आज इस आर्टिकल में हम आपको शेरशाह (1472-1545 ई.) से जुड़ा इतिहास के बारे में बताने जा रहे है.
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शेरशाह (1472-1545 ई.) से जुड़ा इतिहास
इनका जन्म एक साधारण परिवार में 1472 ईसवी में हुआ था. शेरशाह के बचपन का नाम फरीद खां था. उसके पिता हसन खां जौनपुर राज्य के अंतर्गत सासाराम के जागीरदार थे. फरीद खां ने तलवार से एक शेर को मार डाला था, उसकी बहादुरी से प्रसन्न होकर बिहार के अफगान शासक सुल्तान मोहम्मद बाहर खा लोहानि ने उसे शेर खां की उपाधि प्रदान की.
जौनपुर में अपनी शिक्षा दिक्षा समाप्त करने के बाद फरीद सासाराम में अपने पिता की जागीर का प्रबंध करने में लगभग 21 वर्षों (1497- 1518 ई.) तक लगा रहा. हसन खान की मृत्यु के बाद 1520-21 ईसवी के आसपास सुल्तान इब्राहिम लोदी ने उसे टाडा, खवासपुर, सहसराम, ( वर्तमान सासाराम) की जागीर सौंप दी.
शेरखान के पूर्वज शुरुवात में अफगानिस्तान के राहरी ग्राम में रहते थे. उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति साधारण कोटि की थी. वे सुल्तान शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी के वंशज मोहम्मद सुर जो एक अफगान महिला से विवाह करके उसी के गांव में बस गया था, कि संतान थी.
शेर खान का पिता इब्राहिम का, बहलोल लोदी के काल में भारत आया था. इब्राहिम खान के 3 पुत्र थे, जिनमें बड़े पुत्र का नाम हशन खा(शेरसाह का पिता) था. 1534 ईस्वी में सूरजगढ़ा की लड़ाई में शेरशाह ने बंगाल की सेना को पराजित कर पूर्वी भारत में अपनी स्थिति सर्वोपरि कर ली.
1537-38 ईसवी में उसने बंगाल पर अधिकार कर लिया और 1539 ने हुमायूं बक्सर के चौसा की निर्णायक लड़ाई में (25-26 जून को) पराजित कर दिया. हुमायु ईरान में शरणार्थी हुआ. चौसा की लड़ाई में विजय होने के बाद शेर खां को शेर शाह की उपाधि धारण कर सिंहासन पर विराजमान हो गया.