विभिन्न प्रकार के कार्बोहाइड्रेट्स, विभिन्न प्रकार के प्रोटीन, विभिन्न प्रकार के वसा, विभिन्न प्रकार के न्यूकिल्क अम्ल, विभिन्न प्रकार के खनिज, विभिन्न प्रकार के जल आदि।
निम्नलिखित प्रक्रिया जो जीवन को बनाए रखने के लिए आवश्यक है-
पोषण, वहन/संवहन/स्थानांतरण, उत्सर्जन,श्वसन, जनन आदि।
पोषण
भोजन का अंत: ग्रहण तथा शरीर के द्वारा उसका वृद्धि, विकास व रखरखाव में उपयोग करना पोषण कहलाता है। पोषण प्रमुख रूप से निम्नलिखित दो प्रकार का होता है-
स्वपोषी पोषण
जिस पोषण प्रक्रम में हरे पौधे अकार्बनिक पदार्थ का संश्लेषण कर योगिक बनाते हैं, स्वपोषी पोषण कहलाता है। प्राय: सभी हरे पौधे स्वपोषी होते हैं।
विषमपोषी पोषण
जिस पोषण में जीव भोजन का स्वयं संश्लेषण न कर अन्य जीवों (पौधों) पर निर्भर करता है, विषमपोषी पोषण कहलाता है। प्राय: सभी जंतु विषमपोषी होते हैं।
मृत पजीव पोषण
मृत या गले सड़े कार्बनिक पदार्थों से प्राप्त पोषण मृतोपजीवी पोषण कहलाता है। फंफूद (कवक) जीवाणु का खमीर में पोषण की यही विधि है।
परजीवी पोषण
जो पोषण अन्य जीवो से ग्रहण किया जाए, परजीवी पोषण कहलाता है। अमरबेल, फीताकृमि, खटमल में परजीवी पोषण पाया जाता है।
प्राणीसम पोषण
जिस पोषण विधि में भोजन का अंत ग्रहण कर, अपचित भोजन को शरीर के विकास, वृद्धि व रखरखाव के उपयोग में किया जाए, प्राणीसम पोषण कहलाता है। मुख्य रूप से तीन प्रकार का होता है-
शाकाहारी पोषण- भोजन के रुप में पादप उत्पाद का ही उपयोग किया जाता है, भेड़, बकरी, गाय, हिरण में शाकाहारी पोषण पाया जाता है।
मांसाहारी पोषण- जब भोजन में केवल मांस का ही उपयोग हो मांसाहारी पोषण कहलाता है. शेर, चीता, बाज में मांसाहारी पोषण पाया जाता है।
सर्वाहारी पोषण- जिस पोषण में पादप उत्पाद और जंतु उत्पादों का उपयोग हो, सर्वाहारी पोषण कहलाता है। मनुष्य, कोआ, में इसी प्रकार का पोषण पाया जाता है।
नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन।
प्रकाश- प्रकाश संश्लेषण की दर प्रकार की निम्न तीव्रता पर तो बढ़ती है और तीव्रता के ऊंच होने पर घटती है।
जल- जल के अभाव में प्रकाश संश्लेषण की दर कम होती है।
CO2 गैस- एक निश्चित स्तर तक तो CO2 की सांद्रता बढ़ने से प्रकाश संश्लेषण की दर बढ़ती है परंतु इसके उपरांत है CO2 की सांद्रता का कोई प्रभाव प्रक्रिया पर नहीं होता।
बाह्रा परजीवी- जो जीव दूसरे जीव के शरीर के बाहर रहकर भोजन ग्रहण करते हैं। बाह्रा परजीवी कहलाते हैं,। जैसे- चिचड़ , जूं आदि।
अंत: परजीवी- जो जीव अन्य जीव के शरीर के अंदर आकर भोजन ग्रहण करते हैं, अंत: फीता, क्रीमी, गोल कृमि।
छोटी आत के अतिरिक्त दीवारों से निकलता है। इसमें 5 एंजाइम होते हैं-
पेप्टीडेज- यह पेप्टाइड को अमीनो अम्ल में बदल देता है।
आंत्र लाइपेस- यह बस आप को उसे अम्ल और ग्लिसराल में बदल देता है।
सुक्रोज़- यह सुक्रोज को ग्लूकोज में बदल देता है।
माल्टोज- यह माल्टोज को ग्लूकोज में बदल देता।
लेक्टोज- यह भी लेक्टोज को ग्लूकोज में बदल देता है।
कार्बोहाइड्रेट्स | ग्लूकोज |
वसा | वसीय अमल,ग्लिसरोल |
प्रोटीन | अमीनों अम्ल |
न्यूक्लिक अम्ल | न्यूक्लियोसाइड, न्यूक्लियोटाइड |
सभी जीवो में- प्रोटिस्ट ,शैवाल, कवक, पौधे, जंतु तथा मनुष्य में श्वसन की प्रक्रिया समान ही है। श्वसन के लिए कच्ची सामग्री है- ग्लूकोज तथा ऑक्सीजन। बृहत रूप से श्वसन की प्रक्रिया दो चरणों में संपन्न होती है।
ग्लाइकोलिसिस- कोशिका द्रव्य में ग्लूकोज पायरुवेट में परिवर्तित होता है। इस प्रक्रिया के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता नहीं होती। प्रत्येक ग्लूकोस अणु के अपघटन से दो पायरुवेट के अणु बनते हैं।
क्रेब चक्र- पायरुवेट अणु इसके पश्चात माइटोकॉन्ड्रिया में प्रवेश पाते हैं। जहां पर उनका पूर्ण ऑक्सीकरण कार्बन डाई ऑक्साइड तथा जल में होता है। इस प्रक्रिया में बहुत अधिक मात्रा में ऊर्जा उत्सर्जित होती है। इस ऊर्जा का उपयोग एटीपी के संश्लेषण में होता है। ग्लूकोज के एक अणु के पूर्ण ऑक्सीकरण से 38 एटीपी अणु संश्लेषित होते हैं।
मनुष्य में श्वसन के अंग में एक जोड़ा फुफ्फुस है जो वक्ष गुहा में स्थित होते हैं। फुफ्फुस गुब्बारे की तरह लचीले व स्पंज के प्रकार के होते हैं। इनमें प्रचुर रक्त संचार होता है ताकि गैसों का विनिमय शीघ्र हो सके।
फुफ्फुस के साथ साथ श्वसन तंत्र में नासा द्वार, नासिका गुहा, श्वास नली एवं श्वसनी होती है। श्वसनी फुफ्फुस श्वसनिकाओं में बंटी होती है जिनके अंत में गुब्बारे जैसे संरचनाएं होती है जिन्हें कुंपिकाएँ कहते हैं।
श्वास लेना | श्वसन |
यह एक भौतिक क्रिया है। | यह एक जैव रासायनिक क्रिया है। |
इस क्रिया में उर्जा उत्पन्न नहीं होती है। | यह ऊर्जा उत्पन्न करने वाला प्रक्रम है। |
यह कोशिकाओं के बाहर संपन्न होने वाली क्रिया है। | यह कोशिकाओं के अंदर होने वाला प्रक्रम है। |
इसमें किसी प्रकार के एंजाइमों की आवश्यकता नहीं होती है। | इस प्रक्रिया में एंजाइमों की आवश्यकता पड़ती है। |
निश्वसन | नि:श्वसन |
इसमें O2 युक्त वायु फेफड़ों में प्रवेश करती है। | इसमें CO2 युक्त वायु फेफड़ों से बाहर निकलती है। |
यह प्रक्रिया वक्ष गुहा के आयतन बढ़ जाने पर वायु का दबाव कम होने से होती है। | यह प्रक्रिया वक्ष गुहा के सामान्य आकार ग्रहण करने व फुफ्फुस पर दबाव बढ़ाने के कारण होती है। |
इस चरण में पसलियां बाहर और आगे की ओर खिसकती है। | इसमें पसलियां भीतर और पीछे की ओर खिसकती है |
कठिन व्यायाम करने से शरीर में ऊर्जा की आवश्यकता बढ़ती जाती है। इसकी गति आपूर्ति के लिए कोशिकाओं में भोजन के ऑक्सीकरण की दर तेज हो जाती है। भोजन के ऑक्सीकरण के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है जिसे श्वसन के द्वारा पूरा किया जाता है। सामान्य अवस्था में मनुष्य की श्वास दर 15 से 18 प्रति मिनट होती है लेकिन कठिन व्यायाम करने से इसकी दर बढ़कर बीस से पच्चीस प्रति मिनट हो जाती है। बढ़ती श्वसन कि दर, ऑक्सीजन की आपूर्ति करती है।
प्रकाश संश्लेषण | श्वसन क्रिया |
यह क्रिया केवल हरे पौधे में होती है। | यह क्रिया सभी जीवो में होती है। |
इस क्रिया के दौरान हरे पौधे सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में जल तथा कार्बन डाइऑक्साइड गैस से शर्करा (भोजन) का निर्माण करते हैं। | इस क्रिया के दौरान शर्करा आदि का ऑक्सीकरण होता है। |
इस क्रिया के लिए सूर्य के प्रकाश का होना आवश्यक है। अंत यह क्रिया केवल दिन के समय ही होती है। | यह क्रिया दिन रात लगातार होती रहती है। |
इस क्रिया के अंत में शर्करा तथा ऑक्सीजन गैस उत्पन्न होती है। | इस क्रिया के अंत में कार्बन डाइऑक्साइड गैस, जलवाष्प तथा ऊर्जा उत्पन्न होती है। |
यह एक उपचय क्रिया है। | यह एक अपचय क्रिया है। |
इस क्रिया में कार्बन डाइऑक्साइड गैस खर्च होती है। | श्वसन में कार्बन डाइऑक्साइड गैस उत्पन्न होती है। |
धमनी | शिरा |
रक्त वाहिकाएँ जो रक्त को हृदय से शरीर के विभिन्न भागों से लेकर जाती है, धमनी कहलाती है। | रक्त वाहिकाएं जो शरीर के सभी भागों से रक्त एकत्रित करके हृदय तक लेकर आती है। |
यह सामान्यत: ऑक्सीजनित रक्त को लेकर जाती है। | यह सामान्यत: विऑक्सीजनित रक्त को लेकर जाती है। |
इनमें रक्त दाब के साथ रहता है। | इनमें रक्त दाब के साथ नहीं बहता। |
इनकी भित्तियां मोटी, पेशीय तथा लचीली होती है। | इनकी भित्तियां पतली होती है, लेकिन अधिक लचीली नहीं होती है। |
वाहिनीकाएँ- जाइलम वाहिनीकाएँ लंबी नली की आकृति की मृत कोशिकाएं होती है जो सिर से पतली होती है। उनमें अनेक प्रकार की भिती, अस्तर मोटाइयाँ तथा छिद्र होते हैं।
वाहिकाएँ- वाहिकाएँ केवल एजीन्योस्पर्म में पाई जाती है। वह लंबी नली काय होती है जो एक दूसरे के ऊपर सिरे पर रखी होती है। उनके बीच की भित्ति छिद्रत युक्त याद घुल जाती है।
जाइलम मृदु उत्तक- यह सजीव मृत्यु तक कोशिकाएं होती है जो जाइलम में विद्यमान है।
जाइलम तंतु- यह वाहिनी से भी लंबी नलिकाएं होती है तथा इनके अंदर का अवकाश कम/तंग होता है।
चालनी नलिका, सहायक कोशिकाएं, फ्लोएम मृदु उत्तक, फ्लोएम तंतु\ रेशा।
चालानी नलिका, नली की आकृति की कोशिकाएं होती है जिनके सिरे पर छिद्र युक्त छलनी की तरह की संरचना होती है। यह वे सरचनाएं (तत्व) हैं जिनमें से होकर पोषक पदार्थों का संवहनन होता है।
सहायक कोशिकाएं सजीव मृदू उत्तक कोशिकाएं होती है। वह हमेशा ही चालनी कोशिकाओं के साथ स्थित होती है।
फ्लोएम मृदु उत्तक– यह भी सजीव कोशिकाएं होती है। यह लंबी होती है तथा इनके सिरे गोल होते हैं।
फ़्लोयम रेशे – यह अधिकतर लंबे तथा अधिकतर द्वितीय फ्लोएम में विद्यमान होते हैं।
लसीका एक तरल संयोजी उत्तक है जो अंत क्रोशिकीय स्थानो/अवकाश में भरा होता है। इसे अंत क्रोशिकीय द्रव भी कहते हैं।
इसमें प्लेजमा, कुछ प्रोटीन तथा रक्त कणिकाएं जिन्हे लसीकाणु कहते हैं, होती है। यह रंग हिन द्रव्य है जिसमें बहुत कम प्रोटीन होते हैं।
कार्य-
पौधों की जड़ों द्वारा पानी का अवशोषण- जैसा कि पौधों की जड़ें मृदा के संपर्क में होती है, व मृदा से आयन ले लेती है। आयनों का ग्रहण करना सक्रिय भी हो सकता है जिसमें ऊर्जा खर्च होती है। इससे जड़ों व मृदा के बीच आयनों की सांद्रता में अंतर आ जाता है। इस अंतर को समाप्त करने के लिए मृदा से पानी पौधे की जड़ों में प्रवेश कर जाता है तथा जड़ के जाइलम उत्तक में लगातार प्रवेश करता जाता है।
रुधिर का जमना एक जटिल प्रक्रिया है, जिसके लिए अनेक कारकों की आवश्यकता होती है। रुधिर जमने की प्रक्रिया के विभिन्न चरणों का वर्णन नीचे दिया गया है-
जब रक्त किसी चोट युक्त रुधिर वाहिका से बाहर आता है, तो प्लेटलेट्स एक पदार्थ स्त्रावित्त करती है, जिसे थ्रांबोप्लास्टिन कहते हैं. कैल्शियम व थर्मोप्लास्टिक की उपस्थिति में रक्त में उपस्थित प्रोथ्रोंबिन थ्रोम्बिन में परिवर्तित हो जाता है। इसके पश्चात थ्रोम्बिन फाइब्रिनोजन जो रक्त प्लाज्मा में उपस्थित होता है, को फाइब्रिन में उतप्रेरित करता है। फाइब्रिन अंतिम उत्पाद है जो एक जाल-सा बनाता है जिसमें लाल रुधिर कणिकाएं फंस जाती है तथा रुधिर का थक्का बनाती है।
मूत्र बनने का मूल उद्देश्य रक्त से व्यर्थ पदार्थों को छानकर अलग करना है। वृक्क नाइट्रोजन युक्त पदार्थ, जैसे यूरिया तथा यूरिक अम्ल को अलग कर देते हैं। वृक्क की कार्यात्मक इकाई वृक्काणु है। यह रक्त को छानती है तथा उसमें से जल, खनिज, कुछ ग्लूकोस तथा अमीनो अम्लों को निकाल लेती है। ग्लूकोस, अमीनो अम्ल तथा खनिज जैसे पदार्थों को दोबारा अवशोषित कर लिया जाता है। मूत्र में जल की मात्रा को भी नियंत्रित किया जाता है। अंत: वृक्क प्रसारण नियमन अंगों के रूप में कार्य करते हैं।
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