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उत्तर प्रदेश के प्राचीन काल का इतिहास
पाषाण काल
जिस काल का कोई लिखित विवरण प्राप्त नहीं होता है प्रोगतिहासिक काल, या पाषाण काल कहलाता है, और जब मानव लेखन कला से अपरिचित थे तथा पाषाण निर्मित उपकरणों पर निर्भर था. पाषणकाल को तीन ऐतिहासिक कालंतरों में विभक्त किया जाता है-
- पुरापाषाण काल
- मध्य पाषाण काल
- नवपाषाण काल
उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर, सोनभद्र, बुंदेलखंड तथा प्रतापगढ़ (सराय नाहर क्षेत्र) जिलों से पाषाण कालीन औजार प्राप्त हुए हैं.
पुरापाषाण काल
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के. जी. आर. शर्मा के निर्देशन में जब राज्य की बेलन घाटी (इलाहाबाद से मिर्जापुर) में खोजी गई, तब सोहन संस्कृति के उपकरण प्राप्त हुए. दौंस नदी की एक सहायक नदी बेलन नदी है, जो मिर्जापुर की मध्यवर्ती पठारी भू-भाग में प्रभावित होती है. पाषाण काल के सभी युगों से संबंधित उपकरण व पशुओं के जीवाश्म इस नदी घाटी के विभिन्न पूरास्थलो से मिले हैं. यहां पर 44 पुरास्थल मिले हैं जो कि निम्न पुरापाषाण काल से संबंधित है.
इस घाटी के प्रथम जमाव से निम्न पुरापाषाण काल के उपकरण प्राप्त हुए हैं. इनमें सभी प्रकार के हैंड एक्स, क्लीवर, स्क्रैपर, टेबल पर बने हुए चापर उपकरण आदि सम्मिलित है. यहां के कुछ उपकरणों में मुठीया लगाने का स्थान भी मिला है तथा यह उपकरण क्वार्टरजाईट पत्थरों से निर्मित है.
यहां से मध्य तथा उच्च पुरापाषाण काल के उपकरण भी मिले हैं. मध्यकाल के उपकरण फ्लेक पर निर्मित है, जिनमें बेधक, ब्लेड आदि प्रमुख है. इन उपकरणों का निर्माण महीन करने वाले अच्छे क्वार्टजाईट पत्थरों से किया जाता है. ब्लेड, बेधक, बयूरिन स्क्रेपर अभी यहां के उच्च पुरापाषाण काल इन उपकरणों में प्रमुख है. इनमें ब्लेड की बनावट बेलनाकार है. लोहदा नाला क्षेत्र से इस काल की स्थिति निर्मित मात्रिदेवी की एक प्रतिमा भी मिली है, जो इस समय कौशांबी संग्रहालय में सुरक्षित रखी हुई है. ईसा पूर्व 30,000 से 10,000 के बीच यहां के उच्च पुरापाषाण कालीन संस्कृति का समय निर्धारित किया गया है.
चकिया (वाराणसी), सिंगरौली बेसिन (मिर्जापुर), वह बेलन घाटी (इलाहाबाद), से मध्य पुरापाषाण काल की जानकारी भी प्राप्त हुई है. जहां से बहुसंख्यक कोर फ्लैक, ब्लेड.क्लीवर व हेंडएक्स प्राप्त हुए हैं.
मध्य पाषाण काल
मध्य पाषाण काल इन उपकरणों हेतु राज्य का वैद्य तथा ऊपरी एवं मध्य गंगा घाटी वाला क्षेत्र अत्यंत समृद्ध है. वाराणसी जिले के चकिया तहसील, मिर्जापुर जिला, इलाहाबाद की मेजा, करछना तथा बारा तहसीलों के साथ-साथ बुंदेलखंड क्षेत्र के विंनध्य क्षेत्र के अंतर्गत शामिल किया जाता है.
सन 1962 से 1980 के मध्य इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग की ओर से मिर्जापुर जिले में स्थित मोरहना पहाड़, बगहीखोर, यात्रा इलाहाबाद जिले को मेजा तहसील में स्थित चोपानीमांडो नामक मध्य पाषाणकालीन पुरातत्व स्थलों की खुदाई करवाई गई. इन जगहों से लघु एवं सूक्ष्म उपकरणों के साथ-साथ नर कंकाल भी प्राप्त हुए हैं.
लेखहीया से 17 नर कंकाल प्राप्त हुए हैं, जिनमें से अधिकांश के सिर पश्चिम दिशा में है. मिर्जापुर जिले से प्राप्त लघु उपकरणों में एक विकास क्रम देखने को मिला है तथा यहां से प्राप्त उपकरण क्रमश: लघुतर होते गए हैं, इलाहाबाद का चोपानीमांडो पुरास्थल 15,000 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत भू-भाग है. यहां से अधिकांश पाषाण उपकरण, पेबुल आदि मिले हैं. चर्ट, चाहीन्सडनी आदि पत्थरों द्वारा इनका निर्माण हुआ है. इन उपकरणों के अतिरिक्त यहां की खुदाई से झोपड़ियों के होने के प्रमाण मिले हैं. यहां से हाथ के बने हुए मिट्टी के कुछ बर्तन भी प्राप्त हुए हैं. 17000- 7000 ई. पु. के मध्य चोपनीमांडो के उपकरणों का काल निर्धारित किया गया है.
इसके अतिरिक्त जमुनीपुर (फूलपुर तहसील), कुंडा बिछिया, भीखपुर तथा महरुडीह और कोरांद (तहसील) आदि इलाहाबाद जिले के अन्य पुरातत्व स्थल है, जहां से मध्य पाषाण काल के उपकरणों की जानकारी भी प्राप्त हुई है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास के भूतपूर्व अध्यक्ष जी. आर शर्मा तथा उनके सहयोगियों आर के शर्मा एवं बी. डी. मिश्र द्वारा प्रतापगढ़ जिले में सरायनाहर राय, महदहा और दमदमा नमक मध्य पाषाण कालीन पुरातत्व स्थलों का उत्खनन करवाया गया, जिनमें सराय नाहर राय से प्राप्त लघु भाषण उपकरणों में स्क्रेपर, चंद्रिक, वैद्यक, समबाहु तथा विषम बहु त्रिभुज आदि है. इनके निर्माण में चर्ट, एजेट, जेसपर आदि पत्रों का प्रयोग किया गया है.
यहां पर कुछ अस्थि एवं सींग निर्मित उपकरणों के साथ साथ 15 शवधानों तथा 8 गरम चूल्हे भी मिले हैं जिसमें मृतक संस्कार विधि की स्थिति स्पष्ट होती है. चूल्हों से पशुओं की अंधजली हड्डियां भी मिली है, जो यह स्म्पष्ट करती है कि इनका उपयोग उस समय मांस भूनने के लिए किया जाता था. सन 1978-80 के बीच महदाह की खुदाई की गई. यहां से भी लघु उपकरण के अतिरिक्त, आवास, श्वाधान, तथा गर्त चूल्हे होने की पुष्टि हुई है तथा यहां से सिल-लोढे व हथोड़े के टुकड़े भी मिले हैं. जिससे स्पष्ट होता है कि लोग पीसकर खाने की कला से भी परिचित थे.
सन 1982 से 1987 के बीच दमदमा (पट्टी तहसील) का उत्खनन कार्य किया गया. यहां से बहुत से लघु उपकरण ब्लेड, फलक, बयूरीन, चान्द्रीक आदि प्राप्त हुए हैं. जिनका निर्माण क्वार्टजाइट, चर्ट, एजेट, कार्नेलियन आदि के द्वारा किया गया है. अस्थि एवं सिंग के उपकरण व आभूषण के अतिरिक्त 41 मानव शवाधान तथा कुछ गर्त चूल्हे भी मिले हैं. यहां से भेड़, बकरी, गाय, बैल, भैंस, हाथी, गैंडा, बारहसिंगा, वस्वर आदि की हड्डियां भी प्राप्त हुई है तथा कुछ पक्षियों, मछली और कछुआ आदि की हड्डियां भी प्राप्त हुई है. जिससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय मानव मांसाहारी था. दमदमा के अवशेषों का काल 1000 से 4000 ई. पु. बताया जाता है.
इस काल के मानव का जीवन पूर्व पाषाण काल के मानव जीवन से कुछ भिन्न हो चला था, क्योंकि इस काल में मानव ने शिकार के अतिरिक्त थोड़ी बहुत कृषि करना भी सीख लिया था तथा इसके साथ ही साथ मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का भी काफी ज्ञान प्राप्त हो गया था. इस समय के लोगों को अग्नि का ज्ञान भी था, जबकि पूर्व पाषाण काल में मानव को न तो अग्नि का ज्ञान था और ना ही बर्तन बनाने की कला से परिचित था.
नवपाषाण काल
विंनध्य क्षेत्र के इलाहाबाद जिले में बेलन नदी के तट पर स्थित है कोलाडीहवा, महगडा तथा पंचम राज्य के प्रमुख नवपाषाण कालीन पूरास्थल है. यहां उत्खनन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग द्वारा करवाया गया है. कोरडीहवा से नवपाषाण कॉल के साथ सात अमर व लोहा कालीन संस्कृति के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं, जबकि महगड़ा और पंचोंह से केवल नवपाषाण कालीन अवशेष ही प्राप्त हुए हैं. यहां से गोलाकार कुल्हाड़ी , हथोड़े, छेनी, बसूली अभी भी प्राप्त हुए हैं.
यहां पर स्तम्भ गाड़ने के गड्ढे वह हाथ से बनाए हुए विन आकार प्रकार के बर्तन भी प्राप्त हुए हैं. यहां पर पशुओं के पाले जाने व उनका शिकार किए जाने का प्रमाण भी मिलता है. कोरडीहवा की खुदाई से धान की खेती किए जाने का भी प्रमाण मिला है, जिसकी अवधि का प्रमाण ईसा पूर्व 7000-6000 के बीच है. धान के दाने तथा उचित एवं पुआल यहां से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों के ठिकानों पर चिपके हुए मिले हैं.
इस काल में मानव कृषि व पशुपालन से पूर्णतया परिचित हो चुका था. वह खाद्य पदार्थों के उपभोक्ता के साथ-साथ उत्पादक भी बन चुका था. तथा घुमक्कड़ व खानाबदोश जीवन का परित्याग कर एक निश्चित स्थान पर घर बनाकर रहना सीख चुका था. इस काल का मानव जानवरों की खालों से बने वस्त्र तथा चित्रकला के ज्ञान से परिचित हो चुका था.