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साम्यवादी दल, सैन्यवादी राष्ट्रवादी और संयुक्त प्रांत
भारत में सन 1917 से सन 1921 के मध्य काल कम्युनिस्ट आंदोलन की तैयारी का समय था. सन 1917 कि सोवियत क्रांति तथा मानवेंद्र नाथ राय, रवींद्र नाथ मुखर्जी, वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय व भूपेंद्रनाथ दत्त के प्रयासों से भारत में साम्यवादी दल की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो गया था. बील्शेविज्म के प्रचार में कानपुर के प्रताप तथा पप्पू नामक अखबार जोर-शोर से लगे थे. कानपुर में एक पत्रकार सत्य भगत ने सितंबर 1924 में यहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की. इस दल ने यह घोषणा की कि इसका कोई भी संबंध के साथ तथा विदेशों में सक्रियक्रांतिकारी दलों से नहीं है. दिसंबर 1925 में कानपुर में इस दल का पहला सम्मेलन हुआ, जिसकी अध्यक्षता पीरियर ने की. कामिनतर्न के साथ संबंधों के प्रश्न पर पार्टी के दूसरे अधिवेशन तक इसमें पर्याप्त है मतभेद उत्पन्न हो चुके थे, सत्य भक्त ने कोलकाता के किस अधिवेशन में यह घोषणा की कि पार्टी अपना राष्ट्रीय चरित्र बनाए रखेगी, परंतु प्रतिनिधियों का बहुमत किसके विरुद्ध था. फल स्वरूप सत्या भगत ने त्यागपत्र देकर राष्ट्रीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कर दी. इसके विपरीत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपना लक्ष्य क्रांतिकारी संगठन की स्थापना तथा साम्राज्य विरोधी नीति को बनाया.
संयुक्त प्रांत में गांधी का आंदोलन प्रारंभ होने से पूर्व लखनऊ तथा लखनऊ के आसपास के जिलों में किसानों के बीच एक जनदोलन चल रहा. था. किसान मदारी पासी एक आंदोलन नामक है इस जनादोलन का नेतृत्व कर रहे थे. यह आंदोलन लखनऊ, मलिहाबाद, हरदोई, उन्नाव, फतेहपुर तथा फर्रुखाबाद तक फैला हुआ था. किसानों के बीच संप्रदायिक एकता बनाए रखना तथा एकजुट होकर जमींदारों के शोषण का विरोध करना इस आंदोलन का मुख्य उद्देश था. कृषकों को अपनी बैठक में निमंत्रित करने के लिए इस आंदोलन से जुड़े मुखिया सुपारी का उपयोग करते थे. मदारी पासी इन बैठकों को संबोधित करते थे यह सभी किसानों को गीता तथा कुरान पर हाथ रखा कर आपसी एकता बनाए रखने तथा बंदी कृषक परिवारों को सहायता प्रदान करने की शपथ दिलाते थे. यह आंदोलन सरकारी दमन के कारण बहुत ही शीघ्र समाप्त हो गया. इस दौर के प्रारंभ में अवध के किसानों तथा शहरी निम्न मध्यवर्ग के नवयुवकों को गांधी के असहयोग आंदोलन ने अपनी तरफ आकर्षित करना प्रारंभ कर दिया था, परंतु चोरी चोरा कांड के बाद जब गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया तो क्रांतिकारी सैन्यवाद ने इन निराश निम्न मध्यवर्गीय युवाओं को अपनी तरफ आकर्षित करना प्रारंभ कर दिया. परिणाम स्वरुप क्रांतिकारी गतिविधियां बंगाल, पंजाब तथा संयुक्त प्रांत में जोर पकड़ने लगी.
9 अगस्त 1925 को लखनऊ के निकट काकोरी ट्रेन डकैती की सुप्रसिद्ध घटना संयुक्त प्रांत में क्रांतिकारी गतिविधियों का परिणाम था. पूरे संयुक्त प्रांत में इस घटना के तत्काल बाद क्रांतिकारियों की धर-पकड़ शुरू हो गई. इस घटना के अभियुक्तों राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां तथा रोशन सिंह को फांसी की सजा हुई तथा राम प्रसाद खत्री, मम्थनाथ गुप्त सहित अनेक क्रांतिकारियों को लंबी कारावास की सजाएं सुनाई गई. क्रांतिकारियों की तरफ से बिना फीस लिए लड़ने के लिए इस मुकदमे को जब कोई बड़ा वकील तैयार नहीं हुआ था तब युवा वकील चंद्रभानु गुप्त ने अपनी नीतियों के सेवाएं अर्पित की. बाद में यही चंद्रभानु गुप्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने .
दिल्ली के फिरोजशाह कोटला के खंडहरों में गिरफ्तारी से बजे क्रांतिकारियों ने एक गुप्त बैठक आयोजित की. इनका उद्देश्य भी कर चुके क्रांतिकारियों को पुनः संगठित करना था. इस ऐतिहासिक बैठक में शिव शर्मा जयदेव कपूर. सुरेंद्र पांडे तथा विजय कुमार सिन्हा ने संयुक्त प्रांत का प्रतिनिधित्व किया था. अन्य प्रतिनिधियों में पंजाब से सरदार भगत सिंह और सुखदेव, राजस्थान के कुंदन लाल रता बिहार के फणींद्र नाथ घोष हुए मनमोहन बनर्जी ने हिस्सा लिया. बंगाल से कोई भी प्रतिनिधि नहीं आ सका.
कोटला बैठक के समय एक क्रांतिकारी संयुक्त प्रांत व पंजाब के दो समूहों में विभाजित थे. एक सामूहिक नेतृत्व में दोनों समूह में कार्य करने का निर्णय लिया. हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच. एस. आर. ए.) इस समूह का नाम रखा गया था. इस संगठन का सेनापति चंद्रशेखर आजाद को चुना गया. एक केंद्रीय समिति का निर्वाचन भी किया गया, जिसमें पंजाब में सरदार भगत सिंह व सुखदेव संयुक्त प्रांत में शिव वर्मा व विजय कुमार सिन्हा, राजस्थान से कुंदन लाल तथा बिहार से फणींद्र नाथ घोष चुने गए. आगरा के संगठन का मुख्यालय बनाया गया तथा नीतिगत रूप से यह स्वीकार किया गया कि आम नागरिकों के यहां धन एकत्रित करने के लिए डकैतियाँ नहीं डाली जाएगी.
लाला लाजपत राय पर साइमन आयोग के विरोध के समय जिस प्रकार पुलिस ने लाठियां बरसाई थी और जिसके कारण अंत में उनका देहांत हो गया था, उसे एच एस आर ए ने एक राष्ट्रीय अपमान माना तथा उसका बदला लेने का निर्णय लिया. सरदार भगत सिंह 19 दिसंबर 1928 को जे. पी. सांडर्स नामक पुलिसकर्मी अधिकारी की हत्या कर बदला ले ही लिया. भगत सिंह के साथ चंद्रशेखर आजाद और राजगुरु भी इस क्रांतिकारी कार्य में शामिल थे. एच. एस. आर. ए. को सदस्यों ने की हत्या के बाद गुप्त रूप से लाहौर में स्थान स्थान पर एक आशय का हस्तलिखित पोस्टर भी चिपकाए, जिसमें राष्ट्रीय अपमान का बदला लेने की बात घोषित की गई थी. एच. एस. आर. ए. की तरफ से यह पोस्टर जारी किया गया था,
इन क्रांतिकारियों ने भारत में क्रांति के लिए आवश्यक जनता का सहयोग प्राप्त करने का ध्येय बनाकर अपनी गतिविधियों का स्वरूप बदलने का निर्णय लिया. अब इन्होंने गुप्त रूप से कार्य करने की अपेक्षा जनता के बीच में कार्य करने का विचार बनाया गया. इस नीति के अंतर्गत भारत की सोई जनता को केंद्रीय विधानमंडल में बम फेंककर जगाने का निर्णय भी लिया गया.
सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर सिंह दत्त पर इस कार्य की जिम्मेदारी डाली गई. हालांकि, कोई इस मिशन पर भगत सिंह को भेजने के पक्ष में नहीं था, क्योंकि यह सभी को पता था कि उनको भेजने का अर्थ है उन्हें मौत के मुंह में भेजने के समान था. पुलिस को सांड्रस हत्या में उनकी तलाश थी. उनके पकड़े जाने का अर्थ फांसी के तख्ते पर भेजने जैसा ही था,
भगत सिंह का मानना था कि पकड़े जाने पर उनसे बेहतर कोई अन्य क्रांतिकारी के पक्ष को नहीं रख सकता था. फल स्वरुप, मजबूर होकर संगठन ने इस कार्य की जिम्मेदारी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर डाली. इन दोनों क्रांतिकारियों ने केंद्रीय विधानमंडल में 8 अप्रैल 1929 को बम फेंक दिया, यह बम श्रमिक विभाग प्रस्ताव तथा जन सुरक्षा संशोधन प्रस्ताव की घोषणा के विरुद्ध फेंका गया था, इन दोनों ने बम के साथ साथ पर्चे भी फेंके और नारे भी लगाए इन दोनों ने भागना संभव होने पर अपनी गिरफ्तारी हो जाना उचित समझा जो उनकी पूर्व निर्धारित नीतियों का ही एक अंग था.
इस मिशन में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के सहयोग हेतु जिन दो अन्य क्रांतिकारियों को चुना गया था वह दोनों संयुक्त प्रांत से ही थे. शिव वर्मा और जयदेव कपूर ने इन दोनों को विधानमंडल के बाहर तक पहुंचने का कार्य किया था. इसके पश्चात शिव वर्मा भगत सिंह का एक फोटोग्राफ तथा सुखदेव के नाम पर एक पत्र लेकर लाहौर चले गए. वह फोटोग्राफ लाहौर प्रेस को 7 अप्रैल की शाम को ही सौंप दिया था, जिसने 8 अप्रैल के बम कांड के बाद इसे सर्वप्रथम प्रकाशित किया था.
सरदार भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त दोनों पर बम फेंकने और भगत सिंह पर सांडर्स की हत्या का मुकदमा कायम किया गया, क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी का दौर पूरे देश में प्रारंभ हो गया. सहारनपुर में क्रांतिकारियों द्वारा संचालित फैक्ट्री के साथ वर्मा तथा जयदेव कपूर को गिरफ्तार कर लिया गया. द्वितीय लाहौर षड्यंत्र मुकदमा के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध इस मुकदमे में इन चारों के अतिरिक्त सुखदेव, राजगुरु, गया प्रसाद कटियार, विजय कुमार सिन्हा, किशोरी लाल तथा कुंदन लाल आदि भी अभियुक्त थे. चंद्रशेखर आजाद अंत तक नहीं पकड़े गए. इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में 27 फरवरी, 1931 की पुलिस माधुरी के साथ लड़ते हुए शहीद हो गए. 23 मार्च, 1931 को सरदार भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी दे दी गई तथा सभी उपरोक्त अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई क्रांतिकारियों ने इस मुकदमे के दौरान अपने पूरे देश की सहानुभूति व समर्थन अर्जित करने में सफलता पा ली थी.
भारत में गांधीवाद आंदोलन का दूसरा दौर इस समय तक आराम हो चुका था. जो ठहराव अब क्रांतिकारी संगठनों की गतिविधियों में आया और गांधीवादी राष्ट्रवाद के दूसरे दौर के कारण फिर अपनी पुरानी तीव्रता नहीं पा सका. परंतु इसमें कोई संदेह नहीं है कि इन बहादुर क्रांतिकारियों के साहसिक कारनामों ने जन चेतना को आंदोलित कर दिया था.