ऐसे जीव, जिन्हें नंगी आंखों के द्वारा देखना संभव न हो बल्कि सूक्ष्मदर्शी के द्वारा ही देखे जा सकें, सूक्ष्मजीव कहलाते हैं। मुख्यतः पांच प्रकार के होते हैं- जीवाणु, कवक या फफूंदी, प्रोटोजोआ, विषाणु या वायरस तथा शैवाल।
सूक्ष्म जीव हर स्थान पर पाए जाते हैं और हर प्रकार के पर्यावरण में रह सकते हैं, जैसे पानी, वायु, मिट्टी,उष्ण झरने, ठंडा जल, बर्फ, लवण अथवा गंध युक्त जल अथवा कार्बनिक पदार्थ है, रेतीली मिट्टी या फिर दलदली भूमि में। कुछ सूक्ष्म जीव हमारे शरीर के अंदर तथा गलते- सड़ते पदार्थों, यहां तक कि उबलते पानी में भी पाए जाते हैं।
जीवाणु अति सूक्ष्म जीव है। यह हर स्थान पर पाए जाते हैं। यह केवल एक कोशिका के बने होते हैं। इन्हें केवल सूक्ष्म दर्शी यंत्र द्वारा ही देखा जा सकता है। यह परजीवी या मृत जीव होते हैं। यह हमारे लिए लाभदायक भी होते हैं और हानिकारक भी। यह मनुष्य पौधों और जानवरों में बहुत से रोग फैलाते हैं तथा अनेक प्रकार से हमारी रक्षा करते हैं।
जीवाणु सर्वव्यापी है अर्थात यह सब जगह पाए जाते हैं। जीवाणु हवा, पानी, मिट्टी, बर्फ , शरीर के अंदर बाहर, मृत जीवों के शरीर, उबलते पानी, भूमि के अंदर 16 फुट गहराई तक है, मल- जल और गंधक के पानी के झरनों में भी पाए जाते हैं। शायद ही ऐसा स्थान हो जहां जीवाणु न पाए जाते हो। जीवाणु हमारे मुंह और आंतों में भी निवास करते हैं।
आकार के आधार पर जीव तीन प्रकार के होते हैं-
बैसिलस या दंडाकार जीवाणु- यह छड़ के आकार के होते हैं, जैसे लैक्टोबैसिलस, बैसिलस तथा स्यूडॉमोनास,।
सर्पाकार या सर्पीलाकार जीवाणु- यह घुमावदार होते हैं, जैसे विबरियों, ट्रीपोनीमा एवं कैम्फिलोबैकट्र आदी।
कोकस या गोलाकार जीवाणु- यह जीवाणु छोटे तथा बोल होते हैं, जैसे स्ट्रैप्टॉकोक्कस, सारसी ना तथा माइक्रोकोकस आदी।
शैवाल- यह पौधों के सदृश जीव है, जिनमें क्लोरोफिल पाया जाता है, इसलिए यह स्वपोषी होते हैं, क्योंकी यह प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। यह नमी वाले पृष्ठो पर उगते हैं। शैवाल एककोशि और बहूकोशी दोनों प्रकार के होते हैं। कुछ सवाल कई कई मीटर लंबे होते हैं।
शैवाल बर्फ, खारे पानी, उष्ण झरनों, नम मिट्टी, वृक्षों के छाल व चट्टानों की सतह पर पाए जाते हैं। यह अन्य जलीय जीवो के शरीर के अंदर सहजीवी के रूप में भी पाए जाते हैं। एककोशी शैवाल गोलाकार, छड़ाकार तथा शंकवाकार होते हैं। बहूकोशी शैवाल जटिल संरचना वाले होते हैं।
प्रोटोजोआ शब्द का अर्थ है- प्रथम जीव और ऐसा विश्वास किया जाता है कि प्रोटोजोआ वर्ग के जीव ही पृथ्वी पर सबसे पहले विकसित हुए हैं। अधिकतर प्रोटोजोआ का आकार 2 से 200 माइक्रोन तक होता है, जैसे अमीबा, ट्रिपनोसोमा, कोडोसिगा।
प्रोटोजोआ नम तथा गिले स्थानों, जैसे मिट्टी, समुद्र तथा लवण जल में पाए जाते हैं। कुछ ध्रुविय क्षेत्रों तथा ऊंचे पर्वतों पर भी पाए जाते हैं।
कवक सूक्ष्म जीव है। कवक एककोशि और बहूकोशी होते हैं। यह मृतोपजीव होते हैं। उनकी 80,000 जातियां पाई जाती है। कवक के 2 वर्ग होते हैं- खमीर, मोल्डस, उदाहरण- पेनिसिलियम, एसपराजिलस, राईजोपस।
ऐसी सरचनाएं जिनमें सजीव और निर्जीव दोनों के गुण विद्यमान होते हैं, विषाणु कहलाते हैं। सूक्ष्म जीव विषाणु की खोज संन 1888 में मेयर नामक वैज्ञानिक ने की थी। विषाणुओं में जीवद्रव्य पाया जाता है जबकि इनमें कौशिकीय संगठन का अभाव होता है। विषाणुओं का अध्ययन इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से संभव हुआ है।
विषाणु द्वारा उत्पन्न रोगों के नाम- जुकाम, इन्फ्लूएंजा, फ्लू, खसरा, चेचक, पोलियो, आंखों का लाल होना आदि।
जीवाणु | कवक |
जीवाणु लगभग सभी स्थानों पर पाए जाते हैं। | कवक अधिकतर नमी, उच्चतम ताप तथा छायादार या अंधेरे स्थानों पर पाए जाते हैं। |
जीवाणु परपोषी, स्वपोषी या सहपोशी हो सकते हैं। | कवक मृतपोजीव या परजीवी होते हैं। |
यह कई आकार के होते हैं। | यह पतले पतले धागों से बने जाल के आकार के होते हैं। |
जीवाणुओं में प्रजनन द्विविखंडन विधि से होता है। | कवकों में प्रजनन बीजाणुओं को अनुकूल परिस्थितियां मिलने पर होता है। |
जीवाणु | विषाणु |
यह जीवधारी होते हैं। | इनमें सजीव तथा निर्जीव दोनों के गुण पाए जाते हैं। |
इन की सरंचना कोशिकीय होती है। | विषाणु की संरचना कोशिकीय नहीं होती है। |
जीवाणु सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखे जा सकते। | इन्हें केवल इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी द्वारा ही देखा जा सकता। |
जीवाणुओं को जन्म उसी प्रकार के जीवाणुओं से होता है। | किसानों को निर्जीव पदार्थ से बनाया जा सकता है। |
जीवाणु लाभदायक और हानिकारक दोनों प्रकार के होते हैं। | विषाणु केवल हानिकारक होते हैं। |
ताजी दही जमाने के लिए थोड़े गरम (37C०) दूध में थोड़ी दही मिलाई जाती है। इस दही में लैक्टोबैसिलस, सटैफाइलोकस जीवाणु और कुछ खमीर पाई जाती है। लैक्टोबैसिलस जीवाणु दूध को दही में जमाने में सहायक होता है। यह एक अवायूजीवी जीवाणु है। यह ऐसे दूध में, जिसमें ऑक्सीजन बहुत कम मात्रा में हो, तीव्रता से वृद्धि करता है। इस क्रिया में यह दूध कोअवसीय पदार्थों का उपयोग करता है और अम्लीय पदार्थ भी बनाता है जिसके परिणाम स्वरुप दूध गाढ़ा हो कर दही के रूप में जमने लगता है।
किण्वन क्रिया खमीर (यीस्ट) नामक फफूंदी से होता है। इस क्रिया में खमीर शर्करा को एल्कोहल एवं कार्बन डाइऑक्साइड गैस में बदल देती है। इसी क्रिया द्वारा मीठे फल के रस, गन्ने के रस आदि से सिरका बनाया जाता है। डबल रोटी और एल्कोहल को बनाने में किण्वन क्रिया काम आती है। ।
प्रतिजैविक पदार्थों को डॉक्टर की सलाह अनुसार ही तय अवधि तक लेना उचित है। यदि इससे अधिक समय तक व प्रतिजैविको का उपयोग किया जाए तो भविष्य के लिए इनका प्रभाव समाप्त हो जाता है। साथ ही शरीर में उपस्थित है लाभकारी जीवाणु भी इनके अधिक उपयोग से नष्ट हो जाने के कारण है, इनकी उपयोगिता नकारात्मक हो जाती है।
प्रतिजैविक पदार्थ का वायरस पर कोई प्रभाव नहीं होता है। अतः सर्दी जुकाम या फ्लू जैसे रोग वायरसजनित होने के कारण प्रतिजैविकों से ठीक नहीं होते हैं।
विशिष्ट बीमारी के मंद स्ट्रेन के रोगाणुओं एंटीजनों से बना पदार्थ जो शरीर में विशेष बीमारी के प्रति रोग प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न करें, वैक्सीन कहलाता है। प्रत्येक बीमारी का वैक्सीन भिन्न होता है।
प्रभाव- वैक्सीन हमारे शरीर में प्रतिरक्षी की भूमिका निभाने के कारण रोग प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ा देते हैं जिससे शरीर में यह क्षमता कुछ समय के लिए बनी रहती है। इस अवधि में यदि किसी रोग के रोगाणु शरीर में प्रवेश करते हैं तो वहवैक्सीन से उत्पन्न प्रतिरक्षी रोगाणुओं से लड़ कर उन्हें नष्ट कर शरीर को स्वस्थ रखते हैं।
रोगों से बचने के लिए टीकाकरण किया जाता है। पोलियो से बचने के लिए पल्स पोलियो अभियान में पोलियो ड्रॉप्स देकर टीकाकरण किया जा रहा है जिससे पोलियो के रोगियों की संख्या काफी कम हो गई है। इसी प्रकार चेचक के विरुद्ध विश्वव्यापी अभियान से इसका समूल उन्मूलन संभव हुआ है। इसी आशय को सामने रखते हुए नवजात शिशुओं में टीकाकरण का अभियान राष्ट्रीय स्तर पर चलाया जा रहा है जिसके अच्छे परिणाम सामने आ रहे हैं।
इन पौधों की जड़ों पर गांठे पाई जाती है जिनमें राइजोबियम हुआ है एजेटोबेक्टर जीवाणु रहते हैं जो वायुमंडल की स्वतंत्र नाइट्रोजन को नाइट्रेट्स में बदल देते हैं। नाइट्रेट प्रोटीन में बदल जाती है। यही कारण है कि दालों में प्रोटीन अधिक मात्रा में पाया जाता है। नाइट्रेट्स भूमि की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाते हैं।
जब हम सुखी हुई पत्तियों और सूखे हुए पौधों को इकट्ठा करके मिट्टी में दबा देते हैं तो भूमि में उपस्थित जीवाणु इन वस्तुओं को सड़ा कर एक प्रकार का पदार्थ बना देते हैं। इस पदार्थ को ह्रामूस जीवांश कहते हैं। यह पौधों के लिए एक उत्तम खाद व पौष्टिक आहार का काम करती है।
अनेक जीव मृत अवस्था में हमारे पर्यावरण में मिलते रहते हैं जिनका अपघटन कर सूक्ष्म जीव का शुद्धिकरण करते रहते हैं। यदि ऐसा ना हो तो पृथ्वी पर जीवों का ढेर लग जाते। इसके साथ ही अन्य निम्नीकरण के पदार्थों का भी अपघटन कर उन्हें उपयोगी पदार्थ जीवांश में बदलने का काम सूक्ष्म जीव करते रहते हैं।
यदि जीवन में हो तो पृथ्वी पर जीवन की संभावना समाप्त हो जाएगी क्योंकि-
जो सूक्ष्म जीव रोगों को उत्पन्न करते है उन्हें रोगाणु या रोगजनक कहते हैं। इनसे जीवो में विभिन्न रोग होते हैं। रोगाणु हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधी क्षमता को हानि पहुंचा कर हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।
विषाणु के हानिकारक प्रभाव-
प्रोटोजोआ के हानिकारक प्रभाव-
जीवाणु के हानिकारक प्रभाव-
रोग वाहक- जो कीट या जंतु और रोग कारक सूक्ष्मजीवों को स्वस्थ व्यक्ति तक पहुंचाते हैं, उन्हें रोग वाहक कहते हैं। जैसे, घरेलू मक्खी, मच्छर ( मादा एनाफ्लीज व मादा एडिस) आदि।
मादा एनाफ्लिज – प्लैज्मोडियम में मनुष्य के खून में पाया जाने वाला एक परजीवी है। यह मलेरिया रोग पैदा करता है। मादा एनाफलीज मच्छर द्वारा मलेरिया के रोगी को काटने पर परजीवी उसके शरीर में प्रवेश करता है। एनाफलीज मच्छर सिर्फ मलेरिया परजीवी वाहक का काम करता है। यह उन्हें संक्रमित व्यक्ति के चूसे गए रक्त के साथ किसी स्वस्थ व्यक्ति में संचरित कर देता है।
मलेरिया का परजीवी प्लैज्मोडियम, मादा एनाफलीज़ मच्छर द्वारा रोगी व्यक्ति से स्वस्थ व्यक्ति तक पहुंचता है। अतः मच्छरो को बढ़ने से रोकने के उपाय किए जाने चाहिए- जैसे-
पादप रोग-
रासायनिक उपाय, नमक और चीनी का उपयोग, तेल व सिरके द्वारा, तापमान नियंत्रित करके, भंडार व पैकिंग द्वारा।
गर्मियों में जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ जाने के कारण इनकी संख्या बड़ी तेजी से बढ़ने लगती है। यह जीवाणु दूध के विभिन्न अवयवों को किण्वन क्रिया द्वारा कार्बनिक अमल में बदल देते हैं जिसके कारण दूध में खटास बढ़ने के कारण दूध खराब हो जाता है और गर्म करने पर फट जाता है। सर्दियों में ऐसा नहीं होता और दुध काफी समय तक सुरक्षित रहता है।
उपाय-
दूध का उपयोग करने से पहले उबालना इसलिए आवश्यक है ताकि दूध में पाए जाने वाले हानिकारक जीवाणु और अन्य सूक्ष्म जीव नष्ट हो जाए। अधिक गर्म करने या फिर अधिक ठंडा करने से सूक्ष्म जीवों में उपस्थित एंजाइम निष्क्रिय हो जाते हैं और वह खाद्य पदार्थ का संदूषण करके उसे नष्ट नहीं कर पाते। इसलिए उबला हुआ दूध पीने से स्वास्थ्य पर अच्छा ही प्रभाव पड़ता है।
दुध का पाश्चरीकरण करने के लिए दूध को 70 डिग्री सेल्सियस तक गर्म किया जाता है और इसी तापमान में 15 – 30 सेकंड तक रखा जाता है। दूध में उपस्थित सभी हानिकारक जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। इस क्रिया को पाश्चरीकरण कहते हैं। इस विधि से दूध को काफी समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।
प्रकृति (वायुमंडल) मैं लगभग 78% नाइट्रोजन पाई जाती है। इस नाइट्रोजन का पौधे सीधा उपयोग नहीं कर सकते। मिट्टी में स्थित है जीवाणु व नीले हरे शैवाल वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करके नाइट्रोजन योगिकों में बदल देते हैं जिसे पौधे मूलतंत्र द्वारा विलियन रूप में ग्रहण कर लेते हैं और इसका उपयोग प्रोटीन व अन्य योगिकों के संश्लेषण में करते हैं। जंतु इसी नाइट्रोजन का उपयोग प्रोटीन व अन्य यौगिकों के रूप में करते हैं।
प्रकृति में नाइट्रोजन चक्र इसका संतुलन बनाए रखने में सहायता करता है।
वैज्ञानिकों के नाम | वर्ष | योगदान |
रॉबर्ट हुक | 1665 | कॉर्क कोशिका, शुक्राणुओं तथा बैक्टीरिया को साधारण सूक्ष्मदर्शी की सहायता से देखा तथा उनको सूक्ष्म जंतुक नाम दिया। |
एडवर्ड जेनर | 1798 | चेचक के टीके की खोज। |
लुई पाश्चर | 1857 | किण्वन एक जैव रासायनिक प्रक्रम है। |
रॉबर्ट कोच | 1872 | टयूबरकल बैसिलस ही यक्षमा ( टी॰ बी॰)के लिए जिम्मेदार हैं। बीमारियों का रोगाणु सिद्धांत। |
रॉबर्ट कोच | 1876 | बेसिल्स एंथ्रेसिस नामक जीवाणु की खोज। |
अलेकजेंडर फ्लैमिंग | 1929 | पेनिसिलियम नोटाटम (एक प्रकार का कवर) से एंटीबायोटिक पेनिसिलिन का बनाना। |
नाइट्रोजन का जैविक स्थिरीकरण- मृदा से कुछ ऐसे सूक्ष्म नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणु होते हैं जो वायु में उपस्थित नाइट्रोजन को सीधे नाइट्रेट में बदल देते हैं। इसी प्रकार फलीदार पौधों की जड़ों में भी कुछ ऐसी ग्रंथियाँ होती है जिनमें नाइट्रोजन स्थिरीकारक जीवाणु प्रतीत होते हैं।
वायुमंडलीय नाइट्रोजन स्थिरीकरण- वायुमंडल में तडित विसर्जन के समय नाइट्रोजन और ऑक्सीजन मिलकर नाइट्रेट अमल बनाते हैं जिससे अतत नाइट्रेट बनाते हैं, जिसे वायुमंडल नाइट्रोजन स्थिरीकरण कहते हैं।
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