अंबिकापुर
स्वर्गजा
बिलासपुर
5019.80 वर्ग किमी
7 (अंबिकापुर, सीतापुर, लुण्ड्रा(धौरपुर), लखनपुर, उदयपुर, बतौली, मैनपाट)
579
07
399
01
0
02
4
8,40,352
4,24,492
4,15,860
3,80,445
1,93,952
1,86,493
61.16 प्रतिशत
71.23 प्रतिशत
50.88 प्रतिशत
58.26 प्रतिशत
85.11 प्रतिशत
167 व्यक्ति प्रतिवर्ग किलोमीटर
1000 : 963
18
11
19
लाल एवं पीली मिट्टी।
चावल, गेहूं, दलहन, तिलहन, मक्का।
गुरु घासीदास राष्ट्रीय उद्यान, अचा-नकमार अभ्यारण्य, तमोर पिंगला अभयारण्य, समरसोत अभयारण्य।
सरगुजा विश्वविद्यालय, अंबिकापुर (2008)।
रेणनदी, बाकी, घुंघुट्टा
बॉक्साइट, कोयला, सरगुजा, गेरू, यूरेनियम, सोना ,बेरिल, टाल्क, खनिज तेल।
उराव, कंवर, कमार, नगेशिया, खैरवार, मंझवार, पारधी, खरिया।
कन्हार परियोजना
लकड़ी चीरने का उद्योग, कत्था उद्योग, रेशम उद्योग
लक्ष्मण गुफा, दरबार गुफा
7131 वर्ग किमी
जलप्रपात
|
अंबिकापुर पूर्वी सरगुजा जिले का मुख्यालय है। वर्ष 1998 में कोरिया (पश्चिम सरगुजा) नामक जिले का गठन इसके विभाजन के पश्चात हुआ। अंबिकापुर छत्तीसगढ़ के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र का महत्वपूर्ण नगर है। अंबिका देवी के नाम पर इसका नाम अंबिकापुर पड़ा। जिला ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। यह क्षेत्र राम की कर्मभूमि के रूप में जाना जाता है जहां राम ने सीता एवं लक्ष्मण के साथ अपने वनवास का संक्रांति काल बिताया था जिनके प्रमाण हमें यहां गुफाओं तथा जोगीमारा, रामगढ़, लक्ष्मण बंगरा, सीता, बंगरा आदि गुफाओं एवं विभिन्न स्थलो यथा सीतापुर, लखनपुर, रामपुर आदि से मिलते हैं। यह नगर झारखंड राज्य द्वारा व्यवसायिक रूप से जुड़ा हुआ है।
जिला मुख्यालय अंबिकापुर से 45 किलोमीटर की दूरी पर यह ऐतिहासिक स्थल स्थित है। उपलब्ध साक्ष्यों से पता लगा है कि यह ऐतिहासिक दृष्टि से छत्तीसगढ़ का प्राचीनतम स्थल है। या उपलब्ध चिन्ह इस बात के प्रमाण है कि यहां कभी बहुत ही शिक्षित सभ्य एवं कला प्रेमी लोग रहा करते थे इसे रामगिरी भी कहते हैं। इस स्थल का वर्णन ब्रिटिशकालीन स्टैटिसटिकल अकाउंट ऑफ बंगाल (भाग 17) तथा छत्तीसगढ़ प्युड़ेटरी गैजेटियर और कनिंघम के आर्कियोलॉजिकल सर्वे रिपोर्ट भाग 13 में मिलता है। प्रचलित कथाओं के अनुसार श्री रामचंद्र वनवास की अवधि में यहां रुके थे। रामगढ़ की पहाड़ी पर स्थित अनेक मंदिर, खंडहर, गुफाए, तथा अनेक मूर्तियां है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण पहाड़ी के शिखर पर स्थित मौर्यकालीन सीता बंगरा, जोगीमारा गुफा, लक्ष्मण (गुफा), बंगरा वशिष्ट गुफा आदि है। इन गुफाओं की खोज शिकार के दौरान कर्नल आउस्ले (1848) ने की थी तथा जर्मन डॉ. ब्लाश (1904) ने इसे आर्कयोलॉजिकल सर्वे की रिपोर्ट में प्रकाशित कराया।
इस प्राकृतिक सुरंग का प्रवेश मार्ग 55 फूट और अंतिम स्थान 90 फुट चौड़ा है। इसके अंदर अविरल बहने वाला एक बड़ा नाला है जिसके पानी के बहने के कारण सुरंग के अंदर छोटे छोटे अनेक जलाशय भी बन गए हैं। प्रमुख जलाशय सीताकुंड के नाम से प्रसिद्ध है। जहां माता सीता स्नान किया करती थी। यह सुरंग इतनी ऊंची है कि हाथी भी बड़ी सरलता से प्रवेश कर सकता है। इसी कारण सुरंग का नाम हाथी खोह या हाथी पोर पड़ा। सूरग के ऊपर सीता बगरा और जोगीमारा पहाड़ी के ऊपरी भाग में पश्चिमी ढाल से दक्षिण तक फैली हुई है। उत्तरी गुफा सीता बंगरा और दक्षिण गुफा जोगीमारा कहलाती है।
गुफा के शिलालेख के अनुसार, यह विश्व की सबसे प्राचीन नाट्यशाला मानी गई है, जहां तत्कालीन सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन का प्रतिबिंब दिखता है। यहां ईसा पूर्व तीसरी दूसरी सदी की एक नाट्यशाला पहाड़ी से काटकर बनाई गई थी। जिसे सन 1848 में कर्नल आउस्ले प्रकाश में लाया था। 1903-04 में डॉ. जे ब्लॉक ने इसे आर्केलाजिक सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में प्रकाशित किया जिनके अनुसार इसकी लंबाई 44.5 फुट और चौड़ाई 15 फुट है। प्रवेश द्वार गोलाकार और लगभग 6 फुट ऊंचा तथा दीवारें लंबवत है। इस गुफा का नाम सीता बंगरा है, जिसकी छत पर पॉलिश है। यहां 30 लोग बैठ सकते हैं इसके प्रवेश द्वार पर बाई और ब्राही लिपि तथा पाली भाषा में दो पंक्तियां उत्कीर्ण है। गुफा ग्रीक थियेटर के आकर की है नाट्यशाला की प्राचीनता के अनुसंधानों से ज्ञात होता है कि प्राय: 2000 वर्ष पहले नाट्य मंडप बनाया जाता था जहां नाटक अभिनय होते थे।
जोगीमारा की गुफा को भारतीय चित्रकला में वरुण का मंदिर कहा जाता है। यह सूतनुका देवदासी रहती थी जो वरुण देव को समर्पित थी। ऐसा माना जाता है कि सूतनुका ने जीता बगरा नृत्यशाला वाली सखियों के विश्राम के लिए इसे बनवाया था। इस गुफा में भितीचित्रों के सबसे प्राचीन नमूने अंकित है। इन चित्रों की पृष्ठभूमि धार्मिक है। कैप्टन टी. ब्लाश ने सन 1904 में इन चित्रों का अवलोकन कर इन्हें 2000 साल से भी अधिक पुराना एवं संभवत: भारत के प्राचीनतम भित्तिचित्र का प्रमाण माना है। लेखक आर.ए. अग्रवाल ने भारतीय चित्रकला का विकास में इन्हें ई. पूर्व 300 ई. में निर्मित बताया है शिलाखंडों को काटकर जिस तरह चैत्य विहार मंदिर बनाने की प्रथा थी और भितियों पर प्लास्टर लगाकर चूने जैसे पदार्थ से चिकना कर दो चित्र बनाए जाते थे उसी के अनुरूप यह गुफा है। गुफा की छत पर अंकित आकर्षक रंग-बिरंगे चित्रों में तोरण, पत्र-पुष्प, पशु पक्षी, नर नारी, देव-दानव, योद्धा, वृक्ष तथा हाथी के चित्र हैं। इस गुफा में चतुर्दिक चित्रकारी के मध्य में कुछ युवतियों के चित्र है जो बैठी हुई मुद्रा में हैं। इसके सामने वृक्ष के नीचे शांत मुद्रा में उपदेश देता हुआ एक पुरुष बैठा है, जो तपस्वी होने का संकेत देता है।
इस गुफा में ब्राही लिपि एवं पाली भाषा का एक उत्कीर्ण लेख ज्ञात हुआ है, दो सूतनुका नामक देवदासी एवं रूपदक्ष देवीहिन के प्रेम का वर्णन करता है। संभवत है देवीहिन ने अपने प्रेम के स्थायित्व देने हेतु अपनी भावनाओं को दीवार पर उत्कीर्ण किया है। उक्त अभिलेख छत्तीसगढ़ में मौर्यकालीन व पालीभाषा का एकमात्र गुहा लेख है। संभवत छत्तीसगढ़ में प्राप्त यह प्राचीनतम अभिलेख है। यह गुफा महाकवि कालिदास से भी संबंधित कहीं गई है। उनके मेघदूत का यक्ष इसी गुफा में निर्वासित था जहां से उसने अपनी प्रेमिका को संदेश भेजा था।
जोगीमारा के समक्ष अनेक गुफाओं में से एक लक्षण बंगरा भी है जिसके भीतर रखी हुई विशाल चट्टान एवं इसके सम्मुख का दृश्य अत्यं मोहक है। यह श्री लक्ष्मण के शयन अथवा विश्राम के लिए प्रयोग में लाई जाती थी और यहीं से वे श्रीराम और सीताजी की रखवाली किया करते थे। इस तरह सीता बंगरा , जोगीमारा गुफा और लक्ष्मण बंगरा तीनों रामायणकालीन अवशेष है। ऐसी मान्यता भी है कि यहीं से रावण ने सीता का हरण किया था। यहां पर एक लकीर भी खींची हुई दिखती है जिसे लक्ष्मणरेखा कहा जाता है। सीता बंगरा में जो पदचिन्ह दिखाई देते हैं उसे रावण का पदचिन्ह माना जाता है। ये सभी तथ्य प्रमाणित करते हैं कि सीता बंगरा , जोगीमारा और लक्ष्मण बंगरा का इतिहास रामायणकालीन है। सरगुजा ही बालि एवं सुग्रीव का राज्य था और यही से राम ने वानर सेना बनाकर सीता की खोज हेतु प्रस्थान किया था। यहां स्थित किष्किंधा पहाड़ ही रामायण कालीन किष्किंधा पर्वत था, ऐसा कुछ विद्वानों का मत है।
रामगढ़ का किला एवं विशिष्ट गुफा (ऐतिहासिक, पुरातात्विक)
वर्तमान में यह किला जीर्ण अवस्था में है तुर्रा स्थान से 1 किलोमीटर दूर समतल सतह पर चलने के बाद पर्वत की खड़ी कर ऊपर पहुंचने पर प्राचीनकाल का कलापूर्ण फाटक मिलता है जहां पर देवन गुरु की खंडित मूर्ति शिवलिंग को प्रमाण करती हुई मिलती है किले में कवि चौरा नामक स्थान है जो योगी धर्मदास का स्थल है। आगे वशिष्ट गुफा मिलती है, जहां मुनि वशिष्ठ ने तपस्या की थी। किले के ऊपरी हिस्से में तीन मंदिरों के अवशेष मिलते हैं जहां सरस्वती और झागरा खांडदेवी का पवित्र स्थल तथा विष्णु मंदिर है जिसका कलात्मक सौंदर्य अद्वितीय है। मंदिर में सर्वप्रथम भगवान विष्णु की प्रतिमा जिसके पार्श्व में ब्राह्मणी नारायणी, दाहिनी ओर वरुण देव, नीचे पचदेवों की मूर्तियां तथा अन्य मूर्तियां-ब्रह्मचारिणी देवी, भगवान लक्ष्मण अर्थात शेषशायी की, राम-सीता की, जिनके चरणों पर हनुमानजी भगत रूप में प्रकट है, आदि है। इसी पर्वत शिखर पर एक प्राचीन तलाब है जिसका जल दैनिक जीवन में उपयोग लाया जाता है। यहां एक अन्य स्थान चंदन माटी के नाम से प्रसिद्ध है, जो प्रमागी नदी का उद्गम स्थल है। इसके अलावा रामगढ़ पर्वत में झपिबेंग्रा ,फुलसुंदरी बेगरा एवं दरबार गुफा आदि स्थल है जहां कभी तपस्वी तपस्या करते थे।
बिलासपुर-अंबिकापुर मार्ग पर 200 किलोमीटर की दूरी पर उदयपुर से 20 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में देवगढ़ एक पुरातात्विक स्थल है। अंबिकापुर में इसकी दूरी लगभग 60 किलोमीटर है। देवगढ़ में एकादश रुद्र की कभी स्थापना रही होगी आज केवल उनके भग्नावशेष पड़े हैं। सभी 11 मंदिरों के भग्नावशेष रेणुका (रिहंद) नदी के तट पर पास-पास बिखरे पड़े हैं। एकादश रुद्रों में एक ऐसी शिवलिंग है। शिवलिंग के पश्चिम देवी पार्वती की मूर्ति सुंदर कलापूर्ण ढंग से अंकित है।
अंबिकापुर से 40 किलोमीटर की दूरी पर पड़ने वाले ग्राम उदयपुर से दक्षिण की ओर 8 किलोमीटर की दूरी पर महेशपुर ग्राम स्थित है। ग्राम से 1 किलोमीटर की दूरी पर रेणुका नदी के निकट 10 वीं शताब्दी का विशाल शिव मंदिर स्थापित है। शिव मंदिर से लगभग 1 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह स्थल कुड़िया-झोंरी मोड़ी नाम से यहां 10 वीं शताब्दी में निर्मित दो विशाल विष्णु मंदिर के अवशेष हैं। यह दोनों मंदिर लगभग डेढ़ एकड़ के भूभाग में अवस्थित थे, किंतु ये वर्तमान में अत्यंत भग्न अवस्था में है, ग्राम के समीप 1.5 किलोमीटर की दूरी पर जैन तीर्थकार वृषभनाथ की एक प्रतिमा अवस्थित है जोकि आठवीं शताब्दी की है, महेशपुर में स्थित सभी मंदिर बलुआ, लाल पत्थरों द्वारा निर्मित है।
अंबिकापुर से एकदम पश्चिम भाग में लगभग 150 किलोमीटर पर भरतपुर तहसील में गोपद और बनास नदियों के निकट कोटाडोल स्थित है। यहाँ अशोककालीन कई मूर्तियां प्राप्त हुई है, जिसमें इस काल की कलाकृतियों का जीवंतस्वरूप दृश्व्य है। इन मूर्तियों पर अशोक की लाट, शेर की त्रिमूर्ति आदि भी उत्कीर्ण है, जिससे स्पष्ट है कि सम्राट अशोक का साम्राज्य विस्तार इस क्षेत्र तक रहा होगा।
कलचा भदवाही सरगुजा जिले के उदयपुर से सूरजपुर की ओर जाने वाली कच्ची सड़क में 23 किलोमीटर तथा अंबिकापुर से 63 किलोमीटर दूर स्थित है। यह पुरातात्विक दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण स्थल है, जहां खुदाई के दौरान आठवीं नौवीं शताब्दी के दुर्लभ मंदिरों के ध्वसावशेष प्राप्त हुए हैं। यहाँ उत्खनन में शैव मत से संबंधित सात मंदिरों का भग्न स्थिति में अनावृत्त किया गया है। यह स्थल को सृतमहला नाम से भी जाना जाता है।
डीपाडीह महत्वपूर्ण पुरातत्वीय स्थल है। यहां पर 1 किलोमीटर के क्षेत्र में प्राचीन मंदिरों के ध्वसावशेष बिखरे पड़े हैं। इस स्थल पर मलवा सफाई के बाद अनेक मंदिरों के समूह अनावृत कर अनुरक्षण कार्य के द्वारा सुरक्षित रखने का प्रयास किया गया है। डीपाडीह के भग्न स्मारकों में शिव मंदिर सामत सरना विशेष प्रसिद्ध है। मंदिर के मंडप में कार्तिकेय, विष्णु, महिषासुर मर्दिनी, गणेश वराह और नंदी आदि की प्रतिमाएं रखी हुई है। यहां पर स्थानीय संग्रहालय बनाया गया है।
अंबिकापुर से 85 किलोमीटर की दूरी पर स्थित 25 वर्ग किमी के क्षेत्र में विस्तृत छत्तीसगढ़ का एकमात्र हिल स्टेशन मैनपाट एक उच्च भूमि सदृश्य क्षेत्र है। समुद्र सतह से इसकी ऊंचाई 4000 फुट है। यहां स्थित 150 फुट ऊँचा ‘सरभंजा जलप्रपात’ पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। टाइगर पॉइंट यहां का महत्वपूर्ण स्थल है। शीतोष्ण प्रकार की जलवायु होने के कारण शासन की ओर से यहां तिब्बतियों को प्रतिस्थापित किया गया है। बौद्ध धर्म अनुयायी मैनपाट के तिब्बती दलाई लामा को अपना धर्म प्रमुख मानते हैं। मैनपाट में बॉक्साइट का प्रचुर भंडार है। यहां मतरिंगा पहाड़ से रिहंद नदी निकली है। जिस पर उत्तर प्रदेश में रिहंद बांध का निर्माण किया गया है। तिब्बतियों द्वारा निर्मित यहां के कालीन एवं गर्म कपड़े प्रसिद्ध है एवं निर्यात भी किए जाते हैं। कालीन के अलावा मैनपाट पामेरियन एवं जासूसी कुत्तों के लिए मशहूर है, मैनपाट को शासन ने दार्जिलिंग की तरह विकसित करने का संकल्प लिया है। इसे छत्तीसगढ़ का शिमला कहा जाता है।
अंबिकापुर-रामानुजगंज राजमार्ग पर अंबिकापुर से 80 किलोमीटर की दूरी पर उष्ण जल के 8-10 भू स्रोत स्थित है, जो तातापानी नाम से जाने जाते हैं। इसके जल का तापमान 84 डिग्री सेल्सियस के लगभग है। यह एक प्राकृतिक हाटस्प्रिंग है जिसमें सल्फर की मात्रा विद्यमान होने से यह चर्मरोग हेतु लाभप्रद है। वैज्ञानिकों द्वारा इसमें विद्युत संयंत्र लगाने की अनुशंसा की गई है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग द्वारा यहां तीन बोर होल किए गए है जिनसे 97 डिग्री सेंटीग्रेड का पानी 1200 लीटर प्रति मिनट की दर से फव्वारों के रूप में निकल रहा है। इन फव्वारों से 100 किलोवाट ओ.आर.सी. उर्जा ईकाई के लिए अनुशंसा की गई है। निकट भविष्य में यह विद्युत संयंत्र भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण, तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग के सहयोग से स्थापित होगा। यह देश का अपनी तरह का दूसरा संयंत्र होगा, गर्म जल के फव्वारों पर पहला सयंत्र लदाख है जिले की पूगा घाटी में लगाया गया। तातापानी का जल खनिज लवणों से युक्त है यहां खनिज जल का एक प्लांट स्थापित किया जा सकता है।
सरगुजा जिले में चांदनी थाना एवं बलंगी नामक स्थान के समीप रेंड नदी बहती है जोकि बलंगी के निकट रक्सगडा जलप्रपात का निर्माण करती है। प्रपात नीचे एक संकरे कुंड का निर्माण करता है जिसकी गहराई काफी अधिक है एवं यहां से एक 100 मीटर की सुरंग निकलती है, सुरंग के छोर से रंग-बिरंगा पानी निकलता रहता है जो अपनी तरह का एकमात्र उदाहरण है।
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