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जैव विकास के पक्ष में लैमार्कवाद के सिद्धांत
लैमार्कवाद
लैमार्क ने उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धांत प्रतिपादित किया। यह सिद्धांत तीन कारकों पर आधारित है-
पर्यावरण का प्रभाव
पर्यावरण का जीवों के शरीर पर सीधा प्रभाव पड़ता है क्योंकि जीवन की आवश्यकता उन्हें पर्यावरण से पूरी करनी होती है, जैसे भोजन की कमी में जिराफ द्वारा वृक्षों के पत्ते खाने के लिए गर्दन को लंबी करना पड़ा। इस कोशिश में गर्दन की लंबाई धीरे-धीरे बढ़ गई और आज यही लंबी गर्दन जिराफ की विशेषता बन गई है। अग्रपाद लंबे और पश्चपादप यथावत रहे हैं।
अंगों का उपयोग और अनुप्रयोग
शरीर में जिन अंगों का निरंतर उपयोग होता है उनका विकास हो जाता है और जिनका उपयोग नहीं होता है विलुप्त हो जाते हैं, जैसे व्यायाम करने से मांसपेशियों का सुदृढ़ और विकसित होना तथा कृमिरूप परिशेषिका, बाह्रा कान की पेशियां, पुंछ की हड्डियां, निमेषक पटल, शरीर के बाल कम उपयोग के कारण चिन्ह मात्र रह गए हैं।
उपार्जित लक्षणों की वंशागति
लैमार्क के अनुसार, उपयोग और अनुप्रयोग के कारण शरीर में जो अंग आ जाते हैं अर्थात विकसित हो जाते हैं या लुप्त हो जाते हैं, उन्हें उपार्जित लक्षण कहते हैं। उपार्जित लक्षण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित हो जाते हैं और यह आने वाली पीढ़ियों में इन अंगों के परिवर्तनों के उपरांत नए गुणों के रूप में दिखाई देते हैं जिसे नए गुणों वाली पीढ़ी कहा जाता है।
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