आज इस आर्टिकल में हम आपको उत्तर वैदिक काल से जुडी महत्वपूर्ण जानकारी के बारे में बताने जा रहे है, उत्तर वैदिक काल (1000 ई.पु,- 600 ई. पू.) की जानकारी के प्रमुख स्रोत तीन अन्य वैद (ऋग्वेद के अंतरिक्त) है- यजुर्वेद, सामवेद तथा अर्थवेद, उत्तर वैदिक आर्यों ने जिस विस्तृत क्षेत्र पर निवास किया, उसे आर्यव्रत की संज्ञा दी गई. चित्रित धूसर मृदभांड तथा लोहा इस काल की विशिष्टता है.
समाज में स्त्रियों की स्थिति में गिरावट उत्तर वैदिक काल में दर्ज की गई. महिलाएं अधिक स्वतंत्र नहीं की. उन्हें सभा की सभ्यता से आयोजित किया गया. उत्तर वैदिक ग्रंथ है मैं केवल तीन आश्रम ( ब्राह्मणचार्य, ग्रहस्थ तथा वानप्रस्थ) की जानकारी मिलती है. सर्वप्रथम जाबलोंपनिषद में चारों आश्रमों का वर्णन मिलता है. अर्थात इसमें सन्यास का विवरण मिलता है. गोत्र की अवधारणा पहली बार इसी काल में आई.
इस काल में आर्यों का मुख्य पेशा कृषि हो गया. इस साल की मुख्य फसल धान और गेहूं हो गई. संपत्ति पर एकाआधिकारिता की प्रवृत्ति उभरी, निशक, शतमान जैसे सिक्कों की चर्चा मिलती है. वर्णिक संघ – श्रेशिठं बली नामक कर जनता से वसूला जाता था.
बाट की मूलभूत इकाई संवत कृष्णल थी. रथ निर्माण, धनुष बनाने वाले तथा वस्त्र निर्माण से शासकों को राजकीय करो की प्राप्ति होने लगी. मिट्टी के एक विशेष प्रकार के बर्तन बनाए जाते थे जिन्हें चित्रित धूसर कहा जाता है,
महाजनपद काल के वंश और उनकी राजधानियाँ
यज्ञ तथा बली की पद्धति उत्तर वैदिक धर्म का मूल आधार बन गया. यज्ञ के साथ साथ कई अन्य अनुसंठानों का प्रचलन भी आरंभ हुआ, जिससे पुरोहित की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई. इस काल में इंद्र के स्थान पर प्रजापति सर्वाधिक महत्वपूर्ण देवता हो गए थे. विष्णु को मनुष्य जाति के दुखों का अंत करने वाला माना गया.
छठी शताब्दी ईसापूर्व धार्मिक आंदोलन की स्थापना मानी जाती है. इस समय यूनान में हेरोक्लिज, ईरान मे जोरास्टर, तथा भारत में जैन तथा बौद्ध धर्म अस्तित्व में आए. भारत में वैदिक धर्म की एक बलि प्रथा कर्मकांडों की प्रतिक्रिया में समता पर आधारित संप्रदायों का प्रभाव कायम हुआ.
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