हिमाचल प्रदेश में धौलाधार पर्वत श्रेणी एवं घाटी का चित्र जनजातीय की मुख्य निवासी स्थली रही है। हिमाचल की आदिम जनजातियों में किनौर, लाहौल, पगवाले, गद्दी, गुज्जर, बौद्ध, एवं स्वागले जाति के लोग आते हैं। इन जातियों के नाम स्थान के नाम से जुड़े हुए हैं। अंतर लाहौल, किन्नौर, पांगी, ( चंबा भरमौर) मध्य क्षेत्र में इन लोगों के स्थाई एवं अस्थाई आवास देखने को मिलते हैं। इन जातियों को अपनी परंपरागत रीती रिवाज धार्मिक आस्थाएँ, गीत, नृत्य आदि है। यह लोग ज्यादातर खानाबदोश जीवन व्यतीत करते हैं। ये यह लोग अपने प्राकृतिक सुंदरता, सहज, स्वभाव, सरल और व्यवहार और सॉष्ठव के कारण काफी लोकप्रिय है।प्रकृति से यह खुश मिजाज, रंगीले एवं अतिथि सत्कारी होते हैं। जीवन की हर चुनौती का सामना शहर से करते हैं और कठिन परिश्रम जीवन व्यतीत करते हैं।
आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी यह जातियां अपनी संस्कृति, भाषा, आचार नियमों एवं परंपराओं से जुड़ी हुई है। शीतकाल में यह जातियां कुछ समय के लिए पशुओं एवं भेड़ बकरियों का चारा खोजने और रोजी रोटी कमाने के लिए मैदानी क्षेत्रों में आ जाते हैं इन जातियों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार से है-
लाहोले- लाहो ले का शाब्दिक अर्थ है लाहौल घाटी के निवासी। प्रागैतिहासिक लाहौल का संबंध मुंडा आदि में जातियों और तिब्बतियों की मिश्रित जातियों से है। इस जाति में वर्ण जाति धर्म और व्यवसाय के आधार पर पृथक पृथक रूप से दृष्टिगोचर होते हैं। ठाकुर इनकी श्रेष्ठ उपजाति है। इनमें ब्राह्मण, लाहौल, डांगी सभी प्रकार के परिवार हैं।
लाहौले, सीधे, सरल स्वभाव एवं प्राण पंथी होते हैं। इनके रीती रिवाज लाभाधर्मी है। लेकिन अभी यह वैदिक कहलाना ज्यादा श्रेष्ठ समझते हैं। इनका मुख्य धर्म बौद्ध है। इनकी धार्मिक पुस्तकें केग्युर एवं तेग्यूउर हैं।दोनों पुस्तकों में 108 108 पोथीया है। इनके प्रत्येक धन संपन्न परिवार का अपना एक बौद्ध मंदिर होता है जिसमें भगवान बुद्ध की मूर्ति स्थापित होती है।
लाहौल में बहुपति प्रथा प्रचलित थी जो अब समाप्त हो चुकी है। त्रिलोकनाथ इनका मुख्य मंदिर है। इनमें लामा, पंडित, बौद्ध, हिंदू सभी वर्गों और जातियों के लोग हैं। मृकुला देवी का पुरातन मंदिर भी इनकी श्रद्धा का प्रतीक है।
1991 की जनगणना के अनुसार इन की जनसंख्या 24048 है। इनकी आबादी चाबा लाहौर में सर्वाधिक है।
किन्नौर- यह किन्नौर जिले के निवासी हैं जो प्रारंभ में किन्नर प्रदेश कहलाता था। किन्नर जाति ही रूप से किन्नौर कहलाई है। खतरों के आने से पहले किन्नौर की साथ- साथ निवास करते थे। 1991 की जनगणना के अनुसार प्रदेश मैन की जनसंख्या 39,609 है। इस जाति का वर्णन वेदों, पुरानो, वह तथा जैन ग्रंथों में बार बार आया है, परंतु आधुनिक स्वरूप पूरी तरह बदला हुआ है। लावणी एवं आकृति में यह लोग आर्य वैश्य प्रतीत होते हैं। स्वस्थ शरीर, लंबा लल्लाट, विशाल नेत्र और गौर वर्ण यह सारी बातें आर्य र क स्वर्ण जातियां की है। किन्नर स्त्रियां बड़ी चतुर एवं सुंदर होती है, मैली कुचली वेशभूषा में भी इनका शारीरिक सौंदर्य अपना निजी अक्षण रखता है। यह लोग मृदु प्रकृति की और सुशील है ऐतिहासिक कारणों के परिणाम स्वरुप इन में भय अधिक है।
इनका गाने, बजाने, नाचने एवं पीने का व्यसन आम है। यह दरिद्रता में भी सब प्रश्न एवं हंसमुख रहते हैं। मांस मदिरा का यह लोग का भी सेवन करते हैं। लेकिन इनकी स्त्रियां मंदिर का सेवन नहीं करती। इनकी वापस भी काफी मनोरंजक होती है। सभी भाई मिलकर एक पत्नी रख लेते हैं जिसे पांडव विवाह कहा जाता है।
वर्तमान में साक्षरता बढ़ने से अब इस प्रथा में सुधार हो रहा है। यहां प्रत्येक कुलीन घर में एक लड़का एवं एक लड़की आजन्म अविवाहित रहकर धर्म सेवा करते हैं। किन्नौरी भाषा में इन्हें जोमी एवं लामा कहते हैं।
सांगले- लाहौल स्पीति की पार्टन घाटी में बांग्ला जाति की आवास मिलते हैं। यह जाती यहां की मूल निवासी नहीं है। ठाकुर सेन नेगी के मतानुसार, यह लोग जम्मू कश्मीर, किस टावर राज्य क्षेत्रों से आकर यहां बस गए हैं। यह ब्राह्मण जाति के हैं। अंत है यह लोग स्वयं को अन्य लोगों से श्रेष्ठ समझते हैं। इनका मुख्य मुख्य व्यवसाय कृषि कार्य है। धर्म की दृष्टि से यह शैव मत को मानने वाले हिंदू हैं। यह लोग शिवलिंग एवं नाग देवता की पूजा करते हैं। इनमें से युक्त परिवार पद्धति पाई जाती है। इस जाति में दो भाइयों की एक पत्नी होती है। कहीं-कहीं से 2 अधिक पति भी मिलते हैं। इनमें एक परिवार में 105 सदस्य हैं जो विभिन्न व्यवसाई होने के कारण अलग-अलग स्थानों पर कार्यरत है।
परंतु 8 से 21 सदस्य तो आम परिवारों में मिलते हैं। यह स्वांग भाषा बोलते हैं। इस जाति के लोगों की वेशभूषा बौद्धो सरीखी है ।इनमें मास, नमकीन, चाय और छड़ ( शराब) बड़े चाव के साथ उपभोग करते हैं। शारीरिक रोग होने पर औषधियों की अपेक्षा चालकों के एवं जादुई तरीके से उपचार कराने में अधिक विश्वास रखते हैं लेकिन अब शिक्षा का प्रसार इन लोगों में हो रहा है और यह लोग धीरे-धीरे आधुनिक जीवन पद्धति अपना रहे हैं।
गुज्जर- गुज्जर एक खानाबदोश जाती है। इसका मुख्य व्यवसाय भैंस पालना है। हिमाचल प्रदेश में इनके स्थाई निवास कम दृष्टिगोचर होते हैं। यह लोग चलते फिरते ढेरों में एवं खुले आकाश के नीचे डेरा लगा कर रहना पसंद करते हैं। यह लोग मौसम के अनुसार घास फूस पत्तों, से ढकी झोपड़ियां भी बना लेते हैं। यह वह हिंदू है जिन्होंने औरंगजेब के समय मैं इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। इन की उपजातियां हैं- चौहान चंदेल, चेची, बनिए, एवं भटिया दी। इनका प्रिय भोजन दूध और मकाई है। पिछली जनगणना के अनुसार इस प्रदेश में इनकी संख्या 20644 है। यह जाति चंबा, सिरमौर, आदि क्षेत्रों में पाई जाती है। जम्मू कश्मीर से सिरमौर में 19 बार कश्मीर से आकर बस गए ऐसा विद्वान कहते हैं। यह जाति मूल रूप से हिंदू है। इनके गोत्र है हिंदुओं के समान है। इनमें से कुछ गोत्रों में हिंदू त्योहारों को भी मानते हैं।इनमें पुत्रवती अल्लाह का वरदान है ऐसा कहते हैं। गुज्जर सत्रीय सलवार, कुर्ता, बास्केट पहनती है और पुरुष पगड़ी, कोट, तहमद, धोती आदि पहनते हैं। इन्हें कीशदाकारी का बड़ा शौक है, कंघे पर चादर, हाथ में छड़ी उल्टी-सीधी बांधी पगड़ी एवं अंधमुडी दाढ़ी गुर्जर जाति की मूल पहचान है।
यह लोग हिंदुस्तानी भाषा बोलते हैं जैसे गुर्जरी कहते हैं, खाना बजे सोने से इन लोगों में शिक्षा का प्रसार नहीं हो सका है। युवा इन बनाने के लिए प्रयासरत है पर्वतीय आदिम जाति सेवक संघ भी इस के उत्थान में अपना साहनी योगदान दे रही है।
गद्दी- यह जाति राज्य के चंबा भरमौर के क्षेत्रों में निवास करती है। इनकी बस्ती को गधेरन कहा जाता है। जिसका अर्थ है- गलियों का घर अभी यह जाति अपने मूल स्थान को छोड़कर मंडी, कांगड़ा, बिलासपुर, आदि जिलों में जा बसी है। परंतु कांगड़ा मेन की जनसंख्या सबसे अधिक है। सन 1971 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में इं की जनसंख्या 50680 है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, जिसमें राजपूत ठाकुर, राठी आते हैं, कोली ( सिप्पी, लोहार) एवं बाहड़ी ( होली), इनके चार विशेष उपजातियां हैं। खत्री तथा राजपूत गद्दी प्रमानुसार चौला, डोरा पहनते हैं। अन्य नहीं। इन चार वर्गों के भी अपने अपने गोत्र, वर्ग एवं उपजातियां हैं। विवाह का निर्णय लेते समय इनमें गोत्र आदि का विचार किया जाता है। कनिंघम के अनुसार यह लोग क्रूर मुसलमान शासकों से डरकर इन पहाड़ों में आते हैं। इनके पूर्वज पंजाब एवं तुर्की उत्तर प्रदेश से आए बताए जाते हैं।
व्यवसाय की दृष्टि से यह लोग चरावे हैं। भेड़ बकरियों के अवधि इनकी संपत्ति है। जिस थण कहते हैं। यह लोग थोड़ी बहुत खेती भी करते हैं। कुछ वर्गों में उनी चादरें, पट्टे, पटियाला दी गुने तथा खराब के कार्य भी किए जाते हैं। मशीनी युग से बाल धोना भी इनके जीविकोपार्जन के साधन थे। आर्थिक दृष्टि से इनका अधिकार वर्ग संपन्न है। चोला, डोरा, साफा, टोपी, लोआचडी, चादरा दी इनकी शादी परमपारीक वेशभूषा है। तंबाकू के शौकीन होते हैं। व्यास शादियों में मस्ती है तो मदिरा का प्रयोग भी करते हैं।
यह लोग जीवन भर घुमक्कड़ रहते हैं। भेड़ बकरियां चराने वाले पॉल कहे जाते हैं। यह जीवन भर घुमक्कड़ रहते हैं। सर्दियों में कांगड़ा होशियारपुर के वनों में तथा गर्मियों में लाहौर स्थित चंद्रभागा नदी के तट पर इनका बसेरा होता है। यह लोग बड़े मेहनती एवं साहसी होते हैं। अपने प्रवास काल के दौरान खुले आकाश के नीचे बिना तंबू के डेरा डालकर उन्मुक्त जीवन जीना अच्छा लगता है। इनके विवाह के तौर-तरीके हिंदुओं के सामान हैं। इनमें कहीं-कहीं बहू पत्नी पर था देखने को मिलती है।
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