झारखंड की संस्कृति की यात्रा आस्ट्रिक, द्रविड़ और आर्य परिवारों की महानतम परंपरा का विकास है। कौसांबी ने लिखा है- भारत का यह अनोखा क्षेत्र एक ओर आदिम है, तो दूसरी और अत्याधुनिक भी। झारखंडी संस्कृति सामुदायिक चेतना का एक अत्यंत उत्कृष्ट और जीवंत नमूना है। झारखंडी संस्कृति के मूलसूत्र सामूहिकता, सामुदायिक चेतना ,स्त्री पुरुष समानता और सर्वानुमतिमूलक जनतंत्र है, आज भी गांव में पहाड़ के माध्यम से इन मूल्यों की रक्षा की जाती है।
यह पर्व त्योहारों के अवसर पर गाए जाने वाले गीत कथाएं हैं। इनका संबंध पौराणिक काल की घटनाओं, पात्रों इत्यादि से है। यह परंपरागत आदिवासी प्रकृति का एक अंग है, जो आज भी बोकारो के गांव में जीवित है।
सिनगी दई और कैली दई की स्मृति में प्रत्येक 12 वर्षों के अंतराल में उराव समाज में जनी शिकार का उत्सव मनाया जाता है। उराव महिलाएं पुरुष वेश में शिकार को निकालती है और जंगल कि राह धरती है। शिकार में वन पशु मारे जाते हैं, जो दुश्मन के प्रतीक माने जाते हैं।
वार्षिक शिकार के सामूहिक आयोजन को दलमा क्षेत्र में सेंदरा के नाम से जाना जाता है। पूर्वजों से शुरू हुई परंपरा का आज भी नियमित पालन हो रहा है। वास्तव में सेंदरा उस समय की परंपरा है जब जंगल में शिकार करना एक नियमित गतिविधि थी। सदियों पहले घने जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को ख़ूखार और आदमखोर जानवरों का सामना करना पड़ता था।
छऊ अर्थात छाया या मुखौटा के आधार पर इस शैली का नामकरण हुआ। कुछ लोग इसे छटा अथवा स्न्वाग से उत्पन्न शैली मानते हैं। इस नृत्य में सूक्ष्म हाव भाव तथा मुख मुद्राओं की गुंजाइश ( चेहरे ढके होने के कारण) कम रहती है, शरीर की उछलकूद अधिक देखने में आती है। इस नृत्य में ग्रीवा संचालन या अन्य अंगों की मदद से भाव प्रकट किए जाते।
झारखंड में मुर्गा लड़ाई को एक पुरातन संस्कृति धरोहर रूप दर्जा प्राप्त है और खेल मैं ग्रामीण क्षेत्र का शायद ही कोई ऐसा परिवार शेष बचा हो, जो इसमें रुचि ने लेता हो। अगहन समिति के आरंभ में होते ही यह संपूर्ण क्षेत्र में परंपरागत एवं मनोरंजक खेल आरंभ हो जाता है।
हडिया आदिवासियों की सार्वलौकिक प्रथा है। धार्मिक कृत्यों, सामाजिक त्यौहारों और अपने घर आने वाले अतिथियों का सत्कार में हड़िया पीना पिलाना अनिवार्य माना जाता है।
यह मंदिर नुमा घर जैसा होता है। टुसु कागज के रंग बिरंगे टुकड़े, बास के टुकड़े, मयूर पंख, फूल, गुड़िया वगैरह से बनाए जाते हैं।
गोदना का शाब्दिक अर्थ है गड़ाना या चुभना । गोदना का प्रचलन अत्यंत प्राचीन काल से है तथा झारखंड राज्य की जनजातियों में इसका विशेष प्रचलन है। शरीर के विभिन्न अंगों पर कराये जाने वाले इस चित्रांकन के विषय में यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि गोदना अनिवार्यत ग्रामीण क्षेत्र की कला है एवं जनजातीय में यह काफी लोकप्रिय है। जनजातियों में इसका धार्मिक महत्व भी है।
जादोपटिया का शाब्दिक अर्थ है योग पट्टिका का चित्रकला । जादोपटिया में एक कागज पर पुरातन ढंग से काली स्याही में आकृतियां उकेरी जाती है। संभवत ये पट्टिकाए किसी प्रकार के जादू टोने या अंधविश्वास का प्रतिनिधित्व करती है।
खोबर एक जनजातीय शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है गुफा के विवाहित जोड़े। संभवत है कोहबर शब्द इसी खोबर का अपभ्रंश है। कोहबर का महत्व मूल रूप से मध्य पाषाणकालीन है, जिसका सत्यापन प्रागैतिहासिक प्रस्तर कला के साथ-साथ जनजातीय परंपरा से होता है। हजारीबाग क्षेत्र में बनाए जाने वाले को कोहबर चित्रों का निर्माण पूर्ण रूप से महिला कलाकारों द्वारा ही किया जाता है। ये कोहबर चित्र वैसे तो घरों के बाहरी एवं भितरी दोनों दीवारों पर बनाए जाते, पर घरों के अंदरूनी भागों में बनाए जाने वाले अभिक्लप सर्वोत्तम एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
सोहराई चित्रण में प्राय विशालकाय घोड़ो जैसे पशुओं का चित्रण देखने को मिलता है। जो एक्स-रे विधि में चित्रित होता है। इसके अतिरिक्त विशालकाय पक्षियों, फूलों एवं वनस्पतियों के अधिक लाभ भी बहुतायत से दिखते हैं। रेखागणितीय रेखाओं द्वारा अलंकरण किया जाता है।
यह झारखंड राज्य का एक प्रमुख पर्व है, जो आदिवासी समुदाय में प्रचलित है तथा दीपावली के अवसर पर अर्थात कार्तिक अमावस्या को मनाया जाता है। इस पर्व के दौरान पालतू पशुओं की पूजा की जाती है ।
टुसू पर्व मकर सक्रांति के अवसर पर सिंहभूम जिले के आदिवासी विशेषकर महतो समुदाय के लोग बड़ी धूमधाम से सूर्य पूजा का यह पर्व मनाते हैं।
जय संथालियों का प्रसिद्ध पर्व है, जो मार्च महीने में 3 दिनों के लिए जमशेदपुर में मनाया जाता है।
यह आदिवासियों का प्रमुख त्योहार है। यह पूर्व कृषि कार्य प्रारंभ करने से पूर्व मनाया जाता है। इसमें सरना में पूजा की जाती है। सरना संखुए के कुंज को कहते हैं। पुरोहित पूजा करता है। इस पर्व के दिन दूर-दूर रहने वाले आदिवासी भी सरहुल के दिन अपने घर चले जाते हैं। लड़कियां भी ससुराल से अपने मायके आ जाती है। घरों को साफ सुथरा कर लीपा पोता जाता है। घरों की दीवारों पर रंग बिरंगे चित्र बनाकर उन्हें आकर्षक बनाया जाता है। यह पूर्व बड़े उत्साह से मनाया जाता है। दिनभर खाना पीना और नाचना गाना चलता रहता है।
यह संथालों का त्यौहार है,जो दीपावली के अवसर पर अर्थात कार्तिक अमावस्या को मनाया जाता है।
यह पर्व भी आदिवासियों का है। यह पर्व मुख्य उराव आदिवासी लोग भाद्रपद की शुकल पक्ष की एकादशी को बड़े उत्साह से मनाते हैं। कुछ गैर आदिवासी हिंदू भी इस पर्व को मनाते हैं। पूजा के दिन 24 घंटे का उपवास रखते हैं। पूजा के दिन 24 घंटे का उपवास रखते हैं। नृत्य के मैदान में करम वृक्ष की एक डाली गाड़ी जाती है और रात भर नृत्य और गीत का कार्यक्रम चलता है। गीत के माध्यम से कर्मा धर्मा की कहानी कहते हैं।
यह त्यौहार श्रावण माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस दिन बहनें अपने भाइयों को राखी बांधती है जिसका अर्थ भाइयों द्वारा बहनों की रक्षा का प्रण है। इस दिन खीर, सेवई, घेवर, लड्डू आदि खाते हैं। ब्राह्मण लोग भी अपने यजमानों के हाथों में राखी बांधते हैं। इसके अगले दिन अनेक स्थानों पर मेले आयोजित होते हैं।
यह ईसाइयों का सबसे बड़ा पर्व है। यह पर्व हर साल दिसंबर महीने की 25 तारीख को मनाया जाता है। इसी दिन ईसाइयों के महाप्रभु ईसा मसीह का जन्म हुआ था।
इस दिन प्रात काल सभी ईसाई लोग चर्च में जाकर सामूहिक प्रार्थना करते हैं। सभी नए परिधान पहनते हैं। संबंधियों, मित्रों आदि से मिलते हैं और उन्हें क्रिसमस की शुभकामनाएं देते हैं। कुछ लोग दूर रहने वाले मित्र व संबंधियों को क्रिसमस का बधाई संदेश भेजते हैं । बच्चों को उपहार देते हैं । इस दिन अच्छा खाना पीना होता है। यह पर्व ईसाइयों के लिए बड़ा ही खुशी का दिन होता है।
जैन धर्म के अंतिम प्रवर्तक एवं 24 वें तीर्थकर भगवान श्री महावीर की जन्मस्थली बिहार में है। भगवान महावीर का जन्म दिन चित्र शुक्ला त्रयोदशी पर बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर मंदिरों को सजाया जाता है तथा विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। जैन धर्म से संबंधित उपदेश होते हैं तथा भगवान के जीवन संबंधी प्रकरणों पर प्रकाश डाला जाता है।
माघ शुक्ल पंचमी को बसंत पंचमी के दिन झारखंड में सरस्वती की प्रतिमा बनाकर उसका पूजन कर विसर्जन किया जाता है।
वैशाख की पूर्णिमा को बुद्ध जयंती का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाया जाता है। कहा जाता है कि इसी दिन बिहार में बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध को केवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ था। बौद्ध बिहारों में विशेष सजावट और रोशनी की जाती है और भगवान बुद्ध के उपदेश दिए जाते हैं।
यह त्यौहार आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की दशमी को मनाया जाता है। यह त्यौहार अच्छाई की बुराई पर विजय का प्रतीक है। इस दिन श्रीराम ने रावण का वध किया था। अंत: नगरों में रामलीला की जाती है और रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण के पुतले जलाये जाते हैं। इसी दिन राजपूत लोग अपने शस्त्रों की पूजा भी करते हैं। एक दिन झारखंड में अनेक स्थानों पर देवी दुर्गा की पूजा की जाती है, क्योंकि इस दिन मां दुर्गा ने महिसासुर नामक राक्षस का वध किया था।
यह त्यौहार कार्तिक मास की अमावस्या को हिंदू समाज और जैन समाज में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस पर्व के आने से पर्व घरों दुकानों आदि की सफाई, पुताई और रंगाई होती है और उन्हें सजाया जाता है। जैन समाज के लोग यह पर्व भगवान श्री महावीर के निर्वाण दिवस में मनाते हैं और हिंदू लोग इसे भगवान श्रीराम की रावण पर विजय के उपरांत अयोध्या आगमन के रूप में मनाते हैं। वैश्य लोग इस दिन अपने बहीखाते बदलते हैं। इसको 2 दिन पूर्व धनतेरस होती है। इस दिन एक नया बर्तन खरीदकर लाया जाता है। दूसरे दिन छोटी दीपावली और उसके बाद अमावस्या को बड़ी पूजा ( मुख्य) दीपावली होती है। इस दिन रात्रि को दीपक जलाए जाते हैं और गणेश लक्ष्मी जी का पूजन किया जाता है। घरों में पकवान में मिठाई बनाते हैं। नए वस्त्र पहनते हैं खिलौने लाते हैं और बच्चे आतिशबाजी के पटाखे छुड़ते हैं। रात्रि भर दीपक जलाए जाते हैं। कुछ लोग इस दिन जुआ भी खेलते हैं जो बुरी प्रथा है।
दीपावली के अगले दिन कार्तिक शुक्ल प्रथमा को यह पर्व मनाया जाता है। इस दिन गोवर्धन की पूजा होती है। इस दिन मंदिरों में अन्नकूट की पूडी व सब्जी तैयार होती है, जो सबको प्रसाद के रूप में बांटी जाती है। इस दिन झारखंड के लोग तो पशु क्रीडा का भी आयोजन करते हैं।
यह पर्व प्रदेश भर में काफी धूम, भक्ति, श्रद्धा और पवित्रता के साथ मनाया जाता है। इस दिन सूर्य देवता की पूजा अर्चना की जाती है। यह पर्व 2 दिन चलता है। इस पर्व में षष्ठी की संध्या को अस्त होते हुए सूर्य को व अगले दिन सप्तमी की प्रातः उदय होते हुए सूर्य को अर्ध दिया जाता है। यह अर्ध किसी तालाब, झील या नदी के किनारे पर नारियल गेहूं और गुड़ से बने पकवानों सहित दिया जाता है।
ईद मुसलमानों का सबसे बड़ा पर्व है। रमजान के महीने में मुसलमान लोग 30 दिन रोजा रखते हैं। रोजा का अर्थ दिन भर का उपवास है। जिस दिन रमजान का महीना समाप्त होता है उस के दूसरे दिन ईद का पर्व मनाया जाता है।
ईद के दिन रंग बिरंगे हुए नए कपड़े पहने जाते हैं। बूढ़े बच्चे व युवक सभी ईदगाह जाकर नमाज अदा करते हैं। नमाज के उपरांत खुतबा (उपदेश) पढ़ा जाता है। खुतबा समाप्त होने पर सभी प्रेम से एक दूसरे के गले मिलते हैं। इस दिन सेवई व मिठाईयां खाई जाती है। अन्य धर्मों के लोग मुसलमान भाइयों को ईद की मुबारकबाद देते हैं।
मुहर्रम अरबी के पहले महीने का नाम है। इस दिन हजरत इमाम हुसैन उनके परिवार के अन्य सदस्य एवं अनुयायी शहीद हुए थे। इस दिन महत्वपूर्ण घटना की याद में मुहर्रम मनाया जाता है।
इस अवसर पर इमाम हुसैन को मनाने वाले अलम (पताका) ताजिया, जुलज़नाह, सपर आदि निकालते हैं और गरीबों को मुफ्त भोजन बांटा जाता है। यह महीना इस्लाम मानने वालों के लिएसच्चाई पर अपना सब कुछ लुटाने का प्रतीक है।
झारखंड राज्य में छोटे-बड़े अनेक मेले लगते हैं। यह मेले किसी पर्व या त्यौहार के अवसर पर तीर्थस्थानों में अक्सर लगते हैं, दुर्गा पूजा के अवसर पर राज्य के हर शहर में स्थान-स्थान पर यह मेले दृष्टिगोचर होते हैं। खिलौने व मिठाई बेचने हेतु अनेक विक्रेता एक स्थान पर जमा हो जाते हैं।
मेले में दुकान काफी सजी सजाई व आकर्षक होती है। विभिन्न प्रकार के खिलौनों की दुकान, मिठाई की दुकाने, घर के उपयोग में आने वाले सामानों की दुकानें सभी प्रकार की अच्छी तरह सजी होती है। मेलों में मनोरंजन के पर्याप्त साधन, जैसे- चर्खी, झूला, सर्कस, नौटकी,नाटक है, सिनेमा, जादू का खेल आदि जुटाकर लोगों का मन बहलाया जाता है। स्त्री पुरुष, बूढ़े बच्चे अच्छे-अच्छे कपड़े पहनकर सज धजकर बड़े उत्साह से मेला देखने जाते हैं।
जुलाई-अगस्त में देवघर में पूरे श्रावण महीने के प्रत्येक सोमवार को श्रद्धालु सुल्तानगंज से गंगा का पानी कावर में कंधों पर लेकर कांवरिया बैघनाथ धाम (देवघर) पैदल पहुंचते हैं और वहां शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं। इस यात्रा में सम्मिलित सभी व्यक्तियों को केवल बम कहकर पुकारते हैं। कुछ डाक बम भी होते हैं। जो बिना रुके 24 घंटे में वहां पहुंच जाते हैं।
हजारीबाग के नरसिंह नामक स्थान पर कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर प्रतिवर्ष मेला लगता है।
रांची जिले के भूर नदी के बीच जलधारा में 21 शिवलिंग है जिसे एकैसी महादेव के नाम से जाना जाता है। मकर सक्रांति के अवसर पर यहां भव्य मेले का आयोजन होता है।
हजारीबाग के सूरजकुंड नामक स्थान पर मकर सक्रांति के दिन 10 दिनों तक चलने वाला यह मेला लगता है। सूरजकुंड की विशेषता यह है कि भारत के सभी गर्म स्त्रोतों में इसका तापमान सर्वाधिक 88 डिग्री सेल्सियस है।
बोकारो में जेष्ठ मास की 1 तारीख को विशु मेला लगता है।
चाईबासा का तुर्की मेला, रांची का सरहुल मेला।
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