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उत्तर प्रदेश में चित्रकला का विकास
देश में भारतीय संस्कृति एवं कला के विकास का प्रमुख केंद्र उत्तर प्रदेश माना जाता है। उत्तर वैदिक काल में वर्तमान राज्य के परीक्षेत्र को ब्रह्यार्षी अथवा मध्य प्रदेश कहा जाता है। यह द्वीप प्रागैतिहासिक काल से ही इस क्षेत्र में कला एवं संस्कृति का विकास देखने को मिलता है तथापि इसके विकास के दौर में आर्यों के आगमन के पश्चात अधिक तीव्रता दिखाई पड़ती है।
राज्य में चित्रकला का विकास
राज्य में 1911 ई. में लखनऊ में कला एवं शिल्प महाविद्यालय की स्थापना के साथ है बीसवीं सदी के प्रारंभ में आधुनिक चित्रकला का क्रमिक विकास हुआ है। कला एवं शिल्प कला के प्रशिक्षण हेतु तत्कालीन ब्रिटिश शासन ने लखनऊ सहित पांच कला केंद्र स्थापित किए थे। अंग्रेज प्राचार्य नैथेनियल हर्ड के अतिरिक्त असित कुमार हलदर ने भी कला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया है।
भारतीय चित्रकारों में ज्ञानेंद्र नाथ टैगोर, अमृता शेरगिल, जैमिनी राय, रविंद्र नाथ टैगोर ने चित्रकारी के लिए विशेष रूप से संगीत की शिक्षा की वकालत की।
उत्तर प्रदेश राज्य में कला एवं कलाकारों के पोषण एवं शिक्षण की सदैव ही व्यवस्था रही है। वाराणसी, लखनऊ, जौनपुर आदि की मुगल, राजपूत एवं ब्रिटिश कंपनी शैली के चित्र किस बात के प्रमाण है। काशी नरेश महाराज ईश्वरी प्रसाद एक कला प्रेमी तथा कला के पोषक एवं संरक्षक थे।
काशी नरेश महाराज ईश्वरी प्रसाद ने मुगल काल में पतनोपरांत औरंगजेब के दरबार से भागे हुए कलाकारों को उचित सम्मान एवं शिक्षण प्रदान करके अपने राज्य को अपभ्रंश शैली एवं कंपनी शैली के मुख्य केंद्र के रूप में विकसित किया। आज भी वे चित्र काशी हिंदू विश्वविद्यालय के भारत-भवन में सुरक्षित है।
राज्य की कला के अतीत के वैभव को मिर्जापुर की लिखनिया दरी, सोनभद्र के शैलाश्रयों की कला, मनिपुर आदी की पर्वत श्रेणियों एवं गुफाओं से प्राप्त चित्रकला के उदाहरण स्पष्ट रुप से प्रदर्शित करते हैं।
असित कुमार दास वर्ष 1925 में बंगाल स्कूल से लखनऊ आए। उन्होंने अपने गुरु गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर तथा अवनी बाबू की कलात्मक परिकल्पनाऑ को साकार करने का बीड़ा उठाया। लखनऊ में वास कला शैली तथा टैम्पा कला शैली का प्रारंभ किया। सन 1945 ई में ललित मोहन सेन ने लंदन में रॉयल अकादमी शैली में प्रशिक्षण लेकर लखनऊ में ग्राफिक विद्या कला के क्षेत्र में उपलब्धि हासिल की है।
श्री सेन ने अपने चित्रों द्वारा प्रकृति तथा आम जीवन की घटनाओं को पेस्टल कलर, ऑयल कलर, वाटर कलर तथा सभी चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। उनकी शबीह चित्रों की रचना तो देखते ही बनती है। वर्तमान में उनकी चित्रकारी लखनऊ नगर निगम की आर्ट गैलरी में संग्रहित है।
कला विद्यालय के प्रधानाध्यापक हरिहर लाल मेढ ने अपनी दैनिक दिनचर्या पर आधारित दृश्य, चित्रों, शबीह चित्र, तथा वस्त चित्रकला शैली में मेघदूत जैसे चित्रों के कारण महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है। इन प्रकार अतः वर्ष 1973 में लखनऊ विश्वविद्यालय में कला विद्यालय को लेट कलाओं के प्रशिक्षण संस्थान के रूप में मान्यता मिल गई और चित्रकला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई। इसके साथ-साथ विश्वविद्यालय के प्रसार के बंधन आचार्य कला के विकास हेतु ने MA के पाठ्यक्रम तक चित्रकला का पाठन भी आरंभ करवा दिया।
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बहुत बढ़िया आर्टिकल