हरियाणा के खास व्यक्तित्व – आज इस आर्टिकल में हम आपको हरियाणा के कुछ खास व्यक्तियों के बारे में बता रहे हैं. हरियाणा अतीत से ही वीर भूमि के रूप में प्रसिद्ध रहा है. यहां के वीरों ने अपने साहस की एक अलग मिसाल कायम की है. यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें विदेशी आक्रमणकारियों का जमकर सामना किया.
दुर्ग को मुगलों और अंग्रेजों के सामने अंत तक संघर्ष करने वाले यही से साहसी लोग थे. सल्तनत काल, मुगल काल ब्रिटिश काल में यहां पर होने वाले जन विद्रोह इस बात का पुख्ता प्रमाण है.
तुर्कों का मुगलों को हार के दर्शन करवाने वाले लोग हरियाणवी ही थे. पूर्व मुगल और ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद भी यहां के लोगों ने काफी समय तक हार नहीं मानी थी, इसीलिए प्रतियोगी परीक्षाओं की सैलरी के अनुरूप यहां पर हरियाणा से संबंधित ऐतिहासिक व्यक्तियों के व्यक्तित्व की संक्षिप्त झलक प्रस्तुत की जा रही है.
हर्षवर्धन के दरबारी कवि, जिनकी रचना हर्षचरित से हर्ष कालीन उत्तर भारत की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है. इनका संबंध भी हरियाणा प्रदेश से ही था.
वीर संचरण का पुत्र कुरु था. जिसके नाम पर कौरव वंश का उदय हुआ. इसी महान दानवीर शासक के नाम पर आधुनिक कुरुक्षेत्र का नाम भी पड़ा. उनके द्वारा स्वयं इस क्षेत्र में हल चलाया गया था.
उनकी भक्ति और आस्था को देखते हुए भगवान विष्णु ने इस भूमि को देवभूमि और धर्म भूमि के आशीर्वाद से अलंकृत किया था.
परंपरा के अनुसार अग्रवाल जन के आदि पुरुष महाराजा अग्रसेन ने ही अग्रोहा को बसाया था. भारत भर के अग्रवाल जन इसे (अग्रोहा को) अपना उद्गम स्थान मानते हैं.
पुष्यभूति वंश के प्रभाकरवर्धन के पुत्र हर्षवर्धन, जिन्होंने 606 ईसवी से लेकर 647 ई. तक शासन किया.
इन्हें उत्तरी भारत का अंतिम हिंदू सम्राट भी कहा जाता है. थानेश्वर जोकि हरियाणा में है, इनके साम्राज्य की राजधानी थी.
हरियाणा के गौरवमयी इतिहास को इन्होंने और भी आकर्षित बना दिया.
मोहन सिंह सल्तनतकालीन शासकों के अंतिम समय के कैथल के समीप मंडार रियासत के सरदार थे. उन्होंने लंबे समय तक बाबर का मुकाबला किया, परंतु किसी की गुलामी स्वीकार नहीं की थी.
तोमर वंश के शासक कर राज्य क्षेत्र हरियाणा तक विस्तृत था, जिनकी राजधानी दिल्ली थी. हरियाणा के प्रसिद्ध सूरजकुंड की स्थापना इन्हीं के द्वारा करवाई गई थी. महरौली के लौह स्तंभ के संस्थापक थे.
हांसी हिसार का प्रसिद्ध सेनानायक, जिसने 1192 ई. में तराइन के दूसरे युद्ध के बाद हांसी दुर्ग को जीता था. तुर्क सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक के साथ संघर्ष में इनको शहादतप्राप्त हुई.
हसन खां मेवाती अपने युग का सबसे प्रबल शासक था और उन्होंने 10,000 मेवातियों की अग्रिम फौज सदा आक्रमण के लिए तैयार रखते थे. मेवाती महाराणा संग्रामसिंह का अभिन्न मित्र था. इसलिए उसने खानवा के युद्ध में बाबर के विरुद्ध युद्ध लड़ा था और अपार शौर्य का प्रदर्शन करने के बाद शहादत को प्राप्त हुआ. उसने मित्रता के नए आयाम स्थापित किए.
रेवाड़ी का एक साधारण व्यापारी जो अपनी योग्यता और शासक के बलबूते पर 1556 ईसवी में दिल्ली का सम्राट बना. उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की. 1556 ई. पानीपत के दूसरे युद्ध में खराब किस्मत होने के कारण वह हारा और बैरम खां के हाथों शहादत को प्राप्त हुआ.
सीही ग्राम निवासी यह जाट बल्लभगढ़ रियासत का संस्थापक था. इनकी ताकत को देखते हुए फरीदाबाद की स्वायत्तता की थी. इन्होने उत्तर मुगल क्षेत्रों में जमकर लूटपाट की थी. मुगल सम्राट फरुखखसियर ने भी उसे फरीदाबाद का चौधरी स्वीकार कर लिया था.
किसानों को हल छोड़कर तलवार पकडाने वाला गोकुल था. उसे ओला और कान्हडदेव के नाम से भी जाना जाता है. उसने अदम्य साहस और महान के गुण थे. जाटों को राजनीति में उतारने का काम वास्तव में गोकुल ने ही किया. 1617 ई. को इस महान किसान नेता को शहादत प्राप्त हुई.
गोकुल के बाद जाटों का नेतृत्व राजाराम ने किया. मार्च 1688 ईसवी में राजा राम के नेतृत्व में जाटों का साहस इतना बढ़ गया था, कि उन्होंने सिकंदरा में स्थापित अकबर के मकबरे तक को लूट लिया था.
अकबर महान की भूमिगत कब्र को खोदकर उनके हस्तियों का दाह संस्कार कर दिया शायद इस तरह जाट राजा राम के नेतृत्व में महान गोकुल को शहादत को का बदला ले रहे थे. 14 जुलाई 1688 को युद्ध में राजाराम को शहादत प्राप्त हुई.
इस जाट नेता के नेतृत्व में जाटों ने अपनी शक्ति का विस्तार दिल्ली तक कर लिया था. मुगल शासक बहादुर शाह बहादुर शाह ने भी उसके राजनीतिक हैसियत को स्वीकार कर लिया था. 20 अक्टूबर 1721 को इस महान जाट नेता की मृत्यु हो गई.
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जाटों के सबसे प्रतापी शासक सूरजमल था. इस जैसा शूरवीर योद्धा एवं सफल सेनानायक इस काल में अन्य दूसरा कोई नहीं था.
उसमे अफगान, पठान, रोहिले और मराठों के गुण विद्यमान थे और चुस्ती, बुद्धिमता, हिम्मत और साहस में वह सबसे ऊपर था.
उसे जाटों का प्लेटो भी कहा जाता है. 25 दिसंबर 1764 में इनको शहादत प्राप्त हुई.
1191 ई. में तराइन की लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान की ओर से लड़ने वाला यह वीर योद्धा एक चतुर सेनानायक था.
उसने इस युद्ध में मोहम्मद गोरी पर हमला किया, उसका आक्रमण इतना जबरदस्त था की मोहमद गौरी तुरंत बैहोस हो गए थे.
उसका एक सेनानायक उसको युद्ध से उठाकर ले भागा. तराइन की प्रथम लड़ाई का असली हीरो गोविंदा राय ही था.
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