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उत्तर प्रदेश 1857 की क्रांति

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उत्तर प्रदेश 1857 की क्रांति

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उत्तर प्रदेश 1857 की क्रांति

अंग्रेजी शासन की स्थापना वर्ष 1757 के ठीक 100 वर्ष पश्चात सन, 1857 में विदेशी शासन के विरुद्ध उत्तरी भारत की जनता ने एक महान विद्रोह कर दिया. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के भारतीय सैनिकों के गदर से इस विद्रोह का प्रारंभ हुआ. कंपनी की सेना मुख्य रूप से तीन अंगों में विभाजित है थी- बंगाल, मुंबई तथा मुद्रास सेना. इनमे बंगाल सेना सबसे बड़ी थी. जिसमें कुल 1,70,000 सैनिकों में से 1,40,000 भारतीय सैनिक थे. जो मुख्य रूप से अवध, बिहार तथा उत्तर पश्चिम प्रांतों के निवासी थे. यह सभी अपने अपने गांव के छोटे-छोटे जमीदार अथवा किसान परिवार से आए थे. यद्धपि उन्हें संतोषजनक वेतन प्राप्त होता था. फिर भी ये कभी सार्जेंट से ऊपर का पद प्राप्त नहीं कर पाते थे.

सन 1857 प्लासी के युद्ध को सौ साल पूरे होने थे. इस अवसर पर ब्रिटिश राज को समाप्त कर देने की टूट-फूट योजनाएं होने लगी थी, परंतु कोई संगठित योजना अभी तक नहीं बन सकी थी. कुछ सन्यासी तथा वहाबी आंदोलनकर्ता इसका प्रयास अवश्य कर रहे थे. सैनिकों पर भी इनका थोड़ा बहुत प्रभाव था. पिछले कुछ वर्षों से यह आम धारणा बनने लगी थी की कंपनी सरकार हिंदू और मुसलमान दोनों को ईसाई बनाना चाहती है. जिस कारण सैनिकों में एक आक्रोश से व्याप्त होने लगा. इसी मध्य अंग्रेजों ने अविषकृत एनफील्ड राइफलों के लिए एक नए प्रकार का कारतूस प्रयोग करना शुरू किया. हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों के सैनिकों में यह धारणा बन चुकी थी कि उनके कारतूस खोल सूअर एवं गाय की चर्बी से बनाए जाते हैं इसलिए इन करतूतों के प्रयोग में सैनिकों के आक्रोश को विस्फोट में बदल दिया.

कोलकाता से 120 मील दूर स्थित बुरहानपुर के 19 विदेशी सैनिक टुकड़ी ने दगाऊ टोपी पहनकर 26 फरवरी 1857 को परेड में जाने से मना कर दिया. उनके विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की गई और इसके तत्काल पश्चात 21 मार्च को कोलकाता के निकट स्थित बैरकपुर के 34 विदेशी सैनिक छावनी के मंगल पांडे ने खुला विद्रोह कर दिया और उत्तर प्रदेश के निवासी मंगल पांडे ने अपने एडजेेंट लेफ्टिनेंट हेनरी बाग पर गोली चला दी तथा उस पर तलवार से भी वार किया. 7 अप्रैल को ही उन्हें बैरकपुर में फांसी दे दी गई.

उत्तर भारत की समस्त सैनिक छावनियों में मंगल पांडे की शहादत ने विद्रोह है कि आग भड़का दी. 9 मई को अंबाल की 60वीं और 5वी सैनीक छावनी के सभी सैनिकों ने विद्रोह कर दिया. यह पहला ऐसा विद्रोह है था जिसमें किसी छावनी के समस्त सैनिकों ने भाग लिया था. अंग्रेजों ने इस पर तत्काल काबू पा लिया पर इसके बाद मेरठ में होने वाले विद्रोह अंग्रेजी सैनिक क्षमता के बूते से बाहर सिद्ध हुआ.

मेरठ की देसी सेना ने 24 अप्रैल की परेड में उन कारतूस को छूने से मना कर दिया. अंग्रेज सेना ने 9 मई को अस्सी से पचासी सैनिकों की वर्दी उतरवा ली. दूसरे दिन ही पूरी छावनी के सैनिकों में विद्रोह की आग भड़क उठी. उन्होंने अपने सैनिकों के साथियों को जेल से छुड़ा लिया तथा सभी अंग्रेज अधिकारियों, उनकी पत्नी और बच्चों की हत्या कर दी. इन्हीं सैनिकों ने 11 मई को दिल्ली पर भी अधिकार कर लिया. इन सैनिकों ने सतरंगी भारत के पेनशनयाफता सम्राट बहादुशाह जफर द्वितीय को मजबूर किया वह उन को नेतृत्व प्रदान करें. दिल्ली का प्रशासन छह सैनिकों तथा चार नागरिकों की एक समिति ने जलसा के नाम अपने हाथों में ले लिया.

अवध तथा बुंदेलखंड क क्षेत्र सैनिक विद्रोह से सबसे अधिक प्रभावित होने वाला क्षेत्र तथा तत्काल विद्रोह सैनिकों के साथ यहां के किसानों ने विद्रोह में हिस्सा लेना प्रारंभ कर दिया था. नए जमींदारों को भगा दिया गया अथवा उनकी हत्या कर दी गई. स्थानीय सरकारी कार्यालयों में पर हमला बोल दिया गया तथा लगान देना बंद कर दिया गया. इस विद्रोह में उत्तरी भारत के दोआब क्षेत्र में भी सक्रिय योगदान दिया. उन्होंने अलीगढ़, बरेली, लखनऊ, कानपुर तथा इलाहाबाद को स्वतंत्र कराने के बाद वहां अपने सरकारें स्थापित कर ली थी. खान बहादुर खान नामक रोहिल्ला सैनिक अधिकारी ने बरेली का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया था. पेशवा बाजीराव द्वितीय के दशक पुत्र वहाबी का अधिकार कानपुर के प्रशासन पर था. इन नगरों के साथ इटावा, मैनपुरी, रुड़की, एटा, मथुरा, शाहजहांपुर, बदायूं, आजमगढ़, सीतापुर, बाराबंकी, वाराणसी, झांसी, फैजाबाद, फतेहपुर तथा हाथरस जैसे अपेक्षाकृत छोटे छोटे शहरों में भी विद्रोह का विस्तार हो चुका था.

इस बीच दिल्ली में कानून व्यवस्था की समस्या खड़ी हो चुकी थी. इस समय अनुशासनिक भावना की आवश्यकता विद्रोही सैनिकों में थी उसको उत्पन्न करने में तत्काल में विद्रोह में नेता विफल रहे. विद्रोह बिना किसी पूर्व तैयारी, सैद्धांतिक पृष्ठभूमि, क्रांतिकारी लक्ष्य तथा निश्चित नेतृत्व के बिना प्रारंभ हो जाने के कारण दिल्ली में ऐसी अराजक स्थिति उत्पन्न हो गई जिसमें किसी को भी यह नहीं पता था कि आगे क्या करना है.

कानपुर में भी अनुशासन की यही समस्या खड़ी हुई. यहां विद्रोह का नेतृत्व नाना साहिब ने संभाल रखा था. इस समय नगर में अंग्रेजों के विरुद्ध लगभग 10,000 सैनिक तथा कृषक संघर्षरत कर रहे थे. लखनऊ में भी विद्रोह प्रारंभ हो चुका था. इसमें लगभग 50,000 नागरिक हिस्सा ले रहे थे. इनका नेतृत्व बेगम हजरत महल कर रही थी. यहां पर विद्रोहियों ने रेजिडेंट्स के गिर्द घेरा डाल रखा था, जिसमें अंग्रेज सैनिकों, अधिकारियों तथा उनके परिवारों ने ले रखी थी. अपनी समस्त सैनिक योग्यता तथा कुशल नेतृत्व के बल कानपुर लखनऊ में ब्रिटिश सेना अधिकारी केमपबेल, जनरल हवालक, तथा विनडम ने विद्रोह को कुचलने का प्रयास कर एक लंबे समय तक जारी रखा. इन सभी के विरुद्ध विद्रोहियों के पक्ष में केवल एक तात्या टोपे ही योग्य सेनापति थे. छह माह के लगातार प्रयासों तथा 1 माह के लंबे युद्ध के बाद अंग्रेज अंत में लखनऊ पर पुन: अधिकार करने में सफल हो गए.

अंग्रेजों ने मई में कानपुर तथा लखनऊ के बाद बरेली पर भी अधिकार कर लिया. इसके बाद वे जनरल रोज के नेतृत्व में झांसी की और बढ़े. यहां पर उन्हें झांसी की युवा रानी लक्ष्मीबाई का सामना करना पड़ा. जो अब वीरतापूर्वक विद्रोह का नेतृत्व कर रही थी. झांसी की पराजय के बाद तात्या टोपे की सहायता से लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया. ग्वालियर के युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई अपने समस्त पराक्रम के बाद भी पराजित हुई तथा वीरगति को प्राप्त हुई. इसके पश्चात अप्रैल सन 1859 में तात्या टोपे भी पकड़ लिए गए और उन्हें फांसी दे दी गई.

इसी समय 1 नवंबर 1858 को ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया ने अपने घोषणा पत्र में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों से समस्त अधिकार ले लिए. साम्राज्ञी ने घोषणा में विद्रोह से हाथ खींच लेने वाले रजवाड़ों, सामंतों तथा जमींदारों को आम माफीनामा देने का आश्वासन भी दे दिया. परिणामस्वरुप, जो थोड़े बहुत जमींदार और सामंत अभी भी विद्रोह से जुड़े हुए थे उन्होंने तत्काल विद्रोहियों का साथ छोड़ दिया. विद्रोह अपने अंतिम दौर में पूरी तरह से नेतृत्त्वविहीनहो चुका था, अत: इसको दबा देना अंग्रेजों के लिए कोई बहुत बड़ा काम नहीं रह गया था.

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