आज इस आर्टिकल में हम आपको गुप्त वंश का इतिहास के बारे में बताने जा रहे रहे है.
वर्ग तथा वर्गमूल से जुडी जानकारी
भारत के प्रमुख झील, नदी, जलप्रपात और मिट्टी के बारे में जानकारी
भारतीय जल, वायु और रेल परिवहन के बारे में जानकारी
बौद्ध धर्म और महात्मा बुद्ध से जुडी जानकारी
विश्व में प्रथम से जुड़े सवाल और उनके जवाब
भारत में प्रथम से जुड़े सवाल और उनके जवाब
Important Question and Answer For Exam Preparation
गुप्त राजवंश की स्थापना महाराज गुप्त ने लगभग 275 ईसवी में की थी. महाराज गुप्त का वास्तविक नाम गुप्त या श्रीगुप्त था. गुप्त वंश का दूसरा शासक घटोत्कच हुआ, जो श्री गुप्त का पुत्र था.
प्रभावती गुप्त के पूजा तथा रिद्धपुर ताम्रपत्रों में उसे गुप्त वंश का प्रथम शासक बताया गया है. स्कंदगुप्त के सुपिया के लेख में गुप्तों की वंशावली घटोत्कच के समय से प्रारंभ होती है. परंतु गुप्त लेखों में इस वंश का प्रथम शासक श्री गुप्त को ही कहा गया है. हालांकि गुप्त वंश की स्थापना श्री गुप्त ने की थी, किंतु घटोत्कच के समय में सबसे पहले गुप्तों ने गंगा घाटी में राजनीतिक महत्व प्राप्त की. आरंभ महाराज गुप्त और घटोत्कच किसानों के सामंत और अत्यंत साधारण शासक थे, जिनका राज्य मगध के आस-पास ही सीमित था.
इन दोनों राज्यों ने 318-319 ईसवी के आसपास मगध पर शासन किया.
घटोत्कच के पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम अपने को स्वतंत्र शासक घोषित किया.उसका राज्य रोहन ने 319 ईस्वी में हुआ था. सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी. चंद्रगुप्त प्रथम के शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना उसका लिच्छवियों के साथ वैवाहिक संबंध कायम करना था. चंद्रगुप्त ने लिच्छवियों का सहयोग और समर्थन पाने के लिए उनकी राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह किया.
चंद्रगुप्त और कुमार देवी के विविध प्रकार के सिक्के गाजीपुर, टाडा, मथुरा, वाराणसी, अयोध्या, सीतापुर, बयाना से प्राप्त हुए हैं. इस काल के स्वर्ण और चांदी के काफी सिक्के मिले हैं. गुप्त वंश में सबसे पहले चंद्रगुप्त प्रथम में ही चांदी के सिक्के चलवाए
उसके विवाह के उपरांत महाराजाधिराज की उपाधि ग्रहण की तथा विवाह की समृद्धि में राजा रानी प्रकार के सिक्के का चलन करवाया. चंद्रगुप्त का साम्राज्य पूर्व से मगध से लेकर पश्चिम में प्रयाग तक था. वायुपुराण में मगध और साकेत पर चंद्रगुप्त द्वारा शासन करने का उल्लेख मिलता है.
राय चौधरी के अनुसार को शांति तथा कौशल के महाराजाओं को हराकर चंद्रगुप्त ने उनके राज्यों पर अपना प्रभुत्व कायम कर लिया था. चंद्रगुप्त ने गुप्त संवत का प्रारंभ किया. इसका प्रारंभ 320 ईस्वी में किया गया था.
चंद्रगुप्त प्रथम के बाद 325 ईसवी में उसका पुत्र समुद्रगुप्त परक्रमाक सिंहासन पर बैठा. समुद्रगुप्त का जन्म लिच्छवी राजकुमारी कुमार देवी के गर्भ से हुआ था. उस का शासनकाल राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है.
समुद्रगुप्त एक ऐसा दर्शनीय योग्यता वाला सम्राट और महान विजेता था. अपने विभिन्न विधाओं में समुद्रगुप्त ने भिन्न-भिन्न नीतियों का अनुसरण किया, जिससे उसकी कूटनीति एवं राजनीतिक सूझबूझ का परिचय मिलता है.
समुद्रगुप्त उच्च कोटि का विद्वान तथा विद्या का उद्धार संरक्षक भी था. उसे कविराज भी कहा गया है. वह महान संगीतज्ञ था. जिसे वीणा वादन का बहुत शौक था. उसके कुछ सीखो पर उसे वीणा बजाते हुए देखा गया है. उसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुबंधु को अपना मंत्री नियुक्त किया था.
समुद्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ सम्राट था जिसने वैदिक धर्म के अनुसार शासन किया. उसे धर्मोप्राचीर बंद है यानी धर्म का प्रचीर कहा गया है. उसके काल में ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान हुआ.
समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्य पर्वत तक तथा सूर्य में बंगाल की खाड़ी से पश्चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था. कश्मीर पश्चिम, पंजाब पश्चिम, राजपूताना सिंध. गुजरात को छोड़कर समस्त उत्तर भारत इस में सम्मिलित थे.
दक्षिणापथ के शासक तथा पश्चिमोत्तर भारत के विदेशी शक्तिया भी उसके अधीन थी. वस्तुतः समुद्रगुप्त ने अपने पिता से प्राप्त राज्य को एक विशाल साम्राज्य में परिणित कर दिया. समुद्रगुप्त के इस विशाल साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी.
समुद्रगुप्त के बाद राम गुप्त सम्राट बना या नहीं इस बात को लेकर विद्वानों में मतभेद है. सर्वप्रथम रामगुप्त के इतिहास का पुनर्निर्माण करने वाले विद्वान राखालदास बनर्जी थे, जिन्होंने एक व्याख्यानमाला के दौरान 1924 में रामगुप्त के शासनकाल को प्रमाणित करने का प्रयास किया.
विभिन्न साक्ष्यों से पता चलता है कि समुद्रगुप्त के दो पुत्र थे, रामगुप्त था चंद्रगुप्त. दोनों भाइयों में बड़ा होने के कारण रामगुप्त पिता की मृत्यु के बाद 375 ईसवी में गद्दी पर बैठा. परंतु वह निर्बल एवं कायर शासक था.
उसके काल में शको ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया जिसमें रामगुप्त पराजित हुआ और वह एक अत्यंत अपमानजनक संधि करने के लिए बाध्य हुआ. उसका छोटा भाई चंद्रगुप्त सबसे बड़ा वीर तथा स्वाभिमानी था. उसने अपने कुल की मर्यादा के विपरीत लगी. फलस्वरूप उसने छदम वेश में जाकर शकपति की हत्या कर दी. इस कार्य से उसकी लोकप्रियता बढ़ी है.
अवसर का लाभ उठाते हुए उसने बड़े भाई राम गुप्त की हत्या कर दी, उसकी पत्नी से विवाह कर लिया तथा मगध का शासक बन बैठा.
चंद्रगुप्त द्वितीय 375 ईसवी में शासन पर आसीन हुआ. वह समुन्द्रगुप्त की प्रधान दत्तदेवी से उत्पन्न हुआ था. वह गुप्त राजवंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली शासक बना.
देवी चंद्रगुप्तम और हर्षचरित में चंद्र गुप्त द्वितीय को शकारि(शकों पर विजय प्राप्त करने वाला) कहा गया है. 389 ईसवी में शकराज रूद्र पर विजय प्राप्त करने की खुशी में उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की.
विक्रमादित्य की प्रथम ज्ञात तिथि गुप्त संवत 61 अर्थात 380 ई. है, जो उसके मथुरा से प्राप्त होती है. यह लेख उसके शासन काल के 5वें वर्ष का है. उसने 375 से 415 ईसवी तक (कुल 40 वर्षों तक के) शासन किया.
चंद्रगुप्त द्वितीय के अन्य नाम देव, देव गुप्त, देवराज, देव श्री आदि थे. उसने विक्रमांक, परमभागवत आदि की उपाधियां भी धारण की. चंद्रगुप्त द्वितीय ने भी सबसे पहले वैवाहिक संबंधों द्वारा अपनी आंतरिक स्थिति को मजबूत किया. उसने अपने समय के तीन प्रमुख राजवंशों- नागवंश, वाकाटक वंश और कदंब राजवंश के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए.
चंद्रगुप्त द्वितीय ने नाग राजकुमारी कुबेर नाग के साथ विवाह किया. उससे एक कन्या उत्पन्न हुई जिसका नाम प्रभावती गुप्त था. वाकाटकों का सहयोग पाने के लिए चंद्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया.
390 रुद्रसेन का निधन हो जाने के कारण प्रभावती अपने दो पुत्रों दिवाकर सेन तथा दामोदर सेन की संरक्षिका बनी. प्रभावती गुप्त के सहयोग से चंद्रगुप्त गुजरात काठियावाड़ पर विजय प्राप्त की. वाकाटको और गुप्तों कि सम्मिलित शक्ति से शकों का अनमूल किया गया है. अपने विजय के उपलक्ष्य में चंद्रगुप्त द्वितीय ने काशी के नजदीक नगवा नामक स्थान पर अशवमेघ में करवाया.
कदंब राजवंश का शासन कुतल (कर्नाटक) में था. चंद्रगुप्त का पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कंदम वंश में हुआ. शृंगार तथा क्षेमेंद्र कृते औचित्य विचार चर्चा के अनुसार चंद्रगुप्त ने कालिदास को अपना दूत बनाकर कुंतल नरेश के दरबार में भेजा था.
चंद्रगुप्त द्वितीय स्वयं विद्यमान था. वह विद्वानों आश्रयदाता भी था. उसके काल में पाटलिपुत्र एवं पूजन विद्या के प्रमुख केंद्र थे. उसके दरबार में 9 विद्वानों की एक मंडली निवास करती थी, इसे नवरत्न कहा गया है. इनमें महाकवि कालिदास आदरणीय थे. कालिदास के अलावा विक्रमादित्य के नवरत्नओं में धनत्वरी, अमर सिंह, शंकु, नीमच एवं सबद का प्रकांड पंडित तथा एक कवि था. उज्जीयीनी में कवियों की परीक्षा लेने हेतु एक विदूतपरिषद, जिसने कालिदास, भारवि, हरिश्चंद्र, चंद्रगुप्त आदि कवियों की परीक्षा ली थी.
चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल की एक प्रमुख घटना चीनी यात्री फ्राहान का भारत आगमन भी है. 399 से 414 ईसवी तक उसने भारत के विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया. चंद्रगुप्त द्वितीय का काल ब्राह्मण धर्म के चर्मोत्कर्ष का काल रहा है. फ्राहान के विवरण से चंद्रगुप्त के शासनकाल में शांति, सुव्यवस्था, समृद्धि एवं सहिष्णुता आदि की संपर्क सूचनाएं प्राप्त होती है.
दिल्ली स्थित महरौली में कुतुब मीनार के पास एक लौह स्तंभ है, जिसमें चंद्र नामक किसी राजा की उपलब्धियों का वर्णन किया गया है. इस लेख की लिपि गुप्त काल की है.
शक राजा के समक्ष घुटने टेकने वाले राम गुप्त के दौर में चंद्रगुप्त द्वितीय ने कौशल एवं बाहुबल से शकपति की हत्या की और सम्राज्य को अपने अधिकार में कर लिया. पूर्वी परदेशों (बंगाल आदि) परिषद को द्वितीय के विषयों की भी पुष्टि महारैली स्तंभ लेख से होती है.
वह विष्णु का भगत था और उसकी प्रिय उपाधि परमभागवत की. संभवत महारैली का लोहा स्तंभ लेख चंद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात उसके पुत्र कुमारगुप्त प्रथम ने पिता की याद में उत्कीर्ण करवाया था.
चंद्रगुप्त द्वितीय के पश्चात 415 ईस्वी में उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर बैठा. वह चंद्रगुप्त द्वितीय की पत्नी धूर्वदेवी से उत्पन्न हुआ उसका सबसे बड़ा पुत्र था. कुमार गुप्त का गोविंद गुप्ता नामक एक छोटा भाई था जो कुमार गुप्त के समय बसाढ़ (वैशाली) का राज्यपाल था.
कुमार गुप्त प्रथम का शासन शांति व्यवस्था का काल था. उसके काल में गुप्त सम्राज्य उन्नति की पराकाष्ठा पर था. समुद्रगुप्त चंद्रगुप्त द्वितीय ने जिस विशाल साम्राज्य का निर्माण किया उसे कुमार गुप्ता ने संगठित एवं सूशोसित बनाए रखा. कुमार गुप्त ने अपने विशाल साम्राज्य, जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिमी अरब सागर तक विस्तृत था, की पूरी तरह रक्षा की. कुमार गुप्त ने 40 वर्षों तक शासन किया.
कुमारगुप्त प्रथम के निधन के बाद उसका सुयोग्य पुत्र स्कंदगुप्त ‘क्रमादित्य’ 455 ईसवी में सिहासन पर बैठा. जूनागढ़ अभिलेख में उसके शासन की प्रथम तिथि गुप्त संवत 136 यानी 455 ईसवी अंकित है. जिससे यह स्पष्ट होता है कि उसने 12 वर्षों तक शासन किया.
स्कंदगुप्त एक महान विजेता एवं कुशल प्रशासक था तथा कुमारगुप्त के पुत्रों में सर्वाधिक योग्य एवं बुद्धिमान था. कुछ विद्वानों का मत है कि कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुरुगुप्त गुप्तवंश का सम्राट बना किंतु स्कंदगुप्त ने उसकी हत्या करके राजगद्दी पर अधिकार कर लिया.
स्कंदगुप्त के प्रारंभिक वर्ष अशांति व कठिनाइयों से भरे हुए थे, किंतु तलवार के बल पर उसने तत्कालीन परिस्थितियों से निपटकर अपना मार्ग प्रशस्त किया. स्कंदगुप्त ने हुणों को बुरी तरह से प्रास्त किया तथा उन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया. स्कंदगुप्त से पराजित हुण गांधार तथा अफगानिस्तान में बस गए, जहां वे ईरान के स्थानीय राजाओं के साथ संघर्ष में उलझ गए.
484 ईसवी में ससानी नरेश फिरोज की मृत्यु के बाद हुण पुन: भारत की ओर बढ़े. स्कंदगुप्त ने हूणों को 464 ईसवी के पूर्व ही पराजित किया था, क्योंकि इसके बाद के अभिलेखों में सदैव शांति कायम रहने की बातों का उल्लेख है.
उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में सौराष्ट्र तक के प्रदेशों पर शासन करने वाला स्कंदगुप्त गुप्त साम्राज्य का अंतिम महान सम्राट था.
स्कंदगुप्त एक अत्यंत लोकोपकारी शासक था जिसे अपने प्रजा के सुख दुख की निरंतर चिंता बनी रहती थी. जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि स्कंदगुप्त के शासनकाल में भारी वर्षा के कारण ऐतिहासिक सुदर्शन झील का बांध टूट गया. इस कष्ट के निर्वानारथ सुराष्ट्र प्रान्त के राज्यपाल पर्णदत के पुत्र चक्रपालीत, जो गिरनार नगर का नगरपति था, ने 2 माह के भीतर ही झील के बांध का पुनर्निर्माण करवा दिया. यह बांध को 100 हाथ लंबा तथा 68 हाथ चौड़ा था.
सुदर्शन झील का निर्माण प्रथम मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के समय सौराष्ट्र प्रांत के राज्यपाल पुष्यमित्र वैश्य ने पश्चिम भारत में सिंचाई की सुविधा के लिए करवाया था.
पहली बार शक महाक्षत्रप रुद्रदामन (130- 150 ई.) के समय यह बांध टूट गया, जिसका पुनर्निर्माण उसने अपने राज्यपाल सुविशाख के निर्देशन में करवाया था. स्कंदगुप्त भी एक धर्मनिष्ठ वैष्णव था तथा उसकी उपाधि परम भागवत थी. उसने भित्तरी में भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित करवाया था.
स्कंदगुप्त धार्मिक मामलों में पूर्णरूपेण उदार एवं सहिष्णु था. उसने अपने साम्राज्य में अन्य धर्मों को विकसित होने का भी अवसर दिया. 467 ईस्वी में उसका निधन हो गया. उसके बाद गुप्त साम्राज्य का पतन प्रारंभ हो गया.
बिहार के गौरव का पुनरोद्धार गुप्त वंश के अधीन चौथी शताब्दी ईसवी में हुआ. 320 ईसवी में चंद्रगुप्त ने पाटलिपुत्र में महाराजाधिराज की उपाधि धारण की. उसी ने गुप्त संवत का भी इस समय प्रचलन प्रारंभ किया. चंद्रगुप्त की मृत्यु के बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त मगध का शासक बना. वह एक महान विजेता था जिसने गुप्त साम्राज्य का विस्तार लगभग समस्त उपमहाद्वीप में किया. उसके विभिन्न अभियानों की चर्चा हरिश्चंद्र द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति में मिलती है.
उसके उत्तराधिकारी चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने सौराष्ट्र और पश्चिमी मालवा के क्षेत्रों को जीतकर गुप्त साम्राज्य में मिलाया. चंद्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल गुप्त साम्राज्य के चर्मोक्तर्ष का काल रहा. गुप्त साम्राज्य के काल को विधा, कला और सांस्कृतिक जीवन में उत्कृष्ट उपलब्धियां का काल माना जाता है.
राजनीतिक शांति और सुदृढ़ता, आर्थिक समृद्धि और सांस्कृतिक विकास के कारण गुप्त काल को प्राचीन भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग भी कहा जाता है. इस काल के विख्यात विद्वानों में वराह मिहिर, आर्यभट्ट और ब्रा गुप्त अत्यधिक महत्वपूर्ण है. गणित, खगोल शास्त्र और दर्शन के क्षेत्र में इनकी देर अवसिमर्निय है.
गुप्तकाल में ही नालंदा महाविहार की स्थापना हुई. इसका संस्थापक कुमारगुप्त था. कालांतर में यह विद्या का प्रमुख केंद्र बना जहां बड़ी संख्या में विदेशी विद्यार्थी भी विद्योपार्जन हेतु आते थे. गुप्त काल में संस्कृत भाषा की अत्याधिक प्रगति हुई. हिंदू धर्म में भगवंत परंपरा का उल्लेखनीय विकास हुआ और हिंदू धर्म का जो वर्तमान रूप में हम देखते हैं, वह इसी काल में विकसित हुआ.
कला के क्षेत्र में, बिहार के संदर्भ में, इस काल की महत्वपूर्ण उपलब्धियों में बोधगया का महाबोधि मंदिर और नालदा महाविहार के अवशेष महत्वपूर्ण है.
सकंदगुप्त को कोई संतान नहीं थी. अंतः स्नकंगुप्त की मृत्यु के बाद सिंहासन पर पुरुगुप्त बैठा. पुरुगुप्त कुमार गुप्ता पुत्र तथा स्कंदगुप्त का सौतेला भाई था. वृद्धावस्था में से आसन पर बैठने के कारण व शासन सुचारु रुप से नहीं चला पाया और सम्राज्य पतनोन्मुख हो गया.
पूरुगुप्त बोध मत को मानता था.
पुरुगुप्त का उत्तराधिकारी कुमार गुप्त द्वितीय हुआ. सारनाथ लेख्ने कुमार गुप्त द्वितीय के संदर्भ में गुप्त संवत 154 यानी 473 अंकित है.
कुमार गुप्त द्वितीय के बाद बुद्ध गुप्त शासक बना. नागदा से प्राप्त मुहर के अनुसार बुद्ध गुप्त पुरुगुप्त का पुत्र था. उसकी माता का नाम चन्द्र देवी था. बुद्ध गुप्त के शासन काल की प्रथम तिथि सारनाथ लेख में गुप्त वंश 157 यानि 477 ईसवी है.
बुद्ध गुप्त ने 477 ई. में शासन प्रारंभ किया तथाराजू तो मुद्राओं पर अंकित तिथि 485 ईस्वी तक शासन किया. स्कंद गुप्त के उत्तराधिकारियों में बुधगुप्त सबसे शक्तिशाली शासक था, जिसने एक बड़े प्रदेश पर शासन किया. वह आखरी गुप्त सम्राट था जिसने हिमालय से लेकर मालदा तक और मालवा से लेकर बंगाल के भू भाग पर प्रशासन किया.
बुद्ध गुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त शासक बना. इस काल में सम्राज्य तीन भागों- मगध, मालवा, और बंगाल में बंट गया. मगध नरसिंह गुप्त, मालवा क्षेत्र भानुगुप्त तथा बंगाल के क्षेत्र में वेन्युगुप्त ने अपना स्वतंत्र शासन स्थापित किया.
नरसिंह गुप्त इन तीनों शासकों में शक्तिशाली था. उसने मगध साम्राज्य के केंद्रीय भाग में अपना अधिकार सुदृढ़ कर लिया था. नरसिंह गुप्त की सबसे बड़ी सफलता हूणों को पराजित करना था. कुरुर तथा अत्याचारी हूणों राजा मिहिर कुल, जितने मगध पर आक्रमण किया था, को पराजित करके नरसिंह गुप्त की सेना ने बंदी बना लिया. किंतु अपनी माता के आग्रह पर नरसिंह गुप्त ने मिहिरकुल को मुक्त कर दिया. इसे मूर्खतापूर्ण कार्य कहा गया.
जनश्रुतियों के अनुसार मिहिरकुल अत्याचारी, मूर्तिभंजक और बौद्धों का हत्यारा था, परंतु वह एक कट्टर शैव भी था जिसने महेश्वर मंदिर की स्थापना की थी. नरसिंह गुप्त की धनुर्धारी प्रकार की मुद्राएं मिलती है.
नागदा मुद्रा लेख में नरसिंहगुप्त को परम भागवत कहा गया है. उसने बौद्ध धर्म अपना लेने के बावजूद पूर्वजों की तरह परम भागवत की उपाधि धारण की थी.
नरसिंह गुप्त के बाद उसका पुत्र कुमार गुप्त मगध के सिंहासन पर बैठा. भित्तरी तथा नागदा के मुद्रा लेखों में उसकी माता का नाम महादेवी मित्र देवी मिलता है. कुमार गुप्त तृतीय गुप्त वंश का अंतिम शासक बना था. इसके संदर्भ में ताम्रपत्र में गुप्त संवत 224 यानी 543 ई. अंकित है.
विष्णु गुप्त कुमार गुप्ता का पुत्र था. नागदा से प्राप्त मुद्रा लेख में विष्णु गुप्त का उल्लेख है. उसने 550 ईसवी तक मगध पर शासन किया. इसके बाद छिन्न भिन्न हो गया था.
गुप्त साम्राज्य का पतन 467 ईसवी में स्कंदगुप्त के निधन के बाद से ही प्रारंभ हो गया था, क्योंकि स्कंदगुप्त के उतराधिकारियों में कोई भी महात्वाकांक्षी, पराक्रमी, योग्य व कुशल साबित नहीं हुए. बल्कि वे अपने पूर्वजों की भांति वैष्णव वह परम भागवत की जगह बोधमतानुयाई. तथा हिंसा के उपासक थे, जो दान पुण्य में लिपीत हो गए.
इस कारण से राज्य की रक्षा और विस्तार करने में असमर्थ साबित हुए. परिणामत: 550 ईस्वी में विष्णुगुप्त के निधन के साथ ही मगध में स्थापित गुप्त राजवंश का शासन समाप्त हो गया.
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