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बिहार में मूर्तिकला

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बिहार में मूर्तिकला

बिहार की मूर्तिकला यहां के इतिहास का वर्णन करने वाली कला के रूप में देखी जाती है. दीदारगंज (पटना) से प्राप्त स्त्री मूर्ति, बुद्ध की ताम्रमूर्ति और मृण्मयी जी मूर्तियां यहां की मूर्ति कला का बेजोड़ नमूना प्रस्तुत करती है.

बुद्ध की ताम्रमूर्ति

75 फीट ऊंचाई वाली इस मूर्ति को गुप्त काल की एक श्रेष्ठ रचना माना जाता है. यहां भागलपुर के सुल्तानगंज से मिली थी और फिलहाल इंग्लैंड के बर्मिघम के एक संग्रहालय में रखी हुई है.

दीदारगंज से प्राप्त स्त्री मूर्ति

इसे मौर्य काल की श्रेष्ठ मूर्ति माना जाता है. 5 फीट ऊंचाई वाली है मूर्ति एक स्त्री (यक्षी) की है और इस पर विशेष प्रकार की चमक है. मूर्ति के दाहिने हाथ में चवंर है. इसकी केसराशि गुंथी हुई है तथा इसकी कलाई में चूड़ियां और गले में मुक्ताहार है. इस मूर्ति को पटना के दीदारगंज से प्राप्त किया गया है.

मृण्मयी मूर्तियां

गुप्तकालीन नारी सौंदर्य की प्रतीक इन मूर्तियों के निर्माण के दौरान शांति का उपयोग किया जाता था. बौद्ध और पौराणिक देवी देवताओं की मूर्तियों का सौंदर्य अप्रीतम माना जाता है.

प्राचीनकालीन मूर्तिकला

मौर्यकाल में मूर्तिकला काफी विकसित थी. मौर्यवंशी सम्राट अशोक द्वारा निर्मित अशोक संभोग के शीर्ष के ऊपर बने हुए पशुओं में मुख्यतः सिंह का उपयोग हुआ है, कि राम पूर्वा से प्राप्त सितम के शीर्ष पर सांड है. जहां सिंह की बनावट पर विदेशी कला के प्रभाव देखे जा सकते हैं, वहां सांड के बनाने के ढंग में स्थानीय कला का उन्मुक्त निखार परीलक्षित होता है.

पशुओं के उपर्युक्त आकार के अलावा मौर्यकालीन मूर्तिकला के अन्य और अधिक उत्कृष्ट नमूने भी देखे जा सकते हैं. उदाहरण के रूप में यक्षों की दो मूर्तियां हैं, जो पटना से प्राप्त हुई किंतु अभी कोलकाता के राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित है. ये मूर्तियां हल्के भूरे रंग के बालू के पत्थर की बनी है, परंतु इन की बनावट और आकार अन्य स्थानों से प्राप्त यक्षों की मूर्तियां के अनुरूप है और अधिकतर इतिहासकार इन्हें अज्ञात यक्षो की प्रतिमा ही मानते हैं.

पटना में लोहानीपुर मोहल्ला से पुरुषों के नग्न शरीर की दो मूर्तियां प्राप्त हुई है जो संभवत: जैन तीर्थकारों की प्रतिमाएं रही होगी. इनका निर्माण भी जैन शैली की कायोत्सर्गा मुद्रा में हुआ है. इनमें एक पर मौर्यकालीन पत्र की पॉलिश का उपयोग है, जिसके आधार पर इसे जैन कला के आरंभिक ऐतिहासिक नमूनों में माना जाता है.

मौर्यकालीन मूर्तिकला का अद्भुत नमूना पटना सिटी के दीदारगंज से प्राप्त एक स्त्री की मूर्ति है जिसे कभी दीदारगंज यक्षी और कभी स्त्रीरतन के नाम दिया जाता है. मटियाले भूरे रंग में बलुआ पत्थर से बनी यह मूर्ति सीधी खड़ी हुई मुद्रा में एक स्त्री को दर्शाती है. इसका एक हाथ ऊपर की ओर उठा जिसमें वह एक चौरी(चवर) को पकड़े हुए हैं (दूसरा हाथ टूटा हुआ है) मौर्यकालीन पॉलिश का इस पर भी गहरा प्रभाव पड़ा हुआ, अभी यह पटना संग्रहालय में सुरक्षित है.

शुंग और कुषाण काल में, कला का विकास जारी रहा, मगर इससे काल के नमूनों से मौर्यकालीन कलात्मक गुणवत्ता नहीं प्रकट होती और इनकी संख्या भी बहुत कम है. गुप्तकाल में पुन: वास्तुकला और मूर्तिकला का विकास बड़े पैमाने पर हुआ है. इसकी प्रेरणा सारनाथ के क्षेत्र में विकसित और मथुरा कला से प्रभावित शैल से प्राप्त हुई थी.

गुप्तकालीन मूर्तिकला के नमूने रोहतास, भोजपुरी, लाल, राजगीर, गया, वैशाली, सुलतानगंज पटना आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं. बौद्ध धर्म की तुलना में हिंदू धर्म का प्रभाव इनमें अधिक झलकता है. गुप्तकाल में कई मंदिरों का भी निर्माण हुआ है. नालंदा का विद्या केंद्र और इससे संबंधित कुछ अवशेष गुप्तकालीन स्थापत्य कला के सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं. यह परंपरा गुप्तोत्तर काल में भी बनी रही.

पाल युग में पत्थर और कांसे की मूर्तियां के निर्माण की एक उन्नत शैली का विकास बिहार में हुआ जिसका प्रसार बंगाल में भी देखा जा सकता है. जहाँ से प्रतिमाओं के निर्माण की इस शैली में निर्णायक देन धीमन और उसके पुत्र विठपाल की रही है. यह नालंदा के निवासी थे और 9वीं शताब्दी ई. के दो महान पाल शासकों धर्मपाल और नेपाल के समकालीन थे.

नालंदा में मंदिर स्थल संख्या 13 से प्राप्त अवशेष धातु को गलाने और उसे सांचों ढालने के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं. पालकालीन कांस्य से प्रतिमाएं सांचे में ही ढली, जिसके अनेक नमूने नालंदा और कुकरीहार (गया के समीप) से प्राप्त हुए हैं. नालंदा से प्राप्त नमूने मुख्यतः देवपाल के समय के जबकि कुर्किहार से प्राप्त मूर्तियां परवर्ती काल की है. दोनों की शैली वस्तुतः एक समान है. इनके अतिरिक्त फतेहपुर, अतिचक, आदि से भी ऐसी मूर्तियां, कांसे के बने हुए स्तूपों के नमूने और कुछ बर्तन भी पाए गए हैं.

इन मूर्तियों में अधिकतर बौद्ध धर्म से प्रभावित हैं. बुद्ध, बोधिस्तव, अवलोकितेश्वर, मंजूश्री, तारा, जमला, आदि को इन मूर्तियों में दर्शाया गया है. हिंदू धर्म के देवी-देवताओं में मुख्यतः विष्णु, बलराम, सूर्य, उमा महेश्वर और गणेश की मूर्तियां देखी जा सकती है.

पाली युग में पत्थर की मूर्तियां भी कलात्मक सुंदरता का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करती है. यह मूर्तियां काले बेसाल्ट पत्थर की बनी है, जो संथाल परगना (अब झारखंड में) और मुंगेर जिला की पहाड़ियों से प्राप्त किए गए हैं. इन मूर्तियों में भी मुख्यतः देवताओं का ही चित्रण किया गया है, दिन में प्रधानता बुद्ध मूर्तियों की है. इसके बाद विष्णु की मूर्तियां है.

शैव मत और जैन धर्म का प्रभाव बहुत सीमित रहा है, और इन से संबंध मूर्तियां यदा-कदा ही देखी जा सकती है. सभी मूर्तियां अत्यंत सुंदर है और कला की परिपक्वता को दर्शाती है. अलंकार की प्रधानता इन्हें भी आकर्षक बनाती है.

पाल युगीन अधिकांश मूर्तियों में गौतम बुद्ध के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं को दिखाया गया है जैसे उसका जन्म, ज्ञान की प्राप्ति, प्रथम धर्म उपदेश की प्रस्तुति, निर्वाण आदि. पाल काल में सुंदर और कलात्मक मृदभांड भी देखे जा सकते हैं. इनके कुछ उल्लेखनीय उदाहरण भागलपुर के समीप अन्तिचक विक्रमशिला महाविहार के अवशेषों से प्राप्त हुए हैं. ऐसी मूर्तियां दीवारों पर सजावट के लिए भी बनाई जाती है.

इन मूर्तियों में धार्मिक और सामान्य जीवन के दृश्य देखे जा सकते हैं. लोगों के रहन सहन, खान पान, वेश-भूषा, क्रिया-कलाप, क्रीडा एवं मनोरंजन, सुख दुख, रीति रिवाज और संस्कार आदि की झलक देखी जा सकती है. इन कलाकृतियों में धार्मिक प्रभाव स्पष्ट है. बुद्ध, बोधिसत्व, पराध की प्रस्तुति बौद्ध धर्म तथा विष्णु, आदि वाराहा, सूर्य और हनुमान की प्रस्तुति हिंदू धर्म के प्रभाव को स्पष्ट करती है.

इस युग की कलात्मकता का एक उत्कृष्ट उदाहरण एक तख्ती है, जिस पर एक स्त्री को बैठी हुई मुद्रा में दिखाया गया है. दाहिने पैर बाएं पैर पर रखा है, और शरीर झुका हुआ है. एक हाथ में आईना लिए वह अपने रूप को निहार रही है और दूसरे हाथ की उंगलियों से अपनी मांग में सिंदूर भर रही है.

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