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मेगास्थनीज 315 ईसा पूर्व मेसीडोनियाई विजेता सिकंदर के पश्चिम एशियाई प्रदेशों क्षत्रप सेल्युकस का दूत बनकर चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया, जहां वह लगभग एक दशक तक रहा. भारत के बारे में उसने इंडिका नामक पुस्तक में चर्चा की है. यह रचना उपलब्ध नहीं है लेकिन परवर्ती इतिहासकारों ने अपनी रचनाओं में इसके उद्धरण पेश किए हैं, जो सुरक्षित हैं. इसमें पाटलिपुत्र नगर और उसके प्रशासन की विस्तृत चर्चा है.
मेगास्थनीज के समय यह नगर अर्थात पाटलिपुत्र या पालिब्रोथा लगभग 200 वर्ष पुराना हो चुका था. मेगास्थनीज के अनुसार राजभवन नगर के मध्य में था और सुंदर उद्यानों से घिरा था, जिसमें छोटे छोटे तलाब और झरनों की व्यवस्था थी.
इंडिका में पाटलिपुत्र को पालिब्रोथा कहा गया है. इसके अनुसार यह भारत का सबसे बड़ा एवं भव्य शहर था, 280 स्टेडिया में 9.5 मील लंबा और 15 स्टेडिया चौड़ा था. यह गंगा और सोन नदियों के संगम पर स्थित था. इसके अनुसार यह सुसा और एकबताना के नगरों से सुंदर था. इसकी सुरक्षा के लिए एक गहरी खाई (जिस की चौड़ाई 600 फीट और गहराई 45 फीट थी) और एक सुरक्षात्मक दीवार थी जिसमें 64 दरवाजे और 570 मीनार थे.
नगर प्रशासन एक 30 सदस्य बोर्ड द्वारा संचालित होता था. उक्त बोर्ड 6 समितियां में विभाजित था. इस बोर्ड के सदस्य सामूहिक रुप से सार्वजनिक भवनों की देखभाल, नगर की सफाई आदि को भी देखरेख करते थे. यह से सदस्य अष्टनोमई कह जाते थे,
चंद्रगुप्त के उत्तराधिकारी बिंदुसार के दरबार में डिमोकिल्स या डाईमेकस भी सीरिया के ग्रीक के शासक सेल्युकस के दूत के रूप में लंबी अवधि तक रहा. उसके द्वारा लिखा गया कोई वृतांत यद्यपि उपलब्ध नहीं है, किंतु परवर्ती क्लासिक लेखक स्ट्रेबो, (64 ई. पु. – 10 ई.) ने इस बात का उल्लेख किया है कि डायमेक्स ने पाटलिपुत्र और भारत के बारे में एक वृतांत लिखा था. सम्प्रति पाटलिपुत्र में उसके निवास से पता चलता है कि हिंदी यूनानी शासकों से मैत्रीपूर्ण संबंध इस काल में भी रहे थे.
फाह्यान का जन्म चीन के वू-यांग नामक स्थान में हुआ था, यह चीनी यात्री 399 ई. में भारत आया और 411 ई. तक यही रहा. इसका उद्देश्य बौद्ध ग्रंथों को खोजना था. वह पाटलिपुत्र में 3 वर्षों तक रहा.
उसके अनुसार शहर में महायान और हीनयान संप्रदाय के दो भव्य बौद्ध विहार थे, जिनमें 600 से 700 भिक्षु रहते थे. इन बौद्ध भिक्षुओं की विद्वाता के कारण देश-विदेश के लोग आकर उनसे शिक्षा प्राप्त करते थे.
फाह्यान के अनुसार मगध एक समृद्ध राज्य था. यहां उसने ब्राह्मणों की रथ-यात्रा देखी, जिसमें देव प्रतिमाओं को सुसज्जित रथ में रखकर निकाला जाता था. हर साल के दूसरे महीने की 8वीं तारीख को बुद्ध और बोधिसत्व की शोभायात्रा 20 रथों से सजा कर निकाली जाती थी. वह नालंदा और राजगीर भी गया जहां उसने गृधकूट पहाड़ी किया. गृधकूट पहाड़ी का दर्शन करते समय इतना भावुक हो गया की फूट फूट कर रो पड़ा.
युवान-च्वांग हर्षवर्धन का समकालीन चीनी यात्री था जो भारत में 630- 644 ई. तक रहा. सी-यू-की इसकी यात्रा-वृतांत पर आधारित पुस्तक है.
उसके अनुसार नालंदा उत्तरी भारत में उच्च शिक्षा का केंद्र था. यहां विदेशों से भी विद्यार्थी आते थे. उस समय यहां 8,500 छात्र और 1,510 आचार्य थे. यहां धर्म, व्याकरण, तर्कशास्त्र, विज्ञान और चिकित्सा की शिक्षा उपलब्ध थी. हैंनसोंग के अनुसार उस समय कन्नौज अपने उत्कर्ष पर था और पाटलिपुत्र अपनी भव्यता हो चुका था तथा कुछ ग्रामों का समूह में भर रह गया था.
यह सातवीं शताब्दी का दूसरा चीनी यात्री था. 673 ई. में भारत आया और 692 ई. तक यही रहा. उसने नालंदा महाविहार में शिक्षा प्राप्त की. उसके अनुसार नालंदा में उस समय 5000 भिक्षु रहते थे. उसने विक्रमशिला महावीर के संबंध में भी चर्चा की है.
यह दक्षिण कोरिया का एक बौद्ध भिक्षु था, जो आठवीं सदी में हुआ था. इसने अपने संस्मरण के रूप में पिलिग्रमेज टू फाइव किंग्डमस ऑफ इंडिया नामक पुस्तक लिखी. एशिया के आस-पास समुन्द्र और सड़क मार्ग से यात्रा करने वाले हेको को कोरिया वासी प्रथम विश्व व्यापी कोरियावासी मानते हैं.
बौद्ध भिक्षु धर्मास्वामीन 13वीं शताब्दी में भारत आया था. उसके अनुसार तुर्कों के आक्रमण होते रहते थे. उसके वर्णन से एक महत्वपूर्ण जानकारी यह मिलती है कि 1197-98 ई. के बीच नालंदा महाविहार का विनाश बख्तियार खिलजी के हाथों हुआ था.
अकबर के शासनकाल में इसमें जौनपुर से बंगाल की यात्रा की. इसका विवरण बिहार के इतिहास का महत्वपूर्ण अध्ययन स्रोत है, लेकिन इसकी पूर्ण प्रति सुरक्षित नहीं है. केवल कुछ अंश, जो उर्दू में अनुवादित है और प्रकाशित हो चुके हैं, अब उपलब्ध है. इनमें उत्तर बिहार खासकर दरभंगा क्षेत्र के संबंध में विस्तृत चर्चा है.
अंग्रेजी यात्री जिसमें 1585-87 के बीच मुगल सम्राज्य की यात्रा की. आगरा से बंगाल जाते समय वह बिहार से गुजरा था और उसने पटना की चर्चा की है. उसके अनुसार पटना में लोग जमीन खोदकर सोने की खोज करते थे. उसने पटना के वस्त्र, अफीम और चीनी उद्योग का वर्णन किया है. उसके अनुसार यहां के निवासियों, विशेषकर महिलाओं में अंधविश्वास पूर्ण आचरण विद्यमान था.
अब्दुल लतीफ ईरानी यात्री था. वह 1600 ई. में बिहार आया और उसने गंगा नदी मार्ग से आगरा से ताजमहल तक की यात्रा की. उसने चौसा, सासाराम, पटना, मुंगेर और राज महल का वर्णन किया है. उसके यात्रा-वृतांत की मूल प्रति अनुपलब्ध है लेकिन इसके कुछ अंश अंग्रेजी में अनुवादित है.
मोहम्मद सादिक ईरानी यात्री था जो अपने पिता के साथ पटना आया और लगभग 4 वर्ष तक यहां रहा. इसके पिता को 1619-20 ई. में पटना का दीवान-ए-खालिसा नियुक्त किया गया था. उसने पटना की सुंदरता और इसके गौरव का वर्णन किया है, साथ ही प्रसिद्ध विद्वानों की भी चर्चा की है. उसके वृतांत का नाम सुबह-ए-सादिक है.
यह अंग्रेजों का व्यापारिक अधिकारी था जो शाहजहाँ के आरंभिक शासनकाल में भारत में था. वह यहां 1628-34 तक रहा. 1632 ई. में वह पटना आया क्योंकि उस समय यह एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र था. उसने विशेषकर नगर वासियों, सामंतों के बारे में लिखा.
उसने एक विशेष प्रकार की कश्ती मयूरपंखी का वर्णन किया है तथा सैफ खां द्वारा बनाए गए सराय और जन कल्याण संबंधी उपायों की भी चर्चा की है. उसके अनुसार पटना उस समय अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का समृद्ध केंद्र था, जहां बड़ी संख्या में मंगोल, ईरानी और आरमीनियाई व्यापारी बसे हुए थे.
पोलैंड का यह यात्री 17वीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द (लगभग 1612 ई.) में पटना आया था. उसके अनुसार पटना की जनसंख्या 2,00,000 थी, जहां भव्य इमारतें, मस्जिदे और सराय थी. यहां लोग खुशहाल थे. पटना व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र था जहां लाखों रुपयों के सर्राफा कारोबार संपन्न होते थे या मध्य एशिया में निर्यात होता था.
मनुची नामक यह इटालियन यात्री शाहजहां के शासनकाल में भारत आया था. वह 17वीं शताब्दी के मध्य में पटना आया था तथा उसे काल के बिहार का वर्णन प्रस्तुत करता है.
जॉन टैवर्नियर, जो एक फ्रांसीसी यात्री था, 1665-66 ई. में पटना आया था. वह बिहार की प्रशासनिक व्यवस्था, लगान आदि के साथ व्यापार तथा पटना में हालैंड निवासियों द्वारा शोरे के व्यापार की भी चर्चा करता था. उसकी भेंट यहां आरमीनियाई व्यापारियों से भी हुई. उसके अनुसार पटना का व्यापार भूटान, असम और त्रिपुरा जैसे दुर्गम क्षेत्रों से भी होता था.
अंग्रेज यात्री मार्शल, जो चिकित्सक था, 17वीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द में पटना आया था. उसने पटना नगर की बनावट, रहन सहन यहां के चिकित्सकों, संगीतज्ञों, फकीरों तथा दरवेशों की चर्चा की है. उस समय 1670-71 में यहां भीषण अकाल पड़ा था. उसके अनुसार अनाज बहुत महंगे थे तथा इस काल में पटना के निकटवर्ती क्षेत्रों में 1 दशमलव 1.15 लाख लोग मारे थे.
वह एक ईरानी धर्माचार्य था जो 19वीं शताब्दी में बिहार आया था. उसने मुर्शिदाबाद के राजमहल, भागलपुर, मुंगेर, पटना और सासाराम की यात्रा की और इन नगरों के सभी पहलुओं का वर्णन किया. बहबहानी ने कई बार बिहार की यात्रा की और बाद में वह पटना में ही बस गए.
उसने पटना को जमीतुल हिंद (भारत का स्वर्ग) कहा है. वह पटना के नवनिर्माण और अजीमाबाद नामकरण का उल्लेख भी करता है जो राजकुमार अजीम द्वारा किया गया है. उसने पटना के सैफ खा के मदरसे की चर्चा ईरान में सुनी थी. उसके यात्रा-वृतांत का नाम मीरुतूल अहवाल है.
यह अंग्रेज पादरी था जो 1824 ईसवी में बंगाल से नदी मार्ग द्वारा यात्रा करते हुए बिहार पहुंचा. नदी से गुजरते हुए उसने पटना के मनोरम दृश्य का अवलोकन और वर्णन किया.
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