे स्टेशन से मधुबन की दूरी 20 से 25 किलोमीटर है। जैन संस्थाएं यात्रियों की सुविधा के लिए स्टेशन से मधुबन के बीच बस सेवा चलाती है, पर अपराधिक वारदातों के कारण अंधेरा गिरते ही बस सेवाएं बंद कर दी जाती है। पारसनाथ के दर्शनीय स्थलों में गंधर्वनाला और सीतानाला जलप्रपात, कुन्थुनाथ स्वामी तथा गणधर महाराज की टोंक ,आदिनाथ स्वामी की टोंक, धवल कुट, आनंद कूट, जल मंदिर, पार्श्वनाथ स्वामी का भव्य, सफेद मंदिर, नंदीश्वर द्वीप, सहस्त्रकूट जिन जैन चैत्यालय जिनेंद्र देव की 1000 मूर्तियां, मान स्तंभ इत्यादि प्रमुख है। यहां 1996 में बना श्री दिगंबर जैन मंदिर लोग शोध संस्थान तथा उसमें स्थापित पार्श्वनाथ का जिन बिंब अपने आप में अतुलनीय है।

गिरिडीह के बगोदर प्रखंड में स्थित 65 फीट ऊंचा शिवलिंगकार हरिहर धाम शिव मंदिर में प्रतिवर्ष श्रावण पूर्णिमा के अवसर पर 50,000 से ज्यादा श्रद्धालु पूजा अर्चना करते हैं व जल चढ़ाते हैं। इस मंदिर में देश के विभिन्न भागों से लोग शादी विवाह की रस्म बगैर आडंबर के संपन्न करते हैं। गिरिडीह के राजधनवार प्रखंड में छत विहीन झारखंड धाम एक अति प्राचीन स्थान है, जहां प्रतिवर्ष शिवरात्रि में लाखो भगत भगवान शिव की पूजा अर्चना करते हैं।  गिरिडीह से 19 किलोमीटर दूर उत्तरी जलप्रपात में उसरी नदी का जल 40 फीट की ऊंचाई से गिरता हुआ अत्यंत मनोरम लगता है। उसरी जलप्रपात के तट पर ही मकर सक्रांति के अवसर पर तीन दिवसीय मेले का आयोजन वर्षों से होता चला आ रहा है।

गुमला

रांची से पश्चिम में 96 किलोमीटर की दूरी पर गुमला जिला समुद्र तल से लगभग 2100 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। जिला मुख्यालय से 25 किमी दूर पालकोट ग्राम नागवंशी राजाओं की राजधानी रहा है। पालकोट में छोड़लता नामक एक विशाल गुफा में 300 लोगों के बैठने की जगह है और गुफाओं के अंदर बजरंगबली का आकर्षक चित्र है। शीतलपुर और मलमलपुर नामक दो पहाड़ी गुफाओं के अंदर से अति ठंडी हवा चलती है जिसके कारण गुफा में ग्रीष्म ऋतु में भी कंबल या रजाई की आवश्यकता पड़ती है. यही मां दुर्गा की 10 भुजी प्रतिमा और बूढ़ा महादेव, जिसकी जड़ें भूगर्भ में दूर तक गई है तथा प्राकृतिक छटा के कारण दर्शनीय है. यहां का प्राकृतिक नल भी अद्वितीय है क्योंकि 3 व्यास वाले नल से वर्षभर काफी मीठा और बर्फ के समान ठंडा जल स्वत: बहता रहता है.

बसीया से 3 किलोमीटर दूर बांघमुंडा जलप्रपात है, जहां दक्षिणी कोयल नदी गिरती है। यही लगभग 400 वर्ष पुराना जगन्नाथ मंदिर है जो कलिंग शैली में गुड वेल उड़द आदि खाद्य पदार्थों से निर्मित है। डूंगरी से 8 किलोमीटर दूर टांगीनाथ पहाड़ी पर अनगिनत शिवलिंग घनघोर जंगल में स्थित है। चैनपुर प्रखंड के राजाडेरा ग्राम से 3 किलोमीटर दूर सदनी जल प्रपात है, जहां पर पनबिजली पैदा करने की संभावना है। सिमडेगा जिले के राउरकेला घाट नामक एक अतिरमणीय स्थल, मुख्यालय से 3 किलोमीटर दूर राउरकेला पथ के किनारे हैं। यहां लाभदाई खूबसूरत बांध है। वहीं पर एक मंदिर एवं दो पहाड़ियों के बीच नदी की सुरभि द्धारा से वहां का प्राकृतिक सौंदर्य बढ़ जाता है। सिमडेगा में ही रामरेखा पर्वत के ऊपर समुद्र तल से 1312 फीट की ऊंचाई पर रामरेखा धाम जंगलों के भी छोटा नागपुर का प्रसिद्ध स्थल है। सिमडेगा को एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का निर्णय लिया गया है। पर्यटन विभाग द्वारा सिमडेगा में एक टूरिस्ट काम्प्लेक्स बनाने के लिए पहल की जा चुकी है और इसके लिए केंद्र से 50,00,000 रुपये के आवंटन की स्वीकृति भी मिल चुकी है।

श्री हनुमान जी का जन्म स्थान और माता अंजनी का गुफा मंदिर गुमला शहर से 18 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर पश्चिम सीमा पर आजन ग्राम में स्थित है। यही एक छोटी सी प्राकृतिक जलधारा है जो इस पवित्र स्थल को अपने जल से सिक्त किया करती है। यहीं पर एक धमधमीया पहाड़ हैजिसके ऊपर चढ़ने से धमधम सी आवाज सुनाई पड़ती है। एक स्थान पर अंजनी मां के दूध से निर्मित चट्टान भी है, जो पूज्य है।  एक भव्य पंचमुखी महादेव की प्रस्तर मूर्ति है। रामनवमी के अवसर पर यहां पर वृहद मेले का आयोजन भी होता है।

सिसई से 4 किलोमीटर दूर ऐतिहासिक स्थल नगर है जो प्राचीन काल में छोटा नागपुर की राजधानी थी।  नागवंशी राजाओं द्वारा निर्मित नवरत्न किला यहां है जो जीर्णशिर्णण अवस्था में है और जिसका 2, 3 तुला ( खंड) भूमि में धंस  चुका है, धोबी मठ, योगी मठ, बुलबुले भवन आदि दर्शनीय एवं प्रेक्षणीय है। साथ ही भगवान कपिल नाथ देव शिव का प्राचीन मंदिर भी विशेष महत्व लिए हुए हैं।  शीशी थाने से पूर्व दिशा में नरसिंहपुर नामक गांव है, उसी के समीप एक ऊंचा पहाड़ है, जिसका नाम हीरहगिरी है, परंतु वह बैग पहाड़ी के नाम से विख्यात है। यहीं से एक जल स्रोत निकल कर एक नदी के रूप में परिवर्तित हो गया है।  कुछ लोग इसी को स्वर्णरेखा नदी कहते हैं। सिसई प्रखंड में ही प वीरा नामक गांव में बनखड़ी पहाड़ है। यहां प्राचीन काल का भगवान शिव का मंदिर और इसी के समीप एक विशेष प्रकार का पत्थर है, जिसे बुझाने से विभिन्न प्रकार की आवाज में आती है।

पालकोट और रामजड़ी (बसीया) केक कसा बर्तन का कुटीर उद्योग भी दर्शनीय है। कांसा बर्तन के निर्माण की यह कला झारखंड के मात्र इन्हीं 2 गांव में सिमटी हुई है। निर्मित बर्तनों की सुगमता कला और मजबूती देखकर आश्चर्य होता है।

चतरा

शहीद स्मारक

1963 में 17 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की स्मृति में एक शहीद स्मारक का निर्माण उसी मंगल तालाब के पास किया गया और 1976 में एक अभिलेख उतिक्रिण किया गया,जिसमें 2 अक्टूबर 1857 में हुए चतरा के युद्ध एवं सूबेदार जयमंगल पांडे तथा नादिर अली की शहादत का जिक्र है।

कोल्हूआ या कौलेश्वरी पर्वत

चतरा जिले में हंटरगंज प्रखंड से 10 किलोमीटर दूर पूर्व में 1575 फीट ऊंचा कोल्हूआ या कौलेश्वरी पर्वत है जिस पर चढ़ने के लिए अब सीढियों का निर्माण हो चुका है। प्राकृतिक छटाओं के बीच स्थित इस पर्वत पर अनेक हिंदू और जैन तीर्थ स्थलों के नाम ही अनुपम पर्यटन स्थल भी है। आदिवासियों के देवता भी यहां निवास करते हैं। इस स्थानों को कोल्हूआ या कौलेश्वरी कुलेश्वरी एवं कूटशीला के नाम से जाना जाता है, कोल आदिवासी की आराधना देवी कौलेश्वरी है। दुर्गा सप्तशती में देवी भगवती को कुलेश्वरी कहा गया है। महाभारत काल के मदद से राजा विराट ने अपने स्टियर कुलदेवी कौलेश्वरी कि यह प्राण प्रतिष्ठा की थी। महिषासुर मर्दिनी के रूप में मां कौलेश्वरी आराध्य देवी दुर्गा है। किवदंती है कि इस स्थल पर सती का कोख गिरा था और इस रूप मैं यह एक सिद्ध पीठ है। इस आधार पर धारणा है कि संतान प्राप्ति की मनोकामनाएं पूरी होती है। मिन्नत मांगने के बाद मनोकामना पूर्ण होने पर लोग यहां बकरे की बलि चढ़ाते हैं। नेपाल से जी हां काफी लोग आते हैं।

कोल्हूआ पर्वत महाकाव्य काल एवं पुराण काल से संबंधित स्थल है। वनवास के समय सीता एवं लक्ष्मण का वास इसी अरण्य (जंगल) में होने की किवदंती है। अर्जुन पुत्र अभिमन्यु के साथ उत्तरा का विवाह भी इसी से तल पर होने की बात लोग मानते हैं। जैन धर्मावलंबी 23 तीर्थकार पार्श्वनाथ से भी इस स्थल का संबंध जोड़ते हैं। जैन धर्म से संबंधित अनेक अवशेष यहां मौजूद है। 10 वीं शताब्दी से यह स्थान तीर्थ के रूप में पूजित है। इस मत्स्यराज विराट की राजधानी एवं जिला भी माना जाता है।

कोल्हूआ पर्वत पर स्थित पर्यटन स्थल

मां कौलेश्वरी मंदिर

इस प्राचीन मंदिर में महिषासुर मर्दिनी, त्रिशूलधारिणी और कुलेश्वरी देवी के काले पत्थर की चतुर्भुजी प्रतिमा प्रतिष्ठित है। अवधारणा है की सम्पूर्ण कौलेश्वरी मंदिर प्रांगण कोआं, सिआर, और शैवाल का अस्तित्व नहीं है। किवदंती है कि कोलासुर दैत्य का अत्याचार बढ़ गया था। दैत्य का विनाश कर मानव को त्रान दिलाने के लिए मां भगवंती जी का अवतरण 12 वर्ष की कुंवारी कन्या के रूप में हुआ एवं कोलासुर का वध किया गया।

पूर्व में यह बलि की प्रथा थी। वर्ष में दो बार वसंत पंचमी एवं रामनवमी मेले में यहां बलि दी जाती थी जिसे मंदिर के सामने स्थित सरोवर का गंदा पानी हो जाता था।  किंतु अब मंदिर में बलि के लिए लाए गए बकरों का मंदिर में सिर्फ पूजन होता है। पहाड़ के नीचे के भाग में विभिन्न स्थानों पर ठहराव की जगह से बलि दी जाती है। पुराने दस्तावेजों द्वारा अधिकृत जगतार तथास्तु की ग्राम के साकलद्वीपीय ब्राह्मण बारी बारी से इस मंदिर में प्रतिष्ठित देवी कौलेश्वरी की पूजा अर्चना करते आ रहे हैं। वसंत, पंचमी, दशहरा, राम नवमी, आदि त्योहारों के आसपास में चहल-पहल बढ़ जाती है।

मंदिर के चबूतरे पर प्रतिदिन ब्राह्मण बालकों को धर्म ग्रंथों का पाठ तथा मंत्रोच्चार का अभ्यास कराया जाता है। सामूहिक मंत्रोच्चार से पर्वत शिखर ऐसा मालूम पड़ता है जैसे उसने क्लास का रूप धर लिया हो और भगवान शिव और भगवती पार्वती को प्रसन्न करने के लिए ऋषि मुनियों का मंत्र जाप चल रहा है।

कौलेश्वरी मंदिर का पट प्राय:वादों से लेकर कृष्ण पक्ष अश्विनी तक बंद ही रहता है।

प्राकृतिक झील

कोल्हूआ पर्वत पर मां कौलेश्वरी के मुख्य मंदिर के सामने करीब 900 फीट चौड़ी 2000 फीट लंबी और 30 फुट गहरी प्राकृतिक झील है, जिसे कुछ लोग तालाब भी कहते हैं।  देखने से यह क्रेटर झील के समान लगती है। झील में स्थाई रूप से पानी रहता है। 1967 की अकाल (सुखाड़) में भी इस झील में भरपूर पानी था। देवी के प्रिय पुष्प लाल कमल इस दिल में बहुतायात से पाए जाते हैं।

झील से पानी निकासी के लिए पूर्व से प्राकृतिक के मार्ग बना हुआ है। एक दो बार झील को सुखाने का प्रयास सफाई के उद्देश्य से किया गया था, लेकिन झील के सुख नहीं पाई। वर्ष 1986 में जिला प्रशासन द्वारा इस जल की सफाई कराई गई।

सप्तकुप

कहते हैं कि पर्वत पर स्थित झील के भीतर भी सात कुए या स्रोत है। इसे सप्तकूप कहा जाता है। इन्हीं की वजह से शायद झील का पानी कभी सुख नहीं पाता।

तालाब

पहाड़ पर एक अलग छोटा तालाब है जिसमें उजले कमल खिलते हैं।

भैरवनाथ मंदिर या पार्श्वनाथ मंदिर

तालाब के पश्चिमी किनारे पर एक विशाल गुफा में पीहासानित तथा काले पत्थरों से निर्मित नौ सर्प छत्रों से युक्त प्रतिमा है। इसे हिंदू भैरवनाथ की मूर्ति मानते हैं, किंतु जैन इसे 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्ति मानते हैं। दोनों ही धर्मावलंबी अपनी आस्था के मुताबिक इस मूर्ति का पूजन करते हैं।  बगल में एक और गुफा है जिसमें तीन मूर्तियां अवस्थी थी।

द्वारपाल अथवा पारसनाथ की प्रतिमा

कटोरिया ग्राम की ओर से पर्वत पर चढ़ते समय मार्ग में जिस प्रतिमा के दर्शन होते हैं, हिंदुओं के लिए द्वारपाल तथा जैनियों के लिए पार्श्वनाथ की प्रतीमा  है।

पंच पांडव या पंच तीर्थकर

मां कौलेश्वरी मंदिर के सामने एक बहुत बड़ी चट्टान पर पांच आदम कद मूर्तियां उतिक्रिण है। हिंदू इन्हें पांच पांडवों की मूर्ति मानते हैं किंतु जैनी इसे पंच तीर्थतकर की मूर्तियां मानते हैं। जिसमें उनके अनुसार जैन तीर्थ कर अभिनंदन नाथ जी, मन्मथ नाथ जी, नेमिनाथ जी, महावीर स्वामी जी तथा पार्श्वनाथ जी की प्रतिमाएं हैं।

आकाश लोचन

मां कौलेश्वरी मंदिर के उत्तर-पूर्व कोण में आकाश लोचन नामक एक स्थल है। इस स्थान से आकाश को देखने पर सुखद अनुभूति होती है। शायद इसलिए इसे आकाश लोशन कहा गया है।

विष्णुपग या पार्श्वनाथ पर चिन्ह

आकाश लोचन की एक शिला पर दो चरण चिन्ह उभरे नजर आते हैं। हिंदू धर्मावलंबियों का मानना है कि इनमें से एक चरण चिन्ह मौलिक है और वह भगवान विष्णु का चरण चिन्ह है। उनका कहना है कि एक चरण चिन्ह गया के विष्णुपद मंदिर में तथा दूसरा इस स्थल पर अंकित है। शीला पर दूसरा चरण किसी शिल्पी द्वारा बाद में बना दिया गया है। जैनी इसे पार्श्वनाथ जी के पग चिह्न बताते हैं।

सप्त ऋषि गुफा

कुलेश्वरी मंदिर से कुछ ही दूर पर सप्त ऋषि गुफा के नाम से पुकारी जाने वाली एक दूसरे से जुड़ी सात गुफाएं हैं। इसमें बनी एक मूर्ति के बारे में भी हिंदू और जैन धर्मावलंबियों के अलग-अलग दावे है।

वाण गंगा

इस पर्वत पर वाण गंगा नाम से भी एक स्थल है जहां से एक क्षण जलधारा वर्षभर निकलती रहती है।

भीम भार

भीम भर के बारे में एक दंतकथा है कि अज्ञातवास के साथ पांडवों के आवास निर्माण के लिए भीम जब भार (कांवर) से पत्थर ढोकर ला रहे थे। तो भर टूट जाने से दो बड़े पत्थर उलेखित स्थल पर गिरकर स्थिर हो गए थे। यह स्थल लेढो ग्राम की ओर से पहाड़ पर चढ़ने के मार्ग में है।

नकटी भवानी

यह स्थल भीम भर के निकट है, जिसके बारे में अलग-अलग दंत कथाएं प्रचलित है।

अर्जुन बाण

इस स्थल पर विशालकाय एक चट्टान के छिद्रों से हर समय पानी गिरता रहता है। दंतकथा है कि अज्ञातवास के समय इसी छतरपुर अर्जुन बाणों के संधान का अभ्यास करते थे, जिससे अनेक स्थानों में छिद्र हो गए हैं। ऐसे ही छिद्रों से पानी झरता रहता है।

मंडवा मंड़ई

एक्सल को मंडवा-मड़ई के नाम से पुकारा जाता है। इसके बारे में कई दंत कथाएं है। इन दंत कथाओं में देवी कौलेश्वरी के विवाह का भी उल्लेख है।

मां भद्रकाली मंदिर या भदुली माता मंदिर परिसर

चतरा जिले के इटखोरी प्रखंड मुख्यालय शेडेड किलोमीटर दूर पूर्व में भटौली ग्राम में स्थित है। यह चतरा चौपारण मार्ग पर अवस्थित है। चतरा जिला मुख्यालय से 35 किलोमीटर पूर्व तथा चंपारण से 16 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम म्हाने (महानद) और बकरा नदी के संगम पर स्थित धर्म, सही सुनता और धार्मिक सहअसतीत्व का प्रतीक है। यह स्थान बक्सा नदी से तीन ओर से गिरा हुआ अंग्रेजी अक्षर यू के आकार का है। 1992 में मां भद्रकाली नामक एक वृत्तचित्र की शूटिंग भी यहां की गई थी।

मां भद्रकाली मंदिर परिसर एक हरा भरा, जंगलों, झाड़ियों, धरना एवं नदियों के मध्य स्थित होने के कारण है, गया के निकट, मगध का एक मनमोहक है, आकर्षक, एकांत एवं शांत वातावरण में अवस्थित साधना के लिए साधकों एवं भक्तों को आकर्षित करता रहा है एवं भारत का प्राचीन, सांस्कृतिक एवं धार्मिक धरोहर है। यह हिंदू, वैष्णो, सेव, जैन और बौद्ध धर्म का संगम स्थल है।

नामकरण

इटखोरी का नामकरण बुद्धकाल से संबंध है। इटखोरी का नाम पूर्व में इतखोई था, ऐसी मान्यता है, किवदंती है कि यहां एकांत अरण्य में जब सिद्धार्थ है,(गौतम बुध) अपनी निर्बोद्ध एवं अटूट साधना में लीन थे तब उनकी मौसी, विमाता प्रजापति (माता माया देवी का ध्यान आसन सिद्धार्थ के शेष अवस्था में ही हो गया था) उन्हें वापस कपिलवस्तु ले जाने के लिए आई थी किंतु जब तथागत (बुद्धदेव) का ध्यान मौसी के आगमन से भी नहीं टूटा तो पुत्र के लौटने की आशा त्याग कर प्रजापति को लगा कि उन्होंने अपना पुत्र रत्न खो दिया है। अंत: उनके मुख से अनायास ही निकल पड़ा इतखोई अर्थ यही खोंई। उसी समय से यह इतखोई कहलाया, जो कालांतर में इटखोरी कहलाया और आज भी इस नाम से प्रसिद्ध है।

दूसरी मान्यता यह है कि इटखोरी शांति का पर्याय है, क्योंकि इसका अर्थ है शांति। इसी क्षेत्र में खोरी संकरी गली या छोटे रास्ते को कहा जाता है।

मां भद्रकाली मंदिर परिसर के प्रमुख पर्यटन स्थल

मुख्य मंदिर

  • मुख्य मंदिर के गर्भ गृह की लंबाई 14 फिट एवं चौड़ाई 12 फीट है जिसमें मां भद्रकाली (भदुली माता) की प्रतिमा स्थापित है। 1968 तक यहां मां भद्रकाली एवं अष्टभुजी देवी दुर्गा की प्रतिमा स्थापित थी, किंतु 1968 में दोनों प्रतिमाओं की चोरी हो गई थी।  दोनों में से एक भद्रकाली की मूर्ति, कोलकाता से वापस लाई गई, किंतु अष्टभुजी देवी दुर्गा की मूर्ति वापस नहीं लाई जा सकी।
  • मां भद्रकाली की सौम्या प्रतिमा मंगला गोरी के रूप में है। मां भद्रकाली की प्रतिमा गोमेद पत्थर या अष्ट धातु से निर्मित कोटी की कला का नमूना है। यह प्रतिमा लगभग 6*1\2 फिट ऊंची, 2*1\2  फीट चौड़ी तथा 30 मन वजन की बताई जाती है। जो अपने आप में एक अनूठी प्रतिमा है।
  • मुख्य मंदिर के बाहर चारों कोनों पर गौतम बुध की चार छोटी छोटी प्रतिमाएं है, जो ध्यान मुद्रा में है। उत्खनन से प्राप्त इन मूर्तियों को प्रतिष्ठित कर दिया गया है।
  • परिसर से खुदाई के दौरान 417 प्रतिमाएं एवं अन्य वस्तुएं प्राप्त थी। जिन्हें जिला परिषद के विश्राम गृह में नवनिर्मित म्यूजियम (संग्रहालय) में रखा गया है।
  • मंदिर में कुल मिलाकर तो 24 प्रतिमाएं हैं, जिनमें गोरी, शंकर, विष्णु, लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, गणेश, हनुमान, सूर्य देव आदि को पहचाना जा सकता है। कुछ गंधर्व कन्याओं की मूर्तियां तथा विधि एवं सिद्धि की भी पहचान की जा सकती है।
  • मुख्य प्रतिमा की बाएं और दाएं और ध्यान मुद्रा में लीन दूसरी प्रतिमाएं यह बताती है की राजकुमारी अपने हाथियों एवं सुजीत घोड़ों पर सवार होकर मां भद्रकाली की आराधना के लिए पधारी प्रतिमा के दोनों और मां भद्रकाली का वाहन सिंह सिंहनाद करता हुआ छलांग लगा रहा है।

हनुमान की प्रतिमा

मां भद्रकाली के मंदिर के बाहर निकलते ही दृष्टि जाती है केसरी नंदन की मनोरम मूर्ति पर लगता है कि अनंतकाल से दुष्टजनों से मां की रक्षा हेतु बजरंग बली अपनी गधा लेकर खड़े हैं, ताकि भक्तजन निरापद रूप से मां की पूजा करने आ सके।

खुला शिवालय

मुख्य मंदिर से लगभग 200 फीट की दूरी पर एक खुला हुआ शिवालय है। पूर्व से द्वार पर तीन पाषण स्तंभ थे, जिसमें दो खड़े और एक पड़ा स्तंभ था। किंतु उनकी एक विशेषता हुआ है थी कि यह स्तंभ बिना किसी जोड़ के थे। यहां तक कि जमीन में भी खुदाई करके स्तंभ को गाड़ा नहीं गया था और न राज मिस्त्री से काम लिया गया था। ऐसा लगता है कि देव कृपा से यह तीनों स्तंभ प्रकृतिक से अप्रभावित निर्बाध रुप से खड़े थे। किंतु 1985 में यह स्तंभ गिर पड़े और बगल में ही उन्हें रख दिया गया है। इन स्तम्भों पर कलात्मक नक्काशी की गई थी, दो लंबाई में 6 फीट और चौड़ाई में 1 फीट है। इसका निचला भाग नौ इंच चोड़ा है। नीचे लड़के पास कमल दल उत्कीर्ण है।

यहां एक विचित्र शिव की मूर्ति है जिसमें 1008 छोटे-छोटे शिवलिंग उत्क्रिण हैं  शिवलिंग की ऊंचाई 5 फीट 3 इंच है, जब की चौड़ाई 6 फीट 3 इंच है।

इस शिवालय के बाहर ठीक द्वार पर बीचोंबीच एक विशाल शिव वाहन नंदी की प्रतिमा है जो सफेद पत्थर से निर्मित है। यह प्रतिमा बैठने की मुद्रा में है। इसका मुंह पश्चिम दिशा की ओर शिवलिंग के सामने है। अब यह प्रतिमा भूरी दिखती है। कालक्रम के प्रवाह में नंदी का एक सींग टूट गया है। यह प्रतिमा एक विशाल पत्थर को तराश कर बनाई गई प्रतीत होती है, जो 4 फीट 6 इंच लंबी और 4 फीट 3 इंच चौड़ी है। इसे देखकर नेपाल स्थित पशुपतिनाथ मंदिर की याद ताजा हो जाती है।

अब एक शिवालय का निर्माण कार्य उसी स्थल पर प्रगति में है, जो 71 फीट लंबा, 50 फीट चौड़ा और 65 फीट ऊंचा होगा। जीर्णोद्धार के पूर्व नाग नागिन की एक जोड़ी यहां निवास करती थी। जिनके दर्शन भक्तजनों को प्राय: हो जाया करते थे, किंतु बताते हैं कि अब यह जोड़ी वटवृक्ष के एक कोटल में निवास करती है तथा तथा यदा कदा भक्तजनों को आशीर्वाद देती है।

सहस्त्र बुद्ध (कटेश्वर नाथ बौद्ध स्तूप)

सहस्त्र लिंगम शिव की प्रतिमा से सौ कदम की दूरी पर एक बौद्ध स्तूप है, जो सहस्र शिवलिंग की आकृति का बना हुआ है। इस पर भगवान बुद्ध की 104 लघु एवं चार विभिन्न मुद्राओं में बड़ी प्रतिमा उत्क्रिण है। वास्तव में यह स्तूप 15 फीट ऊंचा है, किंतु उसका एक बड़ा भाग जमीन के अंदर गड़ा हुआ है अतएव केवल 5 फीट की दृष्टि गोचर होता है। आधार पर यह 8 फीट चौड़ा है जो क्रमानुसार ऊपर में 2 फीट चौड़ा है। ऊपर का मस्तूल गढ़नुमा है, जिस पर शिव लिंग के आकार का एक लघु ढक्कन है। मस्तूल से ढक्कन हटाने पर एक कोने से जल आश्चर्यजनक ढंग से पसीजता रहता है, जो खोज का विषय है।

भगवान बुद्ध के स्तूप एवं शिवलिंग की समानता अपने आप में कलाकृति का एक नमूना है। इस समानता के चलते ही दोनों के शिवलिंग होने का विवाद उठाया जाता है।

कुटेश्वर (कांटेश्वर) स्थान का तालाब

सहस्त्रबुद्धे स्तूप से 300 फीट की दूरी पर एक तालाब है। 1978-79 में एच एम एल (हस्त मानव मजदूरी) योजनान्तग्रत इस तालाब की खुदाई हुई थी जिसमे लाठी रहित भाले, सीक्कड़, तलवार, टागी आदि लोहे अस्त्र निकाले गए थे, जिनकी संख्या 25 है, जबकि दो मोटे सीकड़ भी पाए गए हैं। लगता है कि राज प्रसाद की चहारदीवारी में भाले के समान तीक्षण लोहा अस्त्र का प्रयोग किया गया था। यह सफल पुरातत्व विधाओं की बाट जोह रहा है।

शीतलनाथ के चरण चिन्ह

मुख्य मंदिर से 450 फीट की दूरी पर पश्चिम में एक पत्थर के टुकड़े पर एक जोड़ा चरण चिन्ह है। यह चरण चिन्ह जैन धर्म के दसवें तीर्थकर शीतल नाथ ( शीतला स्वामी) का, है, जिनका काल 10 वीं सदी ईसा पूर्व था। जैन सहितजैन साहित्य भदुली (भद्रकाली) को शीतला स्वामी के जन्म स्थान के रूप में निरूपित करता है। आज भी जैन समुदाय मां भद्रकाली को भदूली माता ही कहकर पुकारता है।

यही एक मंजूषा में ताम्रपत्र भी मिला था, जिस पर अंकित था शीतलनाथ. इसमें जैन मंत्र भी उल्लिखित थे. ताम्रपत्र पर लिखित लेख पढ़ लिया जाएगा तब तथ्य और तिथि पर विशेष प्रकाश पड़ेगा.

शाही वन पोखर (रानी पोखर)

मुख्य मंदिर से और सहस्त्र बुद्ध स्तूप से 300 फीट की दूरी पर मनोहारी बगीचा से सटे पूरब दिशा हमें राजा का वन पोखर है, जो  सुरंग द्वारा महाने नदी से जुड़ा हुआ. शाही संरक्षण में इसे पोखर में विभिन्न प्रकार के कमल पुष्प उपजाए जाते थे। जो राजा द्वारा स्नान के पश्चात अष्टभुजी देवी दुर्गा मां को पूजा-रत्नाकर अर्पित किए जाते थे। कहा जाता है कि 108 कमल पुष्प प्रतिदिन मां को अर्पित किए जाते थे। यह वन पोखर 500X300 फीट में फैला हुआ जीर्णोद्धार हेतु शोधकर्ताओं एवं सरकार की ओर ताक रहा है।

करुणामई मां (कनूनिया माई) का मंदिर

पोखर से लगभग 300 फीट उत्तर स्थित करुणामई मां का मंदिर है, इसे साधारण बोलचाल की भाषा में कनुनिया कहा जाता है। यह एक सिद्ध तांत्रिक पीठ है, जहां एक पर स्तर पर नीचे शिव शक्ति या शुन्य ओंकार सकती है, शिव के बाएँ सिद्धि दाहिने रिद्धि उसके ऊपर शिव शक्ति का वरदहस्त। बाय अर्धचंद्र दाएं पूर्णचंद्र और सबसे ऊपर स्थित अमृत कलश निखिल ब्रह्मांड की सकारात्मक व्याख्या है।

बौद्ध देवी तारा

ए.एफ.लिफ्ट द्वारा रचित (1917) तथा पी.सी. राय द्वारा परिवर्ध्दित( 1957) हजारीबाग जिला गजेटीयर में ऐसा उल्लेख है कि यहां पर अनेक बौद्ध देवी तारा की प्रतिमाएं है किंतु दुखद: आश्चर्य है कि एक भी देवी तारा की प्रतिमा अब यहां उपलब्ध नहीं है। मां भद्रकाली मंदिर परिसर के पास 25 एकड़ भूमि पर रामाकृष्ण मिशन स्कूल की स्थापना की बात चल रही है। मंदिर परिसर में शादी विवाह कराने के लिए उचित व्यवस्था जिला प्रशासन द्वारा की जा रही है। शादी तो पहले भी होते थे, लेकिन लोगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता था। नई व्यवस्था में लोगों को कोई परेशानी नहीं होगी। मंदिर परिसर में नेचरोपैथी एवं एक्यूप्रेशर पद्धति का सेंटर भी खोला जा रहा है।

डोहरा से प्राप्त कलाकृतियां

इटखोरी प्रखंड की सीमावर्ती प्रखंड चतरा के भोकतमा पंचायत में डोहरा गांव के निकट जंगल में 1993 में खुदाई से जमीन में दबे ऐसे पत्थर मिले हैं जिन पर विभिन्न देवी-देवताओं व अन्य की आकृतियां बनी है।

पत्थरों पर खुदी हुई इन कलात्मक मूर्तियों में भगवान राम तीर धनुष लिए हुए हैं, लक्ष्मण और भरत ढाल तलवार और चक्र लिए है, राधिका दही लेकर इतराती हुई मुद्रा में है, भगवान शंकर त्रिशूल डमरू और शंख लिए हुए तपस्या की मुद्रा में है। अन्य कलाकृतियों में हाथी मछली कलश तथा घड़ा व बछड़ों को दूध पिलाती हुई गाय हैं। अनेक पत्थरों पर स्तम्भ, चौखट दरवाजे की कलात्मक आकृतियां है।

इस तरह की कलाकृतियां इटखोरी स्थित भद्रकाली मंदिर परिसर में खुदाई के दौरान पाई गई थी। दोनों की दूरी लगभग 35 किमी है। संभव है कि उस जमाने में दोहरा जंगल और भद्रकाली मंदिर में कुछ संबंध रहा होगा। ऐसा लगता है कि डोहरा वन में जिन पत्थरों में कलाकृतियां उतिक्रीण पाई गई है उसी प्रकार के पत्थर भद्रकाली मंदिर परिसर में खुदाई के दरमियान मिले हैं। भद्रकाली की मूर्ति 9 वीं शताब्दी के मध्य में निर्मित बताई जाती है। दोनों स्थलों के पत्थर एक समान हैं। इसलिए ये कलाकृतियां भी उसी काल की लगती है। उस काल में डोहरा मां भद्रकाली क्षेत्र मगद्र राजधानी के क्षेत्र में ही था। संभावना व्यक्त की जा रही है कि यह स्थल किसी राजा का किला या गढ़ होगा या फिर कोई शक्ति पीठ है। खुदाई स्थल के रूप में एक नदी भी है। इस दुरी 100 गज है। पुराणों के अनुसार जहां जहां धार्मिक महत्व के स्थान है वहां वहां सी नदी गुजरती है।

खुदाई स्थल के लिए सुलभ रास्ता, अंटा मोड़ से दो-तीन किलोमीटर दक्षिण की ओर पक्की सड़क है। फिर 4 किलोमीटर तक जंगली रास्ता तय करके वहां पहुंचना होता है।

म्हाने नदी का दह

मां भद्रकाली परिसर से 1\2  किलोमीटर की दूरी पर म्हाने नदी के किनारे एकदम पहाड़ियों और जंगलों से घिरा है, जिसकी प्राकृतिक तथा नैसर्गिक के सुषमा अपने आप में अनुपम है। झुंड के झुंड लोग यहां आनंद के लिए आते हैं। कार्तिक पूर्णिमा के दिन विश्व के अवसर पर यहां एक मेला सा लगता है। लोग स्नान एवं धूप सेवन का आनंद लेते हैं।

कुंदा का ऐतिहासिक किला

प्रताप पूर्व प्रखंड मुख्यालय से करीब 14 किलोमीटर दक्षिण में  कुंदा गांव में राजा का ऐतिहासिक किला आज भी अपनी पूरी मजबूती से खड़ा है। साक्ष्यों के आधार पर कहा जाता है कि इस भव्य किले का निर्माण 17 वीं शताब्दी में हुआ था।

कुंदा गुफा

कुंदा के ऐतिहासिक किले से लगभग 1 किलोमीटर दूर कुंडा गुफा प्राचीन काल की उन्नत तकनीक का परिचायक है। किले के दक्षिण भाग से एक संकरी गली गुफा को किले से जोड़ती है. छिछली धरा गुफा के आधार को पकड़ती हुई उतरती है। पहाड़ी के निचले भाग में कुछ ऊपर पहाड़ी के अंदर ही यह गुफा है। गुफा का प्रवेश द्वार इतना संकीर्ण है कि कोई व्यक्ति बिना लेटे इसमें प्रवेश नहीं कर सकता। गुफा के द्वार से प्रवेश करते ही एक बड़ा सा हाल सामने मिलता है। हाल की ऊंचाई इतनी है कि कोई व्यक्ति आसानी से खड़ा रह सकता है. इस हाल का प्रयोग पर्यटन विश्राम के लिए करते हैं. हाल का संबंध दो कमरों से है, जो आपस में एक दूसरे से जुड़े हैं। एक कमरे में विशाल शिवलिंग है। यहां के स्थानीय लोगों का कथन है कि दूसरे कमरे में कोई 100 वर्षीय वर्ग साधु रहते थे, जो कहीं चले गए हैं, इस गुफा की सबसे विशिष्ट उल्लेखनीय बात यह है कि बिना रोशनी के शिवलिंग वाले कमरे में सदैव प्रकाश रहता है। केंद्रीय हाल में घुप्प अंधेरा रहता है जबकि शिवलिंग कक्ष में प्रकाश।

टंडवा प्रखंड की गुफाएं

चतरा जिले में हजारीबाग, उत्तर पूर्व जिलों के सीमावर्ती, टंडवा प्रखंड के तवार पहाड़ी क्षेत्र के दो स्थानों पर गोरी एवं भगवान टोला तथा ठिठोगी  क्षेत्र के सप्त पहाड़ी में प्राचीन गुफाएं मिली है।

छ: अद्भुत गुफाएं टडवा प्रखंड में मिली है. इन गुफाओं में 500 लोगों के रहने की व्यवस्था है। इन गुफाओं में मध्य पाषाण युग की चित्रकारी का भी पता चला है। यह गुफाएं ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इन गुफाओं में जल स्रोत भी है।

यह पिपरवार क्षेत्र में जिस प्रकार के गुफाओं का पता चला है वैसी गुफाएं संभवत है भारत में प्रथम तथा विश्व में द्वितीय है। यह गुफाएं 1900 वर्ष पुरानी बताई जा रही है। गुफाओं की दीवारों पर बड़ी संख्या में सफेद, पीले और केसरिया रंगों के चित्र मिले हैं । यह गुफाएं पाषाण काल की है। चित्रों में हिरण के जोड़ों के कई चित्र ज्यामितीय बनावट के कई चित्र और तीन धनुष लिए लोगों के चित्र पाए गए हैं।  पुरातत्ववेताओ को इस क्षेत्र में कुषाण काल के दुर्लभ भवन का भी और अवशेष मिला है।

पिपरवार कोयला परियोजना के भगवान टोला में द्वितीय सदी ईसा पूर्व के 60X100 फिट मेगाथील भी मिले हैं। इस प्रकार की गुफाएं भारत इसे पहले मध्य प्रदेश में पाई गई थी।

इसी क्षेत्र के ठिठोगी गांव क्षेत्र के सप्त पहाड़ी में भी एक दो तल्ले वाली गुफा मिली है. 50 X 30 फिर के क्षेत्र की गुफा में से पुरानी कलाकृतियां प्राप्त हुई है। जिन्हें पुरातत्व विशेषज्ञों ने मेन हीर नाम दिया है। यह कलाकृतियां भी हजारों वर्ष पुरानी है।

धोरधोरा खावा

टंडवा प्रखंड के सराढू ग्राम में एक अत्यंत रमणीक स्थल है। यहां एक गुफा है, जिसका द्वार चोड़ा है एवं सफेद चिकने पत्थरों से बना है। गुफा के ठीक नीचे चिकना चमकता हुआ लाल पत्थर का सपोट है। लाल पत्थर के नीचे नीचे एक नदी बहती है। कहा जाता है कि ग्रामीणों को यहां खुदाई वगैरह करने पर प्राचीन काल की चूड़ी, इंटे एवं प्राचीन वस्तुए यदा कदा मिलती रहती है। यह जंगल में होने के कारण अत्यंत मनोरम है। दूर-दूर से लोग यहां पिकनिक पर आते हैं।

दुआरी या बलबल दुआरी का झरना

बलबल दुआरी के नाम से प्रसिद्ध छात्र से 35 कि मी पूर्व में गिध्दौर कटक मसांडी मार्ग पर अवस्थित है, एक सुंदर पर्यटन स्थल है। जहां हजारीबाग से भी जाया जा सकता है। सड़क मोटर यात्रा योग्य है और यहां सीधे चतरा से भी पहुंचा जा सकता है। वर्षा ऋतु में यहां आना कठिन है, किंतु शीत काल तथा वनकाल में सुविधापूर्वक आनंद लिया जा सकता है। ग्राम दुआरी के पास बलबल नदी के किनारे गर्म पानी का सोत्ता है, जहां पानी बराबर मिलता रहता है। चर्म रोग के लिए यहां का पानी औषधीय गुण रखता है। जिस प्रकार चर्म से छुटकारा पाने के लिए लोग राजगीर आ जाते हैं, वैसे ही यहां भी लोग अधिक संख्या में आते हैं।

खोया बनारु

चतरा का सर्वाधिक सुंदर,आकर्षक एवं मनोरम पर्यटन स्थल हो या बनारू चतरा मुख्यालय से 10 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में स्थित है। जहां 8 किलोमीटर तक गाड़ी द्वारा जाया जा सकता है और शेष 2 किलोमीटर पैदल रास्ता है। जंगल घने और हरे हैं तथा यहां की हरीतमा मनोमुग्धकारी है।

केरीदह जलप्रपात

चतरा से 8 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में स्थित है केरीदह जलप्रपात भी एक आकर्षक एवं रमणीक स्थल है, जिस का कुछ भाग तो गाड़ी यात्रा की योग्य है और शेष पैदल जाने हो गया है। यह तीन चरणों में दोनों ओर से पहाड़ियों के बीच में है। यह जोन्हा जलप्रपात के समान है।

मलादूह जलप्रपात

चतरा से 8 किमी उपश्चिम में यह एक दूसरा आकर्षक स्थल है।  यहां पहुंचने के लिए 5 किलोमीटर तक गाड़ी द्वारा यात्रा की जा सकती है। और शेष 3 किलोमीटर पैदल चल नहीं हो गया है।  यहां पर लगभग 50 फीट की ऊंचाई से पानी गिरता है और दोनों ओर से पहाड़ी को बिना छुए बीच में गिरता है। यह अर्धवृताकार दीवार की तरह तराशा गया है जो यह स्मरण कराता है कि एक सौंदर्य की वस्तु हमेशा के लिए आनंददायक होती है।

तमासीन जलप्रपात

चतरा से 26 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में इटखोरी प्रखंड मुख्यालय से लगभग 15 किलोमीटर दूर तुलबुल पंचायत मुख्यालय से 3 किलोमीटर दूर तमागीन जलप्रपात प्रकृति की न्यारी, मनोहरी एवं सुरम्य घाटीयों के बीच एकबड़ा आकर्षक जलप्रपात है। यहां पहुंचने के लिए दुरहु मार्ग से पहाड़ी के बीच पूर्व मार्ग से पहाड़ी के नीचे उतरना पड़ता है। पहाड़ी के दूसरे छोर से लगभग 50 फीट की ऊंचाई से महाने नदी की कलकल द्वारा नीचे गिरती है। ग्राम कोल्हेया होकर यहां पहुंचा जा सकता है। यहां चट्टानों झुंड के झुंड बंदर उछलते कूदते देखे जा सकते हैं।

सामान्य स्थल से लगभग 100 फीट की गहराई में बड़ी-बड़ी चट्टानों से टकराता जलप्रपात अद्भुत मनोहरी दृश्य उपस्थित करता है। चहुंमुखी दिशाओं से हरे भरे पेड़ पौधों के मध्य स्थित इस जलप्रपात में बड़ी-बड़ी चट्टानों पर से होकर बहती जलधारा का कलकल निनाद यहां की प्रकृति के शोभा में चार चांद लगाता है।

राजा सूरथ की तपोभूमि

स्थानीय वयोवृद्ध पुजारियों एवं शोधकर्ताओं के अनुसार राजा सूरथ की तपोभूमि तपासीन का नदी का तट ही है। इस स्थान को राजा सूरथ की तपोभूमि बताने के पीछे यह एक तर्क नहीं है। पुराने पुराणों के अनुसार राजा सूरथ का नगर राज्य भद्रापुरी थी। अनुमान लगाया जाता है कि यही भद्रापुरी आज भदुली के नाम से प्रसिद्ध है। विदित हो कि बदली इटखोरी प्रखंड में ही अवस्थित है, जहां अति प्राचीन नगर सभ्यताओं के कई अवशेष भी प्राप्त हुए हैं।

तामसी देवी स्थल

आसपास के क्षेत्रों के शक्ति उपासक एवं धर्म अनुरागी भगतजन तामसीन में तामसी देवी का निवास मानते हैं। तामसी देवी का निवास स्थान माने जाने के कारण ही इस स्थान का नाम तानसीन पड़ा है। यहां पहाड़ी के नीचे एक लंबा चौड़ा विस्तृत मैदान है। मैदान में दो पहाड़ियों के मिलने से एक अति दुर्गम सुरंग नुमा गुफा बनी है और यही गुफा आसपास के साधनों के लिए तामसी देवी सत्य है और शक्तिपीठ के रूप में प्रतिष्ठित है।

महादेव पोखर

तुलबुल ग्राम पंचायत में एक और महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल है करमा गांव स्थित महादेव पोखर। इस स्थल पर भगवान शंकर की खंडित प्रतिमा तथा प्राचीन मंदिर के सैकड़ों भग्नावशेष है, जो यहां कभी वैभवशाली प्राचीन मंदिर होने का एहसास कराते हैं। पत्थरों के खंडित प्रतिमाओं को देखने के बाद अन्याय ही धर्म प्रेमी श्रद्धालु दिल मंदिर के इतिहास को ढूंढने लगते हैं। लोगों का कहना है कि मुगल शासन काल में किसी बादशाह ने इस वैभवशाली मंदिर का तहस नहस कर दिया था।

डूमेर सुमेर जलप्रपात

यह एक सुंदर मनोहरी पर्यटन स्थल है जो चतरा के उत्तर में 12 किमी की दूरी पर स्थित है, जहां 10 किमी तक मोटर द्वारा जाया जा सकता है, बाकी 2 किमी की दूरी को पैदल तय करना पड़ता है। सड़क कच्ची है और गर्मी तथा जाड़े के लिए उपयुक्त है। चारों ओर से यह पहाड़ियों से गिरा है और काफी ऊंचाई से पानी गिरता है जो एक रोमांचक दृश्य उपस्थित करता है।

गोवा जलप्रपात

चतरा से 6 किलोमीटर पश्चिम में मालूदह के मार्ग में यह भी एक मनमोहक पर्यटन स्थल है। 4*1/2  किमी तक जीपगाड़ी से जाया जा सकता है। शेष 1*1\2 किमी पैदल चलने का अलग ही आनंद है। रास्ते में संघरी नामक ग्राम से गुजरना पड़ता है।  यह जलप्रपात इन ओर से चट्टानों से घिरा है।

देवघर

देवघर एक शक्तिपीठ है जहां सती का हृदय गिरा था और अंतिम संस्कार भी देवघर में ही हुआ था। तभी से यह स्थान चिता भूमि भी कहलाने लगा है।

पुराणिक दृष्टि से विशेष महत्व होने के कारण द्वादश ज्योतिर्लिंग में नौवें ज्योतिर्लिंग के रूप में रावणेश्वर वैद्यनाथ जल अर्पण कर मोक्ष की कामना से हजारों लोग यहां आते रहते हैं। श्रावण के महीने में तो यहां लगभग 50 लाख तीर्थयात्री, लगभग 100 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर बाबा वैद्यनाथ को गंगाजल चढ़ाने आते हैं।

इसके अतिरिक्त प्रमुख पर्यटन स्थलों में है- नदन पर्वत, त्रिकुटाचंल पर्वत, तपोवन, नौलखा मंदिर, देव संघ मंदिर, हाथी पहाड़, सत्संग आश्रम, कुंडलीशवरी  मंदिर, रामाकृष्ण आश्रम, योगा आश्रम, हिंदी विद्यापीठ, आरोग्य भवन, जसीडीह, मधुबन, शहीद आश्रम, पगला बाबा आश्रम, पहाड़ कोठी, जालान पार्क, मित्रा गार्डन इत्यादि।

देवघर से 5 किलोमीटर दूर सातर ग्राम में महापात्र देवता की मूर्ति के रूप में पूजे जाने वाली नवीनतम मंदिर में स्थापित है 3*1\2 फीट ऊंची और 2 फीट की जोड़ी काले पत्थर की मूर्ति है। जिसके नीचे लिखी भाषा अब तक पढ़ी नहीं जा सकी है।

दुमका

दुमका जिले के शिकारीपाड़ा अंचल में सूड़ीचूआ पड़ाव से 4 किमी आगे मलूटी एक पठारी क्षेत्र का गांव है। वहां कभी 108 मंदिर और इतने ही तलाब थे, किंतु आज सिर्फ चित्र मंदिर और इतने ही तालाब बचे हैं। झारखंड में मलूटी सर्वाधिक मंदिरों वाला गांव है। गुप्तकाशी के रूप में कभी विख्यात है, मलूटी में इन मंदिरों का निर्माण राजा राठौर चंद्र के भाइयों और पुत्रों ने 1720 से 1845 के बीच कराया था। जिसकी न्यूनतम ऊंचाई 15 फीट और अधिकतम 60 फीट है। मंदिरों के इस गांव में एक स्थान पर मंदिर मस्जिद और गिरजाघर होने का भी सौभाग्य प्राप्त है। मलूटी गांव द्वारिका नदी के तट पर झारखंड और पश्चिम बंगाल की सीमा के निकट स्थित है। मलूटी गांव की एक विशेषता यह भी है कि यह पूरी तरह से शिक्षित गांव है।

दुमका से दक्षिण पूर्व में 30 किलोमीटर की दूरी पर सुंदर पहाड़ियों और अद्भुत प्राकृतिक घाटियों के बीच स्थित है मसानजोर है या मयूराक्षी बांध। इसकी दृश्यवाली अत्यंत ही मनोहारी और आकर्षक है। मयूराक्षी बांध के निकट एक छोटी पहाड़ी पर दो विश्राम गृह निर्मित है। इनमें से एक पश्चिम बंगाल और दूसरा झारखंड सरकार का है। इन विश्राम गृह में पर्यटक वहीं से मयूराक्षी डैम के दृश्यों का अवलोकन कर सकते हैं।

धनबाद

शहर से 52 किलोमीटर दूर मैथन बांध है, जो दामोदर घाटी परियोजना का सबसे बड़ा बांध है। यहां तीन ओर से पहाड़ियों से घिरा जलाशय है। बांध, बराकर नदी पर बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाया गया है। भूमिगत जल विद्युत केंद्र स्थापित किया गया है, जो दक्षिण पूर्व एशिया में अपनी तरह का पहला जलविद्युत केंद्र है। मैथान के जलाशय का क्षेत्रफल 65 वर्ग किलोमीटर है। इस झील में एक द्वीप पर एक विश्रामगृह बना है, जहाँ ठहरने और नाव से सैर करने और शौकिया मछली पकड़ने की सुविधाएं हैं।  पास में ही एक मृग उपवन और एक पक्षी विहार है।

धार्मिक स्थल

मंदिर

  • वेदनाथ धाम मंदिर देवघर
  • भद्रकाली मंदिर चतरा
  • जगन्नाथ मंदिर रांची
  • पहाड़ी मंदिर रांची

गुरुद्वारा

  • मेन रोड गुरुद्वारा रांची
  • हजारीबाग गुरुद्वारा हजारीबाग

कैथोलिक

  • कैथोलिक आश्रम डाल्टनगंज
  • सेट पेट्रिक चर्च गुमला
  • गिरजाघर बेपटिस्ट
  • सी एन आई चर्च रांची
  • सी एन आई चर्च चाईबासा

धनबाद से 37 किलोमीटर दूर तोपचांची झील है जो राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर से 2 से लगभग सटी हुई है। यह एक कृत्रिम में जलाशय है जिसके चारों और पहाड़ियां और वन है। पिकनिक मनाने, नाव से सैर करने के लिए तथा शांति से छुट्टियां बिताने के लिए अत्यंत सुंदर स्थान है। यह एक वन्य प्राणी अभ्यारण में भी है।

दामोदर घाटी परियोजना के अंतर्गत मैथन से 16 किलोमीटर दूर पहाड़ी के पास पंचेत बांध है। यह बाँध दामोदर घाटी परियोजना का सबसे लंबा बांध है, जिसकी लंबाई 6 किलोमीटर है। पिकनिक पर जाने के लिए यह उत्तम स्थल है। इसके समीप एक जल विद्युत केंद्र की स्थापना की गई है।

डांगी पहाड़

धनबाद शहर से गोविंदपुर जाने वाली सड़क से आगे बढ़ने पर, काफी इधर से एक ही सराय केला क्षेत्र से ही, एक पहाड़ दिखाई पड़ता है। जैसा यह गगनचुभी दिखाई पड़ता है, वैसा ही रेल की तरह लंबा भी है। इस पहाड़ का नाम डांगी पहाड़ है।

तेतूलिया

धनबाद जिले में दामोदर नदी के निकट तेतुलिया नामक गर्म जलधारा का झरना है।

पलामू

बेतला के व्याघ्र परियोजना झारखंड में अपने ढंग का अकेला, एक नेचर इंटरप्रेटेशन सेंटर स्थित है। यह वन्य प्राणी का संग्रहालय वन्य प्राणियों पर एक लाइब्रेरी और मीटिंग हाल की सुविधाओं से युक्त है। यह वन्य प्राणी के विद्यार्थियों और शोधकर्ताओं के लिए एक वरदान है।

चियाकि बेताल नेशनल पार्क के बगल में डाल्टनगंज-बेतला रोड से 3 किलोमीटर दूरी पर एक अत्यंत खूबसूरत पर्यटक स्थल है।

लोध जलप्रपात

महुआडांड प्रखंड मुख्यालय से लगभग 10 किलोमीटर है, उत्तर पश्चिम में ओरसपाट के निकट झारखंड का सबसे ऊंचा जलप्रपात माना जाता है। जिसमें तीनों ओर से पानी गिरता है। इसकी ऊंचाई 465 फीट है। यह बहुत ही सुखद एवं आकर्षक स्थल है।

मिरचइया जलप्रपात

गारू प्रखंड जलप्रपात मुख्यालय से करीब 3 किलोमीटर दूर स्थित मिरचइया जलप्रपात का अपना आकर्षण है। यह 100 फीट ऊंचे से गिरता है। इसका पानी डिस्टल वाटर की तरह साफ सुथरा और निर्मल रहता है। ईसाइयों के पर्व बड़ा दिन के अवसर पर पलामू वासी यहाँ पिकनिक मनाने आते हैं.

तापमापानी गर्म झरना

बरबाडीह रेलवे स्टेशन से 18 किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ी से यह झरना निकलता है  जिसका पानी राजगीर गरम करने की तरह गर्म है।

भईसाखुर नदी

डाल्टनगंज नगर से करीब 7 किलोमीटर दूर जमुने तथा राजावाडी 2 गांव है जिनकी सीमा से बाईसाखुर नदी निकलती है। इस नदी की विशेषता यह है कि ग्रीष्म काल ऋतु में इस नदी का पानी तक और शरद काल में इसका पानी गर्म रहता है। साल भर इस नदी के उद्गम स्थल से धरती के नीचे के स्रोत से प्रपात की तरह पानी फेंकता रहता है। इस नदी के तट पर ही एक मंदिर का निर्माण किया गया है। जिसमें अष्ट भुजा धारणी मां दुर्गा की एक अत्यंत आकर्षक प्रतिमा स्थापित है। इस केंद्र बिंदु बन गया है।

बालूमाथ चंदवा के बीच राज्य चतरा मार्ग पर नगर नामक स्थान में एक अति प्राचीन मां भगवती उग्रतारा का मंदिर है, जिसके निर्माण काल का पता नहीं चलता है। यह 1 शक्तिपीठ है। बालूमाथ से लगभग 25 किलोमीटर दूर प्रखंड के श्री समाज गांव के पास 30 या पहाड़ में चतुर्भुजी देवी की एक मूर्ति मिली है, जिसके पीछे अंकित लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।

आर्टिजन बेल

डाल्टेनगंज शहर से 15 किलोमीटर दूरी पर राजहरा कोयला खान के निकट सदा वह नदी के पूर्वी तट पर पुरवा गांव में 1940 में बंगाल कोल कंपनी द्वारा एक आर्टिजन वेल (सदाबहार कुआं) खोदा गया था।  उसी समय दर्शाए गए पांच गिरे वाले एक नलकूप के माध्यम से, पूरे वेग के साथ पानी आज तक स्वत बहता चला आ रहा है। गांव के लोग इसी नलकूप का पानी पीते हैं और भूमि संचित करते हैं।

गारु के पास सड़क पुल से कोयल नदी का मनोरम दृश्य तथा बड़े मॉड के पास सुबह जलप्रपात के नयनाभिराम प्राकृतिक सौंदर्य से पर्यटक है सहज ही समाहित हो जाते हैं।

पलामू का किला

औरंगा और कोयल नदी के संगम स्थल केचंगी पर स्थित है। इसका शिलान्यास राजा मानसिंह ने विस्तार राजा भगवंत राय ने और किले के सुदृढ़ीकरण राजा मेदिनी राय ने करवाया था।

कुंड जलप्रपात

जिले के हुसैनाबाद प्रखंड के घागरा गांव के निकट कोड नदी पर कुंड जलप्रपात है, जो 39 फिट (12 मीटर) की ऊंचाई से गिरता है। इस पर 5 मेगावाट का पन बिजली घर स्थापित करने की योजना बनी है।

नेतरहाट

समुद्र तल से 3800 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। डाल्टनगंज से  बेताल होते हुए मात्र 150 किलोमीटर दूर है। छोटा नागपुर की रानी के नाम से विख्यात यह स्थल अंग्रेजों ने बिहार के गवर्नर का समरसीट (ग्रीष्मवास) के रूप में विकसित किया था। यहां गर्मी के मौसम में भी एक लिया ओढ़ने की ठंडक रहती है। जोड़े में यहां का न्यूनतम तापमान 1c रहता है। 1954 में नेतरहाट आवासीय विद्यालय की स्थापना से इसकी ख्याति और अधिक बढ़ गई। नेतरहाट की मनोरम छटा प्रातः एवं शांति समय निहारने योग्य है। यहां का सूर्यास्त एवं सूर्योदय देखने के लिए सैलानी दूर-दूर से आते।

कांति जलप्रपात

लातेहार से पूर्व की ओर लगभग 23 किलोमीटर दूर अमझरिया घाटी में प्रकृति की गोद में छुपा कांति जलप्रपात आज भी कितने ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। पर्यटक भी पक्की सड़क छोड़कर 2 किलोमीटर दूर इस जलप्रपात को देखने के लिए बड़खा पथरीली सड़क से होकर यहां पहुंच जाते हैं।

ततहा नदी

लातेहार से 15 किलोमीटर पश्चिम उत्तर में जंगल और पहाड़ियों से घिरी ततहा नदी यह का अद्भुत दर्शनीय स्थल है।

नेतराड से 6 किलोमीटर की दूरी पर अपर घाघरी जलप्रपात और 10 किलोमीटर दूर लोहार घागरी जलप्रपात है। दारू और पहाड़ियों से गिरा दतरम का इलाका मनोरम है। समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 2987 फिट है।

पश्चिमी सिंहभूम

बेनी सागर

पश्चिम सिंहभूम के मंझगांव प्रखंड के अंतिम छोर पर उड़ीसा के मयूरभंज जिले की सीमा रेखा में अवस्थित बेनीसागर हिंदुओं के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से एक है। यहां प्राचीन काल की 32 छोटी बड़ी मूर्तियां साथ शिवलिंग दो बड़े पत्थरों में प्राचीन पाली और प्राकृत लिपि के शिलालेख मौजूद है, जो प्राचीन भारत की वास्तुकला एवं कलात्मक का उत्कृष्ट नमूना है।

यहां 7वीं शताब्दी के राजा विष्णु द्वारा निर्मित बेनीसागर 53 एकड़ में फैली ऐतिहासिक झील है, जिसमें पानीफल सिंघाड़ा की लता चारों तरफ दिखाई पड़ती है। इस दर्शनीय स्थल पर प्रत्येक वर्ष नवंबर में कार्तिक पूर्णिमा के दिन दर्शनार्थियों की भीड़ रहती है और मेला लगता है।

काली कोकिल संगम क्षेत्र

हावड़ा मुंबई मेल लाइन पर पश्चिम सिंहभूम के मनोहरपुर और पोषित स्टेशन के समीपवर्ती गांव समीज और पारलीपोस के मध्य है। काली और कोकिल नामक दो नदियों के संगम स्थल पर मकर सक्रांति पर मेला लगता है।

विश्व कल्याण आश्रम में, जिसकी स्थापना संगम स्थल पर 6 नवंबर 1970 को हुई थी। श्री संगमेश्वर महादेव, श्री सत्संग वट, वट गुरु मंदिर, श्री भागवतवट, श्री पवाड़ी मां स्थान, श्री झाड़ेश्वर महादेव, डेढ़ हजार वर्ष प्राचीन श्री भैरव नाथ महादेव, शिवलिंग, गौरी गुफा, शिव पर्वत, वायु वीरा भगवान, श्री अंजनी गहर तथा सोना गुफा, जहां से अंग्रेजों के समय में सोना निकाला जाता था आदि दर्शनीय स्थल है।

शिवरात्रि के बाद 9 दिनों तक यहां शिविर लगाया जाता है जिसमें धर्म जागरण, आयुर्वैदिक चिकित्सा शिविर तथा अनेक धार्मिक क्रियाकलापों का आयोजन होता है। इस दौरान देश में कोने-कोने से लोग आते हैं। शिव पोसेता रेलवे स्टेशन पर अभी एक्सप्रेस रेल गाड़ी रूकती है। यात्रियों की सुविधा के लिए स्टेशन से आश्रम तक की आन गमन साधन की व्यवस्था आश्रम द्वारा की जाती है। यहां पर अत्याधुनिक 70 शैया वाले अस्पताल का भी निर्माण किया गया है। जिसमें आयुर्वेदिक होम्योपैथिक तथा एलोपैथिक तीन पध्दतियों की चिकित्सा सुविधा है।

महादेशवाल मनोहरपुर और गोइलकेरा स्टेशन के बीच महादेश्वर स्टेशन पर भगवान शिव का एक ऐतिहासिक शिव मंदिर है। श्रावण महीने के चारों सोमवार और शिवरात्रि के अवसर पर मंदिर परिसर में ही एक ऐसा में ही एक अस्थाई टिकट काउंटर तथा मेला अवधि तक रविवार और सोमवार को गीतांजलि को छोड़ इस मार्ग से गुजरने वाली सभी सवारी एवं एक्सप्रेस ट्रेनों का ठहराव की व्यवस्था है।

मृगेश्वर महादेव

चाईबासा से 70 किलोमीटर दूर झारखंड और उड़ीसा की सीमा पर स्थित गंगेश्वर महादेव (मुर्गा महादेव) में झारखंड और उड़ीसा से श्रावण के महीने में लोग जल चढ़ाने जाते हैं। क्षेत्र के वाहन मालिक अपने नए वाहन की साथ पहली यात्रा मुर्गा महादेव की ही करते हैं। आसपास के लोग अपने बच्चों का मुंडन यहां करवाते हैं।

पूर्व सिंहभूमि

पूर्वी सिंहभूमि के मुख्यालय जमशेदपुर में भारत की प्रथम इस्पात फैक्ट्री की स्थापना 1960 में साक्षी में जमशेदजी टाटा द्वारा की गई थी। उनकी याद में साक्षी में जमशेदपुर के नाम से याद है। जमशेदजी टाटा के जन्म दिवस 8 मार्च को प्रतिवर्ष एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है जो देखने योग्य होता है।

जुबली पार्क 300 एकड़ में फैला जुबली पार्क भी दर्शनीय है जो कि मैसूर का वृंदावन गार्डन के अनुरूप बनाया गया है। जुबली पार्क में रात को विद्युत के प्रकाश में पवार ओं का बड़ा ही सुंदर दृश्य होता है। जमशेदपुर शहर से 13 किलोमीटर दूर स्थित डिमना झील भी देखने योग्य है। शहर से 41 किलोमीटर दूर 3060 फ़ीट ऊंची दलमा पहाड़ी पर ट्रैकिंग की जा सकती है।

सरायकेला में मुखौटा नृत्य अर्थात छऊ नृत्य किया जाता है जिसमें हास्य भाव की प्रधानता होती है।  यह नृत्य विश्व प्रसिद्ध है।

घाटशिला से दादागिरी तक 8 किलोमीटर का रास्ता प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है, जिनमें बुरुडीह डैम और विभूतिबाबू की कार्यशैली घाटशिला में स्थापित है विभूति संस्कृति परिषद उल्लेखनीय है।  जब सभा स्वास्थ्य प्रद है। गाड़ी के मौसम में यहां लोग हैं स्वास्थ्य लाभ कमाने आते हैं। यहां से 75 किलोमीटर दूर हैसादी नामक स्थान है, जहां हिरानी जलप्रपात देखने योग्य।

लोहरदगा

समुद्र तल से 2000 फीट से 3200 लोहरदगा के विभिन्न स्थलों की ऊंचाई है। रांची से 70 किलोमीटर दूर लोहरदगा की जलवायु काफी स्वास्थ्य करें। रांची से लोहरदगा की छोटी रेलवे लाइन को बड़ी रेलवे लाइन में परिवर्तित करने के काम की शुरुआत हो जाने के कारण अब पर्यटन उद्योग सहित सभी क्षेत्रों के विकास की संभावना बढ़ती नजर आ रही है।

हजारीबाग

रांची से 93 किलोमीटर दूर समुद्र तल से 2019 फिट (616 मीटर) की ऊंचाई पर हजारी बाग स्थित है। जो अपने नैसर्गिक सौंदर्य एवं उत्तम जलवायु के लिए प्रसिद्ध है एक अत्यंत लोकप्रिय हिल स्टेशन है। कुछ ही दूरी पर कन्हेरी पहाड़ और उसके शिखर से हजारीबाग नगर का सौंदर्य देखने के लिए 400 सीढ़ियाँ निर्मित है।

हजारीबाग से 12 किलोमीटर दूर टाइगर जलप्रपात 18 किलोमीटर दूर हरहद का जलप्रपात और बेहतर किलोमीटर दूर सूरजकुंड का गर्म झरना स्थित है।  सूरजकुंड देश का सबसे गर्म कुंड है जिस का तापमान 88 डिग्री सेल्सियस है। मुख्य कूड, सूरजकुंड, के बगल में ही 4 कुंड और हैं, जिन्हें क्रमश रामकुंड, सीता कुंड, लक्ष्मण कुंड का बरहा कुंड कहा जाता है।  इन सभी गुंडों का पानी या तो शीतल है या हल्का गर्म है। जबकि मुख्य कुंड से इन की दूरी मात्र 2 से 7 फीट तक है। सूर्य कुंड सूर्य ग्रहण के समय एकदम शीतल हो जाता है। उसी दिन कोई ब्राह्मण कुंड में उतरकर कुंड की सफाई करता है। स्कूल से कुछ ही दूरी पर अंबा जलप्रपात।

हजारीबाग से 8 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में ऊंचे ऊंचे पर्वतों और घने जंगलों के बीच नो रंगीन में बोकारो जलप्रपात है।

हजारीबाग नेशनल पार्क के एक छोर पर शहर से 15 किलोमीटर की दूरी पर साल पुरानी नामक एक अत्यंत खूबसूरत एवं प्रसिद्ध स्थल है।

बरसो पानी गुफा

हजारीबाग शहर से 25 किलोमीटर दूर बड़कागांव प्रखंड है। प्रखंड मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर गांव पंचायत के अंदर करते विस्तृत पहाड़ी की तलहटी पर 1 शब्दों में 20 वर्ग फीट की गुफा नुमा चट्टान है, जिसे स्थानीय लोगों द्वारा बरसो पानी कहा जाता है। इस चट्टान के संबंध में तथ्य यह है कि गुफा के भीतर जाकर बरसो पानी कहने पर पानी की वर्षा होने लगती है। चट्टान के सत्रों मा भाग में बोल स्पष्ट नजर आती है, जो सपोर्ट उच्चारण करने की ध्वनि कंपन के कारण बरस जाती है, पर पानी का स्रोत पूरे पहाड़ में कहीं दिखाई नहीं देता है।

साहिबगंज

साहिबगंज जिला मुख्यालय से 55 किलोमीटर दूर मां विंध्यवासिनी का अति प्राचीन मंदिर शक्तिपीठ है जास्ती का तीन बूंद रक्त गिरा था इसलिए इसे बिंदु धाम शक्तिपीठ कहते हैं।  हर वर्ष यहां चित्र मास में रामनवमी पर एक पखवारा तक भव्य मेला लगता है।

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