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1857 की क्रांति के कारण यूपी में राष्ट्रवाद का जन्म

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1857 की क्रांति के कारण यूपी में राष्ट्रवाद का जन्म

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1857 की क्रांति के कारण यूपी में राष्ट्रवाद का जन्म

वर्ष 1857 की क्रांति के कारण इस प्रांत के प्रति अंग्रेजी राज का रवैया पक्षपातपूर्ण हो गया था. परिणामस्वरुप प्रांत शिक्षा तथा सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में बंगाल, आदि से बिछड़ता चला गया. इसके साथ ही साथ यह प्रांत धार्मिक व सांस्कृतिक के आंदोलनों के मामले में पिछड़ा ही रहा. जिस दौर में बंगाल, ब्राह्मण समाज तथा रामाकृष्ण मिशन, पंजाब आर्य समाज, तथा मुंबई में पूना, प्रार्थना समाज, व सत्यशोधक मंडल जैसी सामाजिक बौद्धिक संस्थाओं के कारण सांस्कृतिक व बौद्धिक रूप से उद्वेलित हो रहे थे.
उत्तर प्रदेश संस्कृतिक शून्य के दौर से गुजर रहा था. इस दौर में आर्य समाज को सिर्फ दो शाखाएं उत्तर प्रदेश में स्थापित हो सके. इस अपेक्षाकृत शांत माहौल में भी उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में बनारस के भारतेंदु हरिश्चंद्र, अपने कवि वचन सुधा नामक पत्रिका के माध्यम से बंगाल के स्वदेशी आंदोलन के समर्थक में मुहिम जारी रखे हुए थे.

1857 की क्रांति

इसी दौर में मुसलमानों के बीच सर सैयद अहमद खान ने एक प्रगतिशील आंदोलन की नींव रखी. ब्रिटेन से लौटने के बाद सन 1869 में उन्होंने तहजीब-उल-अखलाक नामक पत्रिका के माध्यम से मुस्लिम समाज के मध्य पाश्चात्य ज्ञान विज्ञान का आंदोलन प्रारंभ किया. उन्होंने अलीगढ़ में सन 1857 में मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल विद्यालय की स्थापना की, जो बाद में अलीगढ़ विश्वविद्यालय बन गया. उत्तर प्रदेश के आधुनिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय अलीगढ़ आंदोलन के नाम से विख्यात आंदोलन है.

मुंबई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन 28 दिसंबर, 1885 को गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज संपन्न हुआ उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व स्थापना अधिवेशन के कुल 72 प्रतिनिधियों में गंगा प्रसाद वर्मा, प्राणनाथ पंडित, मुंशी ज्वाला प्रसाद जानकीनाथ घोषाल, रामकली चौधरी, बाबू जमुनादास, बाबू शिवप्रसाद चौधरी किशन लाल बैजनाथ आदि ने किया था.

कोलकाता में सम्पन्न कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में उत्तर प्रदेश के प्रतिनिधियों की संख्या 74 पहुंच गई थी. दादा भाई नौरोजी की अध्यक्षता में प्रारंभ किस अधिवेशन में कुल 431 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था. सुरेंद्रनाथ बनर्जी भी कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में सम्मिलित हुए थे. अधिवेशन में सुरेंद्र नाथ बनर्जी तथा इंडियन द्वारा सम्मिलित होने के निर्णय लेते हैं बंगाल के अन्य राजनीतिक संगठनों ने भी इसमें खुल कर हिस्सा लिया. कांग्रेस का महासचिव ए. ओ. ह्युम को बनाया गया तथा कांग्रेश को स्थानीय समितियों को गठित करने का निर्णय लिया गया.

इस अधिवेशन में कांग्रेस ने 17 सदस्य समिति का गठन सार्वजनिक सेवाओं से जुड़े प्रश्नों पर विचार के लिए किया. जिसमें अकेले उत्तर प्रदेश से पांच सदस्यों को चुना गया था. लखनऊ के गंगा प्रसाद वर्मा, प्राणनाथ, हामिद अली तथा नवाब राजा अली खान और इलाहाबाद के मूर्ति काशी प्रसाद इस समिति में शामिल थे.

1857 का विद्रोह

उत्तर प्रदेश से राजा राम पाल सिंह, मौलवी हामिद अली, रामकली चौधरी एवं पंडित मदन मोहन मालवीय को मद्रास में संपन्न तीसरी अधिवेशन में बदरुद्दीन तैयबजी द्वारा घोषित सब्जेक्ट कमेंटी में सम्मिलित किया गया था. कांग्रेस के इसी सत्र में पार्टी के संविधान तथा कार्य पद्धति को निर्धारित करने के लिए एक विधि समिति का गठन किया गया था, जिसमे लखनऊ में गंगा प्रसाद वर्मा, विशन नारायण व मौलाना हामिद अली को शामिल किया गया था.

यह अधिवेशन अपने पूर्ववर्ती दोनों अधिवेशन से अधिक सफल सिद्ध हुआ. इस अधिवेशन में 607 प्रतिनिधियों ने भाग लिया तथा पहली बार प्रतिनिधियों के रहने के लिए एक सभा स्थल हेतु स्वीकृति प्रदान की गई. कांग्रेस को एक जन संगठन बनाने का प्रयास इसी अधिवेशन से प्रारंभ हुआ.

जार्ज युले की अध्यक्षता में इलाहाबाद में कांग्रेसका चौथा अधिवेशन संपन्न हुआ. इसी प्रांत के गवर्नर ऑकलैंड काल्विन ने पूर्ण कोशिश की कि दूर प्रांत में कांग्रेस का प्रचार ना होने पाए नहीं और न ही वह आवश्यक चंदे का ही संग्रह कर सके और यह भी प्रयास किया कि इलाहाबाद में अधिवेशन के लिए कांग्रेस को कोई जगह नहीं मिल पाए. मद्रास के तीसरे अधिवेशन में कांग्रेस द्वारा अंग्रेजी प्रशासन के विरुद्ध की गई कूट आलोचनाएं ही इस अंग्रेजी शासन के कड़े रुख का कारण थी.

सर सैयद अहमद खां तथा बनारस के राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद ने भी अंग्रेजों के कड़े रुख के साथ कांग्रेस का विरोध प्रारंभ. सर सैयद अहमद ने मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रहने को कहा, परंतु भारतीय मुस्लिम समाज में उनके विरोध के बाद भी कांग्रेस के प्रति आकर्षण निरंतर बढ़ता ही रहा. इसके अधिवेशन में मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या वर्ष 1885 में 2 वर्ष, 1886 में 33 वर्ष, 1887 में 79 तक बढ़ चुकी थी.

सर सैयद ने कांग्रेस में मुसलमानों के बढ़ते प्रभाव को देखकर मोहममडन एजुकेशन कांग्रेस और यूनाइटेड पैट्रियोटिक एसोसिएशन नामक दो संस्थाओं की स्थापना कर कांग्रेस के विरूद्ध प्रचार प्रारंभ कर दिया. कांग्रेस के विरुद्ध प्रचार में सर सैयद के साथ-साथ राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद ने भी पूरा साथ दिया. ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन तथा सर दिनसा मानक जी पेटीट जैसे धनानाढय पारसियों ने भी कांग्रेस को कमजोर करने की पूरी कोशिश की.

इलाहाबाद का अधिवेशन इन ब्राह्म विरोध के बाद भी पहले तीन अधिवेशन से अधिक सफल सिद्ध हुआ. कुल 1248 प्रतिनिधियों ने इसमें हिस्सा लिया, जिसमें से 964 हिंदू, 222 मुसलमान, 7 पारसी, 11 जैन, 6 सिख, 16 इसाई, 2 यूरोपियन और 20 अमेरिका निवासी भारतीय थे. इन प्रतिनिधियों में से 11 नवाब, 1 शहजादा, 2 मुगल राज कुमार, 3 अन्य राजकुमार, 388 जमीदार. 448 वकील. 77 पत्रकार, 143 आयुक्त, 58 अध्यापक तथा 10 किसानों ने हिस्सा लिया था.

इलाहाबाद का अधिवेशन संख्या की दृष्टि से एक सफल अधिवेशन था, परंतु इसमें सामंतों तथा अभिजात वर्गीय प्रतिनिधित्व का वर्चस्व से इतना अधिक बढ़ गया की अंग्रेजी राज के प्रति कांग्रेस का रुख पहले की तुलना में अधिक नर्म होने लगा. रानाडे और गोखले आदि इस नरम रुख के नेतृत्व कर रहे थे. सन 1892 का अधिवेशन लंदन में करने का निर्णय इस नरम रुख के परिणाम स्वरूप ही लिया गया था,. परन्तु बाद में इसे इलाहाबाद में करने का निर्णय लिया गया. उत्तर प्रदेश में यह कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन था. कांग्रेस का तीसरा अधिवेशन उत्तर प्रदेश में सन 1899 में लखनऊ में हुआ था. जिसमें कांग्रेस के अधिवेशन को स्वीकार किया गया तथा प्रादेशिक कमेटियों के गठन का निर्णय भी इसी अधिवेशन में लिया गया था.

भारत के इतिहास से संबन्धित प्रश्न

कांग्रेस के अंदर ही एक उग्रवादी धारा कांग्रेस के नरम रुख के विरुद्ध प्रवाहित होने लगी. जिसका नेतृत्व तिलक तथा अरविंद घोष कर रहे थे. अरविंद घोष ने मुंबई से प्रकाशित होने वाली इंदु प्रकाश में कांग्रेस केस नेहरू के विरुद्ध जमकर लिखा और सन 1895 के पूर्व काग्रेस में तिलक ने यह सीधा आरोप लगा दिया कि वह इसे आम जनता तक नहीं ले जाना चाहता है, वर्ष 1905 तक कांग्रेस से पर यद्यपि नरमपंथीयों का ही वर्चस्व स्थापित रहा परंतु धीरे-धीरे नरम और गरम पन्थ के मध्य दूरी को तिलक की बढ़ती लोकप्रियता ने बढ़ाना प्रारंभ कर दिया था.

बंगाल विभाजन ने कांग्रेस आंतरिक मतभेद को अत्यधिक बढ़ावा दिया. कांग्रेस में बंग भंग आंदोलन में दिए गए बहिष्कार, स्वदेशी तथा राष्ट्रीय शिक्षा के नारे के प्रश्न पर तीखे मतभेद उत्पन्न हो चुके. ऐसे माहौल में कांग्रेस का 25वां अधिवेशन बनारस में हुआ. बनारस में इन दोनों समूहों में पहला टकराव हुआ. इस विवाद का प्रथम कारण प्रिंस ऑफ वेल्स का स्वागत प्रस्ताव था. इस प्रस्ताव को बनारस में पारित करना चाहते थे, जबकि तिलक आदेश के विरुद्ध है. बाद में जब तिलक दल ने सन 1960 कोलकाता अधिवेशन में बहिष्कार आंदोलन को अखिल भारतीय स्तर पर प्रारंभ करने का प्रस्ताव किया तो नरम दल ने इसका विरोध किया. अधिवेशन का प्रारंभ ही कटुताओं से हुआ था. वास्तव में, गरम दल वाले लाला लाजपत राय को अध्यक्ष बनाना चाहते थे, जबकि नरम दल वाले 81 वर्षीय दादा भाई नौरोजी को ब्रिटेन से बुलाकर तीसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया था. गरम दल इसका विरोध न कर सका था. दोनों दलों में स्वदेशी आंदोलन को लेकर भी विरोध प्रारंभ हो गया था. इन सब का परिणाम वर्ष 1907 के सूरत कांग्रेस में उस समय सामने आया जब यह विरोध चरम सीमा में पहुंच गया था कांग्रेस दो हिस्सों में विभाजित हो गई.

इस समय सरकारी दमन चक्र भी स्वदेशी, बहिष्कार एवं राष्ट्रीय शिक्षा के आंदोलनों के विरोध अपनी चरम सीमा पर था. 24 जून, 1908 को तिलक को केसरी में प्रकाशित लेखों के लिए 6 वर्ष की सजा दे दी गई. बंगाल के प्रसिद्ध नेताओं अश्विनी कुमार दत्त और कृष्ण कुमार मित्र को देश से निकाल दिया गया. अब कांग्रेस पूरी तरह नरम दल वालों के हाथ में आ चुकी थी, क्योंकि बिपिन चंद्र पाल तथा अरविंद घोष भी सक्रिय राजनीति से निकल गए थे.

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