आज इस आर्टिकल में हम आपको नंद वंश (344-321 ई. पु.) का इतिहास के बारे में बताने जा रहे है.
महापद्मनंद ने शिशुनाग वंश का अंत करके मगध साम्राज्य पर है 344 ई, पु. में अधिकार कर लिया. पुराण में उसे महापद्म तथा महाबोधिवंश में उग्रसेन कहा गया है. पुराणों के अनुसार नंद वंश का प्रथम राजा महापद्मनंद था.
पालि ग्रंथों के अनुसार महापदम का नाम उग्रसेन था. पुराणों के अनुसार उग्रसेन का नाम महापद्मनंद इसलिए पड़ा क्योंकि उसके पास 10 पदम सेना अथवा इतनी ही संपत्ति थी. प्राय सभी ग्रंथों में उसे नाई जाति का बताया गया है. यूनानी लेखक कर्टियस ने सिकंदर के समकालीन नंद सम्राट धनानंद के विषय में लिखा है कि घनानंद का पिता महापद्मंनंद नाई जाति का था.
अपनी सुंदरता के कारण वह रानी का प्रिय पात्र बन गया तथा उसके प्रभाव से राजा का विश्वास पात्र बना, फिर धोखे से उसने राजा की हत्या कर दी. उसके बाद राजकुमारों के संरक्षण के बहाने कार्य करते हुए सिंहासन पर अधिकार कर लिया. अंत में उसने राजकुमारों की भी हत्या कर दी. इस प्रकार महापद्मनंद मगध का सम्राट बना.
महाबोधि वंश में कालाशोक के गीत 10 पुत्रों का उल्लेख हुआ है वह अवयस्क है तथा महापद्मनंद उनका संरक्षक था . मौर्यों के उत्कर्ष के पूर्व मगध साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार उसी ने किया. महापद्मनंद मगध के सिंहासन पर बैठने वाले सभी राजाओं में सर्वाधिक शक्तिशाली राजा साबित हुआ. अपने तत्कालीन सभी प्रमुख राजवंशों को परास्त किया और एक छत्र राज्य की स्थापना की.
पुराणों के अनुसार इन राज्यों में एक इक्क्षावुक ने 24 वर्ष, शूरसेन ने 23 वर्ष तथा मैथिली 28 वर्ष तक शासन किया. भारतीय इतिहास में पहली बार महापद्मनंद ने मगध देश में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की जिसकी सीमाएं गंगा घाटी के मैदानों का अतिक्रमण कर गई. नंद वंश में कुल 9 राजा हुए संभवत : इस कारण भी वंश को नंद वंश कहा जाता है.
नंद वंश का अंतिम शासक धनानंद था जो सिकंदर का समकालीन था. घनानंद का साम्राज्य का की विशाल था जो उत्तर में हिमालय से दक्षिण में गोदावरी तथा पश्चिम में सिंधु नदी से लेकर पूर्व में मंगध तक फैला हुआ था.
नंद साम्राज्य उस समय शक्तिशाली अवस्था में था. कहा जाता है कि नंद वंश के सैन्य बल, विशेषकर हस्तिसेना, के कारण ही सिकंदर के सैनिकों ने व्यास नदी का तट पार करने से इंकार कर दिया और सिकंदर का भारतीय अभियान अधूरा ही रहा. नंद वंश के संस्थापक महापद्मनंद के पुत्र घनानंद के शासनकाल में भारत पर सिकंदर का आक्रमण ( 327 ई. पु.) हुआ था.
घनानंद एक लालची शासक था जिसे टर्नर के अनुसार धन बटोरने का व्यसन था. उसने 80 करोड़ की धनराशि गंगा के अंदर एक पर्वत गुफा में छुपा कर रखी थी. उसने वस्तुओं के अलावा पशुओं के चमड़े, वृक्षों की गोंद तथा खनन योग्य की पत्थरों पर भी कर लगाकर अधिक से अधिक धन का संचय किया. घनानंद अपनी असीम शक्ति और संपत्ति के बावजूद राज्य की आम जनता का विश्वास नहीं जीत सका. बल्कि राज्य की प्रजा उसे घृणा करती थी.
अपने शासनकाल में घनानंद ने जनमत की घोर उपेक्षा की तथा उस काल के एक महान विद्वान ब्राह्मण चाणक्य को अपमानित किया था. वह छोटी-छोटी वस्तुओं के ऊपर बड़े-बड़े कर लगाकर जनता से बलपूर्वक धन वसूल करता था. परिणाम स्वरुप जनता नंदो के शासन के खिलाफ हो गई. चारों तरफ घृणा और असंतोष का वातावरण बन गया.
इस स्थिति का लाभ उठाकर चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य की मदद से घनानंद की हत्या करके मगध की जनता को अत्याचारी नंद वंश के शासन से मुक्ति दिलाई. नंद वंश का शासन 321 ईसवी पूर्व में समाप्त हुआ. नंद वंश के शासन काल में मगध आर्थिक रुप से अत्यंत समृद्ध था . जिसकी चर्चा दूर दूर तक होती थी.
7 वीं सदी के चीनी यात्री हेनसांग ने भी नंदो के अतुल संपत्ति की रोचक कहानी सुनी थी. हेनसांग के अनुसार पाटलिपुत्र में पांच स्तूप थे, जो नंद राजा के सात बहुमूल्य पदार्थों द्वारा संचित कोषागारों का प्रतिनिधित्व करते थे. व्याकरण के महान विद्वान व आचार्य पाणिनि महापद्मनंद के मित्र थे.
पाणिनि ने पाटलिपुत्र में शिक्षा भी पाई थी. नंद शासक जैन धर्म को मानते थे तथा उन्होंने अपने शासन में अनेक जैन मंत्रियों को नियुक्त किया था. कल्पक इन मंत्रियों में पहला था. नंद शासक के काल में मगध साम्राज्य राजनीतिक सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से प्रगति के मार्ग पर अग्रसर हुआ.
मगध साम्राज्य के उत्कर्ष के कई कारण थे. इस क्षेत्र में लोहे की अनेक खाने थी जो अच्छे हथियारों का निर्माण करने में सहायक थी. जहां नए-नए अस्त्र शस्त्र का भी विकास हो रहा था जिनमें महाशिलाकंटक और रथमूसल अत्यंत उपयोगी थे. मगध क्षेत्र में कच्चा लोहा और तांबा जैसे खनिज पदार्थों की बहुलता थी.
मगध का राज्य मगध गांगेय घाटी के केंद्र में स्थित था. यह चित्र अत्यधिक उर्वर और समृद्ध. था. कृषि के समान अवस्था के कारण शासक वर्ग के लिए आर्थिक संसाधनों की प्राप्ति भी आसान थी, जो साम्राज्य विस्तार के लिए अनिवार्य थे. इस क्षेत्र में व्यापार भी समृद्ध अवस्था में था और इस कारण अतिरिक्त आर्थिक संसाधन भी उपलब्ध है.
मगध की दोनों राजधानियों राजगृह और पाटलिपुत्र प्राकृतिक और भौगोलिक दृष्टि से सुरक्षित थी. तक्षशिला से प्राप्त आहत सिक्कों से स्पष्ट होता है. कि सिकंदर के समय में सिक्के के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में काफी प्रचलित है. ईसा पूर्व 5 वी शताब्दी के अंत तक मगध साम्राज्य पूरे उत्तरापथ के व्यापार का नियंता बन गया. मगध की आर्थिक के संपन्नता में साम्राज्यवाद के विकास का मार्ग प्रशस्त हो गया.
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