जनजातीय संस्कृति छत्तीसगढ़ की पहचान है। यहां की कुल जनसंख्या का 31.8 प्रतिशत जनजातीय संस्कृति से संबंधित है।
जनजातियों में विवाह का बड़ा सामाजिक महत्व है। विवाह की अनेक पद्धतियां उनके जीवन दर्शन को बताती है। इनमें एकविवाह तथा बहुविवाह पद्धतियाँ प्रचलित है। बहुविवाह में व्यक्ति एक से अधिक पत्नियां रख सकता है। छत्तीसगढ़ के आदिवासियों में क्रय विवाह, सेवा विवाह, गंधर्व विवाह, हठ विवाह, विनीमय विवाह आदि पद्धतियां प्रचलित है।
क्रय विवाह – विवाह की इस पद्धति में कन्या मूल्य चुकाना पड़ता है। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर संभाग में खेखार आदिवासियों में कन्या मूल्य चुकाने की प्रथा है। यह मूल्य परिस्तिथियों के अनुसार तय किया जाता है। इस पद्धति में विधवा से विवाह करने पर मूल्य कम देना पड़ता है। यदि अगर कोई विधुर विवाह करना चाहता है तो उसे अधिक मूल्य देना पड़ता है। परधान जनजाति में विधुर विवाह पद्धति में सामान्य राशि से दोगुनी देनी पड़ती है। उराव जनजाति में पति के मर जाने पर उससे विवाह करने पर 20% मूल्य कम देना पड़ता है।
सेवा विवाह – यह पद्धति अधिकतर गोंड जनजाति में है। यदि कोई लड़का कन्या मूल्य देने में असमर्थ है तो वह जिस कन्या को चाहता है, उसके घर जाकर उसके परिवारजनों की सेवा करता है। वह अपनी सेवा से लड़की के माता-पिता को प्रसंन करता है। तब उसका विवाह उसका विवाह उस लड़की से किया जाता है। बस्तर के माडिया हलवा तथा अब्बूझमाड़ियों में यह प्रथा है। गाडों में इसे चरघिया कहा जाता है।
अपरहण विवाह – छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में यह विवाह पद्धति प्रचलित है। यद्यपि यह पद्धति दंडनीय है, किंतु फिर भी चोरी से यह कार्य हो रहा हो। इस पद्धति में लड़का अपने कुछ साथियों सहित ऐसे स्थान पर खड़ा हो जाता है जहां से लड़की आती जाती हो। जब लड़की उस रास्ते से निकलती है तो वह लड़का उसे गाँव उठा लाता है वहां पर वह लड़की के ऊपर पानी में हल्दी घोलकर डालता है और वह लड़की उसकी पत्नी बन जाती है।
गन्धर्व विवाह – इस विवाह पद्धति में वर एवं कन्या अपने हिंसा एवं पसंद से विवाह कर लेते हैं। घोड़ों की उपजाति प्रजा में यह पद्धति बहुत प्रचलित है। प्रदा लोगों में यदि कोई युवती विवाह पूर्व गर्भवती हो जाती है तो उसका विवाह संबंधित युवक से विधिपूर्वक कर दिया जाता है। यदि किसी प्रजा युवती का संबंध किसी अन्य आदिवासी युवक से भी हो जाता है, तो उसे उसी युवक से विवाह की स्वतंत्रता होती है।
हठ विवाह- इस विवाह पद्धति में लड़का या लड़की अपनी प्रेमिका या प्रेमी के घर में जबरदस्ती घुस जाते हैं। यदि डराने धमकाने पर भी वह नहीं मानते, तो उनका विवाह कर दिया जाता है।
विनीमय विवाह – यदि 2 परिवार बिना वधू मूल्य चूकाए आपस में लड़कियों का आदान-प्रदान कर लेते हैं, तो वह विनिमय विवाह कहलाता है।
जनजातीय उत्सव – जनजातीय समाज ने परंपरा का स्थान सर्वोपरि है। जनजातीय नृत्य, उत्सव एवं मेले सभी परंपराओं की देन है। इनका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
हॉट (मडई)- गोडों की सभी उप जातियों में मडई का विशेष महत्व है। यह आयोजन बस्तर मंडल के वनांचल पर स्थित सभी गांवों और कस्बों में जनवरी से अप्रैल तक किया जाता है। इसके माध्यम से वे अपने दूरस्थ क्षेत्रों में स्थित रिश्तेदारों से भेंट कर लेते हैं। बस्तर जिले की नारायणपुर तहसील की मड़ई बहुत प्रसिद्ध है। पहले यह मडई 10-12 दिन चलती थी। इस मड़ई का स्थान कोड़ागांव से लगभग 50 किलोमीटर दूर है। यह तीन-चार दिन तक मड़ई का आयोजन होता है। इसमें सम्मिलित होने के लिए माडिया अपने परिवारों सहित एक माह-पूर्व ही रवाना हो जाते हैं। ताकि मडई के मुहूर्त वाले दिन नारायणपुर पहुंच सके। मडई के दिन वृक्ष के नीचे ढोल-ढमाके, देवीगीत और घूघुरुओं की ध्वनि के साथ देवी के समक्ष एक बकरे की बलि चढ़ाई जाती है। इसके बाद मडई में फेरी के लिए इनका हुजूम निकल पड़ता है। इसी समय आदिवासियों के देव (आंगादेव) को अपने कंधे पर उठाकर आदिवासी भक्ति विभोर हो जाते हैं। मडई के मुख्य दिन रात्रि में एक खुले मैदान में एबालतोर-मुख्य नृत्य का आयोजन होता है।
जनजातीय समाज में परंपरागत संस्थाओं का विशेष महत्व है, इनकी सामाजिक संस्थाएं निम्नलिखित है
पंचायत- गोंड़ों में पंचायत व्यवस्था प्राचीन परंपरा है। साधारणतया पंचायत द्वारा विभिन्न कार्य निपटाए जाते हैं। पंचायत का निर्णय सभी को मान्य होता है। गोड़ो में चोरी, मारपीट, धोखाधड़ी इत्यादि अपराधों के लिए विशेष सामाजिक दंड नहीं है।
घोटूल या युवागृह -यह प्रथा केवल बस्तर में पाई जाती है। गोंड जनजाति में घोटुल नामक संस्था का विशेष महत्व है। यह एक सामूहिक घर या शयनागर होता है जहां मुरिया गोंड़ों के अविवाहिता युवक युवतियां सोते हैं। यहां ये लोग केवल श्यान ही नहीं करते अपितु सामाजिक रीति-रिवाज, सांस्कृतिक नृत्यगान एवं समाज के अन्य उत्तरदायित्व निभाने की भी शिक्षा लेते हैं। घोटूल का सरदार सलाऊ कहलाता है। मजूमदार का विचार है यह संस्थाएं गोंड युवक और युवतियों को परंपरागत रीति से कामशास्त्र की सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक शिक्षा देते हैं जिसमें वैवाहिक बंधन में बंधने से पूर्व वे पूरी तरह कामकला से परिचित हो जायें और जीवन में पूरी तरह आनंद उठा सके। इस संस्था में युवक-युवतियां एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होकर अपने जोड़े बनाते हैं। इस प्रतिष्ठान में वास्तव में केवल आनंद आमोद या उल्लास का वातावरण रहता है जिसमें विवाहित स्त्री-पुरुषों का प्रवेश वर्जित होता है। यहाँ के युवकों को चोलिक तथा युवतियों को योतियारीन कहा जाता है। युवक-युवतियों को घोटूल के नियमों का पालन करना पड़ता है। दंतकथा के आधार पर घोटूल की स्थापना मुरिया जनजाति के वीर तेजस्वी पुरुष लिगोवेन देव ने की थी। इसलिए घोटूल में लिगोवेन देव का देव स्थान माना जाता है। उसकी छत्रछाया में रहने से बच्चे उसी के समान तेजस्वी एवं वीर बनते हैं।
जनजातीय हस्तशिल्प भी अत्युत्तम है बस्तर तथा अन्य स्थानों पर नावा उत्सव के समय बच्चों के खिलौनों में चक्की, बैल, घोड़े, मिट्टी के पहियों वाली बैलगाड़ी, भोजन के बर्तन, चूल्हा आदि बनाए जाते हैं। मुड़िया लोग खिलौनों का उपयोग पर्व नृत्यों के समय करते हैं। बांस की लंबी कोठी पर लकड़ी के बने पशु-पक्षी या बंदर या छिपकली एक सिलसिले से लगाकर उन्हें एक रस्सी से बांध दिया जाता है। रस्सी खींचने से वे ऊपर नीचे चढ़ते-उतरते दिखाई देते हैं।
गुदना गुदवाना- गुदने गुदवाना प्राय: सभी आदिवासियों में प्रचलित है। स्त्रियाँ बह्रा स्त्रियों अंगो पर अधिक गुदने गुदवाती है। बाहों, हाथों, कंधों, गालों, पावों, पंजों एवं छातियों पर गुदने गुदवाती है।
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