आज इस आर्टिकल में हम आपको शेरशाह द्वारा किये गए युद्ध और अधिकार के बारे में बताने जा रहे है.
शेरशाह ने 1542 ईसवी में मालवा पर आक्रमण किया था 1543 में उस पर विजय प्राप्त कर लिया. मालवा के साथ-साथ मांडू और सतवास पर भी शेरशाह का अधिकार हो गया.
मालवा से लौटने के समय में शेर शाह ने 1542 ई. रणथभौर पर अधिकार कर लिया तथा अपने बड़े पुत्र आदिल को वहां का हाकिम नियुक्त किया.
1543 तक रायसीन, भिलसा और चंदेरी पर भी शेरशाह का अधिकार हो गया.
हुमायु के प्रति सहानुभूति रखने वाले मारवाड़ के शासक राव मालदेव से शेरशाह से असंतुष्ट था और वह उसकी शक्ति का नाश करना अफगान साम्राज्य की रक्षा हेतु आवश्यक समझता था. ऐसी स्थिति में उसके पास वीरमदेव और नगराज आए, जिन के समर्थन से शेरशाह मालदेव पर आक्रमण के लिए तैयार हो गया.
मालदेव ने लड़ाई के लिए आगरा से काफी दूर युद्ध की योजना बनाई. मालदेव को पराजित करने में सहायक हो अत्यंत कठिनाई हुई और उसने कहा अरे मैंने एक मुट्ठी बाजरे के पीछे हिंदुस्तान का राज्य ही गवा दिया था. शेरशाह ने मालदेव का पीछा करते हुए अजमेर, जोधपुर, नाग, मेड़ता आदि पर अधिकार कर लिया. अंततः मालदेव का संपूर्ण राज्य के अधीन हो गया. वीरमदेव और कल्याणमल को मेड़ता और बीकानेर का शासन दे दिया गया और जोधपुर से मेवात का समस्त प्रदेश खवास खा के हवाले कर दिया गया.
शेरशाह का अंतिम युद्ध चंदेलो से हुआ. उस समय भाटा के राजा वीरभानु द्वारा हुमायु की मदद किए जाने के कारण शेरशाह नाराज हो गया. वीरभानु ने भयभीत होकर कालिंजर के राजा कीरत सिंह के पास शरण लिया.
80,000 घुड़सवार, 2000 हाथी तथा अनेक बड़ी तोप लेकर शेरशाह ने कलिंजर पर 3 महीने तक घेरा डाले रखा. एक दिन अपने सैनिकों के कार्य का निरीक्षण करते वक्त एक हाथगोला फट जाने से शेरशाह घायल हो गया और 22 मई, 1545 को उसकी मृत्यु हो गई. परंतु उसकी मृत्यु के पूर्व उसकी इच्छा अनुसार कालिंजर दुर्ग पर उसका अधिकार हो गया.
सिंहासन पर बैठते समय (1540ई.) शेरशाह की आयु 68 वर्ष थी. हालांकि वह केवल 5 वर्ष तक राजगद्दी पर रहा, किंतु इस अल्प काल में उसने ऐसा कार्य किया कि भारतीय इतिहास में अमर हो गया. शेरशाह ने 1541 ईसवी में पाटलिपुत्र को पटना से पुनस्थापित किया. रोहतासगढ़ का किला तथा दिल्ली का किला-ए-कुहना नामक मस्जिदे उसी ने बनवाया था.
शेर सा ऐसा प्रथम मुस्लिम शासक था जिसने हिंदू मुसलमान में भेद नहीं किया और जनसाधारण को मुख और शांतिपूर्ण जीवन जीने का अवसर दिया. शेरशाह ने आफगानों को संगठित करने की भरपूर कोशिश की.
उसने किसानों की दशा सुधारने और राज्य की आय निश्चित करने के उद्देश्य से भूमि व्यवस्था में महत्वपूर्ण सुधार किए. भूमि की माप के लिए उसने 32 अंक वाला सिकंदरी गज एवं सन की डंडी का प्रयोग किया. कबूलियत एवं पट्टा प्रथा की शुरुआत की. उसके समय पैदावार का लगभग एक तिहाई भाग लगान के रूप में वसूला जाता था. शेरशाह ने 178 ग्रेन चांदी का रुपया और 380 ग्रेन तांबे का दाम का प्रचलन शुरू किया. शेरशाह की मृत्यु के पश्चात उसका योग्य पुत्र जलाल खान, इस्लाम शाह के नाम से गद्दी पर बैठा (27 मई, 1545 ई.)
गले की बीमारी की वजह से वह काफी मात्रा में अफीम खाने लगा. 30 अक्टूबर, 1553 ईसवी को उसकी मृत्यु हो गई. इस्लाम शाह की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र फिरोजशाह गद्दी पर बैठा (1553 ई.). फिरोजा के गद्दी पर बैठने के 2 दिन बाद ही उसके मामा मुबारिज खा ने उसकी हत्या कर दी और खुद ए मोहम्मद आदिल शाह के नाम से गद्दी पर बैठ गया. इस प्रकार सूर वंश का शासन 15 वर्षों तक रहा.
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