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बिहार में वर्ग-संघर्ष, गरीबी-उन्मूलन एवं महिला सशक्तिकरण

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बिहार में वर्ग-संघर्ष, गरीबी-उन्मूलन एवं महिला सशक्तिकरण

बिहार का इतिहास देश में आये समाजिक ऐतिहासिक परिवर्तनों के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है. ब्रिटिश उपनिवेशवाद के जनको ने भारतीय समाज की तत्कालिक सामंतवादी कृषि व्यवस्था को बिना किसी विशेष परिवर्तन में अपना लिया था.

इस व्यवस्था में जमीन से जुड़े व्यक्तियों का विभिन्न वर्ग था, दो विभिन्न प्रकार से एक के ऊपर दूसरे के रूप में सवार था. इस प्रकार हल चलाने वाला किसान इस व्यवस्था की तह में था और उसे ऊपर से मौजूद सभी वर्गो- राजा, जमींदार, बटाईदार आदि के हित की रक्षा करनी होती थी. अपने व्यापारिक हितों के लिए इस व्यवस्था ने कृषि हितों की बलि चढ़ा दी और किसानों पर भू राजस्व का अस्रहा बोझ लाद दिया.

बिहार में वर्ग-संघर्ष

बिहार में साठ के दशक के बाद से दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा वर्ग संघर्ष की चिंगारी खेती से जुड़े किसानों, श्रमिक और उनका शोषण करने वालों के बीच अरसे से शोषण, विद्रोह है और दमन की बुनियाद रही है.

राज्य की ग्रामीण सरंचना में 1 वर्ग कृषि कार्य करता है तो दूसरी और उच्च तबके या रुतबे वाला वह सामंती वर्ग है जो श्रमिकों तथा छोटे किसानों की मेहनत का सारा मुनाफा ना केवल खुद खा जाता है बल्कि इस प्रयास में रहता है कि कैसे उनका अधिकाधिक शोषण कर अपना मुनाफा बढ़ाया जाए.

इस शोषण का सीधा शिकार बनता है खेतों में पसीना बहाने वाला श्रमिक और छोटे किसानों का वर्ग. इस प्रकार इन दोनों वर्गों के अपने-अपने हित जो एक दूसरे के खिलाफ जाते हैं और आप से कटूता तथा संघर्ष का वातावरण तैयार करते हैं.

बिहार में ग्रामीण परिवारों का लगभग 39% जमीन बटाई पर लगता है तथा कृषि उपज का आधा भाग बदले में प्राप्त करता है. बिहार के कृषि क्षेत्र में व्याप्त बटाईदारी वस्तुतः पारंपरिक सामंतवादी व्यवस्था का क्रियाशील स्वरूप है, जिसमें भूमि का मालिक बटाईदारों को भूमि के अलावा कृषि के अन्य खर्चों में कोई सा नहीं बाटता है.

बिहार के ग्रामीण परिवेश में पारंपरिक स्रोत से बांटा गया कर्ज (यानी गांव के महाजनों, जमीदार आदि के माध्यम से दिया गया कर) ग्रामीण जीवन की अर्थव्यवस्था पर सशक्त अंकुश लगाने का कार्य करता है. बिहार में आंशिक रूप से बंधुआ मजदूरी भी विद्यमान है. ग्रामीण बिहार में कृषि मजदूरों तथा अन्य सेवा प्रदान करने वाले वर्गों की मजदूरी की व्यवस्था पारंपरिक रूप से निर्धारित जजमानी व्यवस्था के तहत ही है,

बटाईदारी के तहत भू-स्वामी का निर्धारित हिस्सा, महाजन के सूद की दर, कृषि श्रमिकों की मजदूरी दर तथा मजदूरों को बांधने वाले बंधन इनमें से कोई वर्तमान कानूनी कसौटी वैध नहीं है. किंतु इसके बावजूद यह सारी व्यवस्थाएं ग्रामीण समाज में खुलेआम प्रचलित है.

महाजनों के कर्ज में बंधे हुए किसान जो पारंपरिक तकनीक से कृषि करते हैं खेत के बड़े हिस्से से भी अच्छी पैदावार निकालने में असमर्थ रहते हैं. यहां तक कि यह सुविधा के बाद भी ऐसे किसानों को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाती है.

साठ (1960) के दशक के बाद से ग्रामीण क्षेत्र के प्रति व्यक्ति आय में आई गिरावट, बरकरार रही. इस समय अभिजात्य वर्ग अपना पुराना वैभव कायम रखने के लिए शोषण के नए तरीके अख्तियार करने लगे, जिसमें पुराने रेट को जबरदस्ती जमीन से हटाकर नए लोगों को सलामी के एवज में वह जमीन दी जाने लगी.

परंतु अब श्रमिक तथा छोटे किसानों का भी भरपूर राजनीतिकरण हो चुका था तथा वे और शोषण को बर्दाश्त करने के हक में नहीं थे. अंतः साठ के दशक के अंतिम वर्षों में भूमि हड़प्पा अभियान की शुरुआत हुई तथा फसलों की जबरदस्ती कटाई एवं शोषण के खिलाफ सभा, बैठक आदि के नियमित दृश्य बनने लगे.

ग्रामीण अभिजात्य वर्ग ने भी लठैतों व पुलिस के माध्यम से जवाबी कार्रवाई शुरू की जिससे रक्तताप और हिंसा का सिलसिला चला. 1971 ई. में पूर्णिया जिले के रूपसपुर-चंदवा में एक ऐसा ही (नरसंहार) हुआ जिसने सभ्य समाज को दहला कर रख दिया. हालांकि इन संघर्षों में ऊपर से जातीय दंगों की बू आती थी, लेकिन मूल रूप से यह जमीन तथा उससे जुड़े शोषण की रक्त रंजित गाथा थी.

गरीब तबकों ने भी संगठित होकर आंदोलन शुरू किया, जिसका स्वरूप भोजपुर के सहार तथा संदेश प्रखंडों और मुजफ्फरपुर के मुसहरी प्रखंड में देखा गया. मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने 1970 में रोहतास जिले के नाथपुर में पहली राज्य स्तरीय बैठक का आयोजन किया.

वर्ग संघर्ष की चिंगारी दो रूपसपुर में शुरू हुई थी अब विकराल रुप लेकर धरमपुरा, बेलछी, पिपरा, विश्रामपुर, पारसबीघा और फिर दियारा आदि मे ज्वाला बनकर भड़कने लगी. 1977 ई. के बाद गरीब तबके की प्रतिहिंसा और बढ़ी तथा मई, 1982 तक राज्य के 14 जिलों, 87 प्रखंडों में यह आग पूरी तौर पर फ़ैल चुकी थी. भूपतियों ने इसके जवाब स्वरूप भूमि सेना, लोरिक सेना, कुंवर सेन आदि का गठन किया और दोनों पक्षों में क्रिया प्रतिक्रिया हुई.

बिहार में उग्रवाद

वर्तमान में बिहार के अनुवाद की समस्या मौजूद है. उग्रवाद की यह समस्या मुख्यतः गया, जहानाबाद, भोजपुर, नावदा, औरंगाबाद,पूर्णिया आदि जिलों में फैली हुई है. इसके अलावा कमोबेश राज्य के जिलों में भी गुरुवार की घटनाएं घटती रहती है. बिहार में सांप्रदायिक दंगों को छोड़कर दूसरे कारणों से उग्रवादियों द्वारा अनेक बार सामूहिक नरसंहार की घटनाएं घटी है.

राज्य में सबसे पहले अप्रैल, 1968 में मुजफ्फरपुर जिले में नरसंहार की घटना हुई जिसमें 6 लोग मारे गए और 16 लोग घायल हुए. उसके बाद 1971 में पूर्णिया जिले के और रूपसपुर गांव में भूपति यों ने 14 आदिवासियों को जिंदा जला दिया. पटना में 1979 में बेलछी हत्याकांड में 11 दलित के मारे गए.

बिहार में उग्रवाद के कारण

बिहार में उग्रवाद और नरसंहार के सर्वाधिक प्रमुख कारण भूमि संबंधित समस्याएं हैं. इसके अलावा गरीबी, सामंती प्रथा व जाति प्रथा तथा बेरोजगारी भी इसके महत्वपूर्ण कारण है. बिहार में गुरुवार को समाप्त करने हेतु पुलिस व्यवस्था को दुरुस्त करने के साथ ही गरीबी, और सामाजिक असमानता को दूर करने के अलावा मजदूरी और भूमि सुधार जैसे कार्यो पर ध्यान देना सबसे जरूरी है.

बिहार में नक्सलवाद/माओवाद

बिहार में नक्सलवाद की शुरुआत साठ के दशक में तब हुई जब बंगाल के नक्सलबाड़ी से चारु मजूमदार के नेतृत्व में आंदोलन आरंभ हुआ. इस आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र बिहार का भोजपुर बना.

मई 1967 में नक्सलबाड़ी में सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष शुरू हुआ था और इस खूनी संघर्ष ने 1969 में चारु मजूमदार के नेतृत्व में भूमिगत कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी, लेनिनवाद, अथवा CPI (ML) को जन्म दिया, जो आगे चलकर माओ त्से तुंग क्रांति की तर्ज पर एक शक्तिशाली अति उग्र कम्युनिस्ट आंदोलन (नक्सलबाड़ी आंदोलन) बना.

यह 1925 में गठित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI ) और इस से टूटकर 1964 में बनी (CPI ) (एम या मार्क्सवादी) जो इसे विचारधारा के तौर पर बिल्कुल अलग थी. इसी बीच भोजपुर के इकवारी गांव के शिक्षक मास्टर जगदीश और रामनरेश राम सामंतवादी जुल्म के खिलाफ उठे, चारु मजूमदार को वहां बुलाया और फिर क्रूर सामंतवाद के खिलाफ नक्सलवाद की बुनियाद रखी. बिहार एक अहम पड़ाव पर बन गया.

इस बीच 1 समकक्ष और अति उग्रवादी कम्युनिस्ट सेंटर (MCC) जो दक्षिण देश ग्रुप का अंग था, ने मध्य बिहार में अपने पांव दबाने शुरू कर दिए, जब एक और CPI (ML) ग्रुप इसी क्षेत्र में उभरा तो मूल CPI (ML) ने अपनी पार्टी का लिबरेशन के नाम से पहचान बनाई और समकक्ष CPI (ML) नए पत्रिका पार्टी यूनिट को अपने नाम से जुड़ा. अप्रैल 1980 में, CPI (ML) पीपुल्स वार ग्रुप (PWG) का उदय हुआ.

विनोद मिश्र के नेतृत्व में CPI (ML) लिबरेशन ने अपनी नई पहचान बनाई. अब इमरजेंसी के बाद 1970 में धीरे-धीरे वर्ग शत्रु की हत्या की राजनीति से हटकर भूमिहीन खेतिहर मजदूरों और गरीब किसानों की ओर से आवाज उठाने के लिए किसान सभा के माध्यम से संघर्ष तेज किया तथा सामंतवाद को कुचलने के लिए इसने कहीं-कहीं आर्थिक नाकेबंदी भी लगाई.

1982 में CPI (ML) लिबरेशन ने अपने राजनीतिक मंच इंडियन पीपुल्स  फ्रंट (IPF) और इसके माध्यम से लोकसभा और बिहार सभा में अच्छी-खासी जगह बना ली.

पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के अलावा बिहार झारखंड और माओवादियों के गढ़ बन गए हैं. बिहार के 38 में से 25 जिले और झारखंड के जिलों में से 18 जिले में मोआवाद से ग्रस्त हैं.  दिसंबर 1992 में CPI (ML) लिबरेशन मुख्यधारा में आकर एक मजबूत राजनीतिक दल के तौर पर उभरा हुआ आईपीएफ की जगह CPI (ML) ने ले ली.

जब झारखंड सरकार ने नक्सलियों के विरुद्ध मुहिम तेज की तो PWG और MCC  ने आपस में विलय करके PWG के आंध्र प्रदेश स्टेट सेक्रेट्री मुपल्ला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति के नेतृत्व में सितंबर 2004 में CPI का गठन कर दिया. इसके पहले कन्हाई चटर्जी के नेतृत्व वाली CPI (ML) पार्टी यूनिट का विलय अगस्त 1998 में PWG में हो चुका था,

इस तरह 3 शक्तिशाली ग्रुप, जिन के निशाने पर बिहार झारखंड हमेशा से है, एक होकर नई खूनी क्रांति में जुटे हैं. इन दोनों के छापामार संगठन पीपुल्स गोरिल्ला आर्मी (PGA) और पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (PLGA) ने भी आपस में विलय करके एक खतरनाक छापामार सेना बना ली. इनके पास अत्याधुनिक हथियारों का जखीरा है.

नक्सली घटनाओं में बिहार में 2001 से अगस्त, 2013 के बीच 1064 सामान्य लोग, 201 पुलिसकर्मी और पुलिस मुठभेड़ में अनेक माओवादी मारे गए.

बिहार में निजी-सेनाएं

सेना गठन वर्ष समर्थक वर्ग/ दल कार्य-क्षेत्र
लाल सेना 1974 भाकपा (माले)
लाल स्क्वायड 1973 पार्टी यूनिट
कुंवर सेना 1978-79 संपन्न राजपूत कृषक भोजपुर
भूमि सेना 1979 कुर्मी संपन्न की शॉपिंग पटना, नवादा, नालंदा, जहानाबाद, में सक्रिय थी.
लोरिक सेना 1983 यादव भू-पति पटना, जहानाबाद,  नालंदा में सक्रिय थी.
ब्रहाऋषि सेना  1984 भूमिहार  जमींदारों द्वारा समर्थित भोजपुर, औरंगाबाद, जहानाबाद में सक्रिय थी.
सनलाइट सेना 1989 रोहिल्ला पठान एवं राजपूतों भू-पतियों द्वारा समर्थित पलामू, गढ़वा, औरंगाबाद, गया में सक्रिय
रणवीर सेना 1994 संपन्न भूमिहार किसानों द्वारा समर्थित है भोजपुर, पटना, जहानाबाद, गया, रोहतास, औरंगाबाद में सक्रिय है.

 

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