संस्कृति के अजस्र प्रवाह है कि निरंतर एवं समानता का एकमात्र आधार भाषा ही है। भाषा एवं संस्कृति का आपस में अभिन्न संबंध रहा है। भाषा का इतिहास ही संस्कृति का इतिहास माना गया है। सांस्कृतिक जीवन मूल्यों, आस्थाऔ, विश्वासों तथा निष्ठाऑ साथ-साथ भाव प्रतीक एवं अभिव्यक्ति के रूप में एक साथ आगे बढ़ती है। इसी आधार पर कहा जा सकता है कि भाषा संस्कृति ही वाहक ही नहीं पोषक भी है। क्षेत्रीय सांस्कृतिक अध्ययन की दिशा में वहां की भाषा अथवा बोली के एक एक शब्द में स्थानीय चेतना एवं परंपरा का विकास नहीं मिलता है।
हिमाचल प्रदेश में बोले जाने वाली भाषा का नाम पहाड़ी है। अबे इसे हिमाचली का नाम दिया जा रहा है। पहाड़ी भाषा किसी निश्चित विशेष क्षेत्र की भाषा में होकर भाषा समूह से संबंधित है। हिमाचल प्रदेश का मानचित्र देखने पर इसकी स्थलाकृति के दो भाग दिखाई देते हैं।
उपर्युक्त दोनों भागों में भौगोलिक ता के कारण स्थानीय बोलियों एवं उप भाषाओं का सहज विकास हुआ है जिसकी परंपरा आज भी दिखाई देती है। इन सभी भाषा रूपों में पहाड़ी भाषा के गुण मुख्य विशेषताएं हैं एवं पड़ोसी भाषा रूपों से बंद और स्वतंत्र है। पहाड़ी भाषा में जीवन का उन्मुक्त परवाह है, पर्वत उपत्यकाओं के निर्झर सा आवेग एवं ममता की सहज, सरल तथा स्वच्छंद अभिव्यक्ति मिलती है। इसके साहित्य में जीवन के उल्लास की स्वच्छंद धारा मिलती है। पहाड़ी हिमाचल के लोगों की भाषा है और सदियों से यह 40 लाख से अधिक लोगों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। रियासत काल में यह टाकरी, फारसी, कोची, आदि लिपियों में लिखी जाती रही है। परंतु अब देवनगरी को ही लिपि रूप में उपयुक्त समझा गया है।
हिमाचल भाषा में बहुत ही स्थानीय अंतर है। इसका मूल कारण यहां के राजनीतिक ढांचे में परिवर्तन तथा भौगोलिकता माने जा सकते हैं। स्वतंत्रता पूर्व क्षेत्र छोटी छोटी रियासतों में बटा था। यातायात के साधन कम थे लोग प्राय नदियों एवं पहाड़ों से गिरे अपने ही क्षेत्रों तक सीमित रहते थे स्थानीय परंपराओं, बाशा रूपों तथा अन्य सामाजिक मूल्यों का विकास उन्हीं स्थानों तक सुमित रहा है। राज्यों के पुनर्गठन से पूर्व क्षेत्र कांगड़ा, कुल्लू, आदि पंजाब के पर्वतीय क्षेत्र रहे हैं। क्षेत्रों पर पंजाब का प्रभाव भी समय अनुसार पड़ना स्वाभाविक था। लेकिन इन क्षेत्रों की बोलियां अपनी जीविता बनाए हुए हैं। प्रदेश में निम्नलिखित गोलिया मिलती है-
यह जिला सिरमोर की बोली है। इसे करीब 300000 लोग बोलते हैं। यह बोली दक्षिण पश्चिम में हिंदी पश्चिमोत्तर में बाघाटी पूर्वोत्तर में कुल और पूर्व में जौनसारी से घीरी है।गिरी नदी किस जिले को दो भागों में विभाजित किया गया है। अंतः यहां इसके दो मूलरूप मिलते हैं- गिरी पारी, गिरी बारी, भांति एवं त्रिलोकपुरी की एक बोली के रूप है। ग्रियर्सन ने जुगल क्षेत्र की विश्व बोली को भी सिरमोरी का रूप माना है। कारक विशेषता के कारण यह बोली अन्य बोलियों से पृथक से प्रतीत होती है। इसका लोकसाहित्य काफी समृद्ध है।
शिमला एवं फलन के आसपास के क्षेत्रों में बोली जाने वाली बोली को डॉ ग्रियर्सन ने तत्कालीन रियासत के नाम पर क्योंथली का नाम लिया, परंतु अभ यह महासुवि के नाम से लोकप्रिय है। हडूरी, शिमला, सिराजी, बराड़ि, सौरा, चोली, किरानी eएवं कोची इसकी छह उपबोलियां हैं। इसका लोक साहित्य भी काफी समृद्ध है। यह 500000 लोगों से अधिक की भाषा है।
यह बोली सोलन जिले में बोली जाती है। इसका नाम भूत पूर्व बघाट रियासत से जुड़ा है। अश्वनी नदी इससे मास हुई एवं कव्वाल नदी से सिरमोरी से पृथक करती है.।दक्षिण में इसका प्रभाव पिंजौर एवं नालागढ़ तक है।कुविहारी एवं अर्की कि इसकी मुख्य उप बोलियां है। 300000 से अधिक लोग इसे बोलते हैं।
यह जिला बिलासपुर में प्रचलित है। स्वतंत्रता से पूर्व इसे कहलूंर रियासत कहा जाता था। इसी आधार पर इसे क्षेत्र की भाषा का नाम कहलुरी पड़ गया आम लोग इसे बिलासपुरी के नाम से जानते हैं। आज लगभग दो लाख लोग इस गोली को बोलते हैं।
यह मंडी जिले की बोली है, इसमें अधिकांश जवनिया च- वर्गीय है। यह रियासत, राज्यों की राजभाषा रही है। इस टकरीर लिपि मैं लिखा जाता था। इस बोली को बोलने वालों की संख्या लगभग 6 लाख है।
यह कुल्लू जिले की बोली है। डॉ ग्रियर्सन ने पश्चिम पहाड़ी बोलियों में कुलिय एवं क्योथली (बघाटी ) कौ विशिष्ट स्थान दिया है। कुल्लू का लोक साहित्य काफी समृद्ध है। स्थानीय लोग आज भी इस बोली को बोलते हैं। अब इसमें शिष्ट साहित्य की रचना की जा रही है। ब्राह्मण शिराजी, भीतरी शिराजी, एवं सेजी इसकी उपबोलियां है। इस बोली को बोलने वालों की संख्या 200000 से अधिक है।
यह बोली कांगड़ी के नाम से जानी जाती है। वर्तमान में यह कांगड़ा, उन्ना, हमीरपुर, बिलासपुर, सरकाघाट, जोगिंद्रनगर, एवं घुमारवीं के क्षेत्रों में बोली जाती है। यह बोली हिमाचल की बोलियों में सर्वोपरि है। यह प्रदेश के सभी क्षेत्रों में समझी जाती है। यह बोली बोलने एवं सुनने में सरल व मधुर है। पालनपुर, नूर पुरी, शिवाला की एवं कंडी इसकी मुख्य उपबोलियां है। इसको लागू 15 लाख से अधिक लोग बोलते हैं।
यह बोली चंबा में बोली जाती है। इस जिले की चार अन्य बोलियां है- चुराही, ( गद्दी), भटियाली एवं पंगवाली भाषा विज्ञान और उच्चारण की दृष्टि से इससे पर्याप्त भिन्न है। चंपा नगर के आस पास की बोली ही मूलतः चमभ्याली है।भरमौर में भरमोरी ( गद्दी) चौराहे में चुराही, पटियाल में भटियाली एवं चम्बा लाहुत मे लाहोली आदि बोलियां बोली जाती है। इस सभी का लोक साहित्य काफी समृद्ध है। इस बोली को बोलने वालों की संख्या 300000 से अधिक है।
ला होली का क्षेत्र लाहौल है। गारी (बुनन) पटनी ( मंनचती), तीननी (tतिनन) तोंद रंगलाई,तथा लाहौर की बोलियां इसकी उप बोलियां गोरी में 80% है सब तिब्बती के है। यह गारी घाटी में बोली जाती है। पटनी का क्षेत्र पटना वादी है। इससे लाहुल की अधिकांश जनसंख्या बोलती है। बहुत से समुदाय आपस में इस बोली को बोलते हैं। यह सरल, सुबोध, एवं सुव्यवस्थित बोली है।इसकी सरधना हिंदी व्याकरण के अनुसार तिननी गारी पटनी एवं तोंद रंगलोई का मिश्रित रूप है। यह भी एक संपन्न तथा मधुर बोली है। इस गोली को 5000 से अधिक लोग बोलते हैं।
स्पीति घाटी की बोली का नाम से स्पीती है। यह बोली थी तिबत्ती परिवार की है। इसके बोलने समझाने का क्षेत्र वहां तक सीमित है। इस बोली में अपने गीत कथाएं तथा गाथाएं हैं। तीन बोलियों के संग्रह तथा लोक साहित्य के अध्ययन की दिशा में कम प्रयास हो पाए हैं।
यह किनौरी के अधिकांश भागों में बोली और समझी जाती है। सुन्मी, छित कुल कदीम आदी। इसकी उप बोलियां हैं जो पृथक पृथक क्षेत्रों में बोली जाती है। इसमें संस्कृत शब्दों की बहुलता है। कुछ विद्वानों ने छोटा नागपुर में बोली जाने वाली मुंडारी से इसका गहरा संबंध बना है।
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