आज इस आर्टिकल में हम आपको कर्नाट वंश का इतिहास के बारे में बताने जा रहे है.
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बिहार में जिस समय तुर्कों के सैनिक अभियानों की पृष्ठभूमि बन रही थी, उसमें इस क्षेत्र में राजनीतिक अस्थिरता थी. 11 वीं शताब्दी के अंत तक पालों की सता बिहार में पतंनशील थी. रामपाल के शासन काल ( 1097- 1098) में तिरहुत के कर्नाट राज्य का उदय हुआ, जिस का संस्थापक न्यायदेव एक महान शासक ( 1098- 1133 ई.) था. उसका पुत्र गंगदेव एक योग्य प्रशासक ( 1133- 1187 ई.) था.
इसकी राजधानी सिमरावगढ़ थी, जो अब नेपाल की तराई के पूर्वोत्तर क्षेत्र में स्थित है. गंगदेव के बाद उसका पुत्र नरसिंह देव 1187 ईस्वी में गद्दी पर बैठा और 38 वर्षों तक शासन किया. नरसिंह देव का संघर्ष बंगाल के सैन्य शासकों के साथ होता रहा. इसी कारण नरसिंह देव द्वारा तुर्कों के साथ सहयोग किया गया.
जब बख्तियार खिलजी के आक्रमण बिहार के क्षेत्र में हुए तो नरसिंह देव ने भी उसे नजराना या भेंट देकर संतुष्ट किया. उस समय नरसिंह देव का अधिकार त्रिभुज और दरभंगा क्षेत्रों पर फैला हुआ था. 13वीं शताब्दी में बिहार के अपराधियों दौरा क्षेत्र में निरंतर सैनिक अभियान किए गए. समकालीन तिब्बती यात्री धर्मास्वामिन ने इस क्षेत्र के तुर्क सेनापति तुगन के असफल अभियान की चर्चा की है. उस समय तिरहुत पर रामसिंग सिंह देव ( 1225- 1276 ई.) का शासन था.
राम सिंह देव का पुत्र एवं उत्तराधिकारी शक्ति देव सिंह एक दुर्बल शासक था. परंतु उसके पुत्र हरसिंहदेव को न्यायदेव से भी अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई. कर्नाट शासकों के साथ दिल्ली के सुल्तानों का संपर्क केंद्र बना रहा था.
उस समय तिरहुत का शासक हरसिंहदेव था. तुर्क सेना के आक्रमण का वह सामना न कर सका और नेपाल की तराई में पलायन कर गया तथा इसकी वजह से उत्तरी और मध्य बिहार के क्षेत्रों का विलय हो गया. परंतु हरिसिंहदेव ( 1279- 1325) एक महान समाज सुधारक के रूप में सक्रिय रहा.
उसी के समय में पंजी-प्रबंध का विकास हुआ. फलस्वरूप पंजिकारों का एक नया वर्ग संगठित हुआ. स्मृति और निबंध संबंधी रचनाएं भी इस काल में बड़ी संख्या में लिखी गई और मैथिल समाज का जो रूप वर्तमान काल तक बना हुआ है, इसकी विशेषताएं इसी काल से जुड़ी है.